Anuraj UGC NET हिंदी Official
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काश ! मैं पढ़ते हुए पाया गया होता’ बात तब की है जब मैं स्नातक प्रथम वर्ष का छात्र था और बीएचयू के एनिबेसेंट छात्रावास, कमच्छा में रहता था। बनारस नज़दीक होने की वजह से हमारे ज़िले के लोग ख़रीदारी करने, हॉस्पिटल में दिखाने और पढ़ने के लिए प्राय: आते जाते थे। मार्च का महीना रहा होगा। ठंडी भी थोड़ी कम हो रही थी। ऊनी कपड़ों को अब रखने की तैयारी हो रही थी। मौसम अलसाई ले रहा था जिसका प्रभाव हम विद्यार्थियों पर भी पड़ रहा था। छात्रावास में सोने, उठने और खाने पीने की अपनी स्वच्छंदता होती है। एक दिन ब्रेकफास्ट करके थोड़ी देर के लिए पढ़ने बैठा था कि मन में आया कंबल चपोत के रख देता दूँ। इस बार पूरा छोटा न चपोत कर लंबा दुहरा ही चपोत करके चौकी पर वैसे लंबा करके रख दिया। अपने कमरे का दरवाज़ा केवल चिपकाया भर था। सोचा थोड़ा आराम कर लेता हूँ। चपोते हुए कंबल पर दरवाज़े की तरफ़ पैर करके लंबा लेट गया। मौसम अलसाया तो पहले से ही था। मुझे अच्छी वाली नींद आ गई। विद्यार्थी जीवन में ऐसी नींद कभी कभार ही आती है। अचानक देखता हूँ कि पिता जी अधखुले दरवाज़े के पास खड़े हैं। अचानक से बोल उठते हैं-‘सुतलऽ रहलाऽ हऽऽ’ । मेरी नींद अचानक टूट जाती है। पापा को देख घबरा जाता हूँ। उनके आने की खबर बिलकुल नहीं थी। बनारस किसी काम से आये थे। उस समय न उनके पास कोई निजी मोबाइल थी और न ही मेरे पास। केवल उन्हें पता था कि मैं फ़लाँ छात्रावास में रहता हूँ। सपकाकर उठता हूँ। आँख मिजता हुआ बोलता हूँ, पापा नींद आ गई थी। फिर झटके से उठकर उनका पैर छूता हूँ और उनके लिए पानी पीने का इंतज़ाम करता हूँ। और सोचता हूँ काश ! पढ़ता हुआ पाया गया होता । पापा कितना खुश होते कि पढ़ रहा था। कुछ देर के बाद पापा घर चले गए। मम्मी से बोले -भेंट त भईल ह, सुतल रहन हऽ। …😊 (स्मृति : मार्च 2006)
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