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सूफ़ी की क़लम से …✍🏻 वाट्सअप चैनल पर आप सभी साथियों का स्वागत है ।🙏🤝 शिक्षा ,साहित्य एवं पत्रकारिता से जुड़े शानदार प्रोग्राम ,आर्टिकल ,खबरें ,मनोरंजन, हास्य - व्यंग्य , खेल ,स्वास्थ्य आदि अनेक रोचक खबरें देखने के लिए हमारे नए वाट्सअप चैनल को फॉलो करें । उम्मीद करता हूँ कि आपने जो प्यार और मोहब्बत अब तक सभी सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर दी है वो यहाँ भी यहाँ भी जारी रहेगी । हम अपनी तरफ़ से पूरी कोशिश कर आपके लिये अच्छे से अच्छा कंटेंट उपलब्ध करवाने के लिए हर संभव कोशिश करेंगे । सूफ़ी की क़लम से चैनल को और बेहतर कैसे किया जाये इसके लिए आपके सुझाव आमंत्रित है । साथ ही महत्वपूर्ण खबरों को भी शेयर कर सकते है । आपका नासिर शाह (सूफ़ी ) wtsap - 9636652786 वेबसाइट - sufikikalamse.com Facebok - https://www.facebook.com/sufi.nasir.shah?mibextid=LQQJ4d Utube- https://youtube.com/@Sufikiqalamse-SQ?si=UN9Rm1Y3wOBDuLIb instagram https://instagram.com/nasir_shah_sufi?igshid=YzAwZjE1ZTI0Zg%3D%3D&utm_source=qr

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1/31/2025, 1:15:12 PM

सूफ़ी की क़लम से…✍🏻 “आओ चले..उल्टे क़दम, कुछ क़दम बीसवीं सदी की ओर “ भाग- 20 “अपना ब्रश कैसा हो” आज के दौर में शायद ही कोई ऐसा हो जो ब्रश उपलब्ध न होने पर दाँतो को साफ़ कर सके । चाहे पाँच से दस रुपये वाला बेहद घटिया क्वालिटी का ब्रश ही ख़रीदना पड़े लेकिन दांतों को साफ़ करने के लिए ब्रश पर ही निर्भर रहना पड़ता है । आज के दौर का इंसान, लगभग ये भूल चुका है हाथों की उँगलियों से और पेड़ों की दातून से भी दाँत साफ़ किए जा सकते हैं । दूसरी बात यह है कि दाँत साफ़ करने के लिए भी किसी भी कंपनी की हो लेकिन ट्यूब ही होनी चाहिये । बात ये नहीं है कि ब्रश और ट्यूब का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए, बात यह है कि दाँत हमारे शरीर का एक महत्वपूर्ण अंग है जिसके ख़राब होने की स्थिति में हम दुनिया की तमाम चीज़ों के स्वाद का मज़ा खो सकते हैं इसलिए दांतों का ख्याल रखना, हमारी प्राथमिकता होना चाहिए । दाँतो के मामलों में हमें आधुनिक संसाधनों के साथ ही अपने पुराने दौर के लोगों के तौर तरीको को भी देखना चाहिए जिनके पास महंगे ब्रश और ट्यूब नहीं होने के बावजूद भी बुढ़ापे तक उनके दाँत ना सिर्फ़ सुरक्षित रहते थे बल्कि सुंदर और चमकीले होते थे ।इसके पीछे के कारणों का विश्लेषण किया जाए तो एक चीज़ का सबसे महत्वपूर्ण योगदान रहा है और वह है विभिन्न प्रकार के पेड़ों की दातून। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि हमारे बुजुर्गों का यह दातून करने वाला फार्मूला दाँतों के लिए सबसे उपयुक्त माना गया है । चाहे दाँत साफ़ करना हो या दांतों से जुड़ी कोई बीमारी हो, दातून से सारी समस्याएँ ख़त्म हो सकती हैं । नीम,बबूल, जैतून जैसे पेड़ों की दातून इतनी गुणकारी होती है कि हम कल्पना भी नहीं कर सकते , इनके कई शोध प्रकाशित भी हो चुके हैं । इसके अलावा कई तरह की जड़ी बूटियों को सुखाकर और बारीक पीसकर उनका मंजन बनाया जाता था जिन्हें अपने हाथों की उँगलियों से दाँतों पर रगड़कर दाँत साफ़ किए जाते थे । ऐसा करने से भी दाँतों की सफ़ाई के साथ ही दाँतों और मसूढ़ो की कई समस्याओं से भी निजात मिलती हैं । अब आज के दौर की बात करें तो हम देखते हैं कि ज्यादातर युवा तो मंजन और दातून को जानते तक नहीं हैं । वह तो सिर्फ हार्ड प्लास्टिक वाले ब्रश और प्रतिस्पर्धात्मक कंपनियों की ठीकठाक पेस्ट वाली ट्यूब का इस्तेमाल करते हुए समझते हैं कि दाँतों के लिए यही प्रयाप्त हैं जबकि आपको सुनकर आश्चर्य होगा की आधुनिक सस्ते ब्रश हमारे दाँतों को साफ़ तो कर सकते हैं लेकिन उन्हें नुक़सान भी बहुत पहुँचाते है, साथ ही आधुनिक पेस्ट भी स्वाद और सुगंध बढ़ाने के चक्कर में कई हानिकारक पदार्थों का उपयोग करते हैं जो स्वास्थ्य की दृष्टि से पूर्णतया सही नहीं कहे जा सकते हैं । कहने का तात्पर्य सिर्फ़ इतना है कि अगर आपको आधुनिक ब्रश और पेस्ट का ही इस्तेमाल करना हो तो अच्छी कंपनी वाले महँगे ब्रश और पेस्ट का ही इस्तेमाल करें जिससे आपके दाँतो की सेहत के साथ खिलवाड़ ना हो, और अगर आप चाहते हो कि दाँतों और मसूढ़ों का सम्पूर्ण सरंक्षण हो वो भी बिना पैसों के तो आओ कुछ क़दम उल्टे चलते हुए अपने बुजुर्गों के तरीक़े अपनाये और बिना देर किये अपने आसपास पेड़ ढूँढे और रोज़ाना दातून करें । ये दातून हमेशा से पेड़ों पर उपलब्ध होती है जिन्हें हम निःशुल्क प्राप्त कर सकते हैं लेकिन लोगों को फ्री वाली चीजें कहाँ पसंद होती है, वह तो उन्ही दातुनों को ऑनलाइन या ऑफलाइन ज़्यादा क़ीमत देकर ख़रीदते हैं वह भी काफ़ी दिन पुरानी । आपको सलाह दी जाती है कि ज्यादातर दातुन हमारे आसपास निःशुल्क मिल जाती हैं केवल जैतून और दूसरीं तरह की दातून चाहिए हो तब ही इन्वेस्ट करें अन्यथा नहीं । नीम की दातून सबसे आसानी से मिलने वाली और बहुत ज़्यादा गुणकारी होती है और वह भी निःशुल्क । मिलते हैं अगले भाग में आपका सूफ़ी (सुझाव या अनुभव साझा करने के लिए व्हाट्सएप करें 9636652786)

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2/3/2025, 1:26:43 PM

सूफ़ी की क़लम से…✍🏻 “आओ चले..उल्टे क़दम, कुछ क़दम बीसवीं सदी की ओर “ भाग- 21 “सिलबट्टा VS मिक्सर ग्राइंडर” “खरड़ ..खरड़ .. खरड़…खरड़.. अगर आपके घर में भी खाना बनाने से पहले ये मधुर आवाज़ आती है तो इसका मतलब, आपका जीवन बिल्कुल देशी अंदाज़ में चल रहा है जो अन्य लोगों की तुलना में काफ़ी बेहतर है । खरड़ खरड़ की यह आवाज़ पत्थर के सिलबट्टें की होती जिस पर मसालों को प्राकृतिक रूप से पिसा जाता है । आजकल इन सिलबट्टो का स्थान आधुनिक मिक्सर ग्राइंडर ने ले लिया है जो चुटकियों में मसालों की खाल उधेड़कर हमारे सामने रख देता हैं और खाना जल्दी से तैयार हो जाता है लेकिन रुकिये! इन दोनों से तैयार मसालों के बीच काफ़ी फ़र्क़ होता है जो आपको समझना चाहिए । ज्यादातर लोगों को तो बस यही मालूम है कि मिक्सरजो है वह सिलबट्टा का विकल्प मात्र है, जिसे मिक्सर ने रिप्लेस कर दिया है लेकिन वास्तव में ऐसा है नहीं । निसंदेह मिक्सर खाना बनाने में काफ़ी सुविधा प्रदान करता है लेकिन बदले में हमें पुरानी चीजों के स्वाद और सुगंध के साथ समझौता भी करना पड़ता है । मिक्सर ग्राइंडर:- इक्कीसवीं सदी के आगमन के साथ ही घर घर में सिलबट्टें कम और मिक्सर ज़्यादा होने लगे क्यूँकि इनमें बहुत कम समय में मसाला तैयार हो जाता है वो भी बिलकुल बारीक या जैसा हम चाहे, लेकिन इसके लिए बिजली की ज़रूरत होती है और इस्तेमाल में यह बहुत आवाज़ करती हैं । साथ ही देखभाल के अभाव में जल्दी ख़राब भी हो जाती हैं। सफ़ाई में भी थोड़ी सी कमी रह जाए तो बदबू भी देने लगती हैं । हर चीज़ के सकारात्मक और नकारात्मक पहलू होते है । मिक्सर के मामले में सुविधाएं बहुत अच्छी हैं लेकिन फिर भी यह आधुनिक जमाने के कई लोगों को सिलबट्टें से दूर नहीं कर पाया है । सिलबट्टा:- पत्थर के सिलबट्टे में मसाला पीसने पर हमें मसालों की प्राकृतिक ख़ुशबू ज्यों कि त्यों मिलती हैं जो खाने का जायका बढ़ाने का काम करती हैं । दूसरी बात इसमें प्राकृतिक और धीमी गति से मसाला पिसता हैं तो ये गर्म नहीं होता और मसालों के गुण बरकरार रहते हैं। सिलबट्टें के यह गुण, एक अच्छे खाने के लिए बेहद ज़रूरी होते है । हालांकि इसके नुक़सान की बात करें तो नुक़सान कुछ भी नहीं है केवल इसमें समय थोड़ा ज़्यादा लगता है लेकिन बदले में बदन की कसरत वाला फ़ायदा भी देता है । इसके अलावा यह बेहद सस्ता होता है और बिजली पर निर्भरता भी नहीं रहती है । आधुनिक जमाने के कई घरों के इंसान तो शायद सिलबट्टें के बारें में जानते भी नहीं होंगे लेकिन अगर आप ये ब्लॉग पढ़ रहे हैं और सिलबट्टें के बारे में जानकर जिज्ञासा पैदा हुई हो तो एक बार सिलबट्टें के मसालों और चटनी का आनंद ज़रूर लें और जो सिलबट्टें के बारें में अच्छे से जानते हैं लेकिन आधुनिकता के फेर में इसे त्याग चुके हैं, और उनके खाने में भी प्राकृतिक स्वाद और सुगंध नहीं मिल रही है तो आइए , फिर से कुछ क़दम पीछे चलते हुए सिलबट्टें के लिए अपने घर में थोड़ी जगह दे और रोज़ ना सही,कभी कभी ही इसका इस्तेमाल कर पुरानी यादें ताज़ा करें ताकि देशी स्वाद और इसके गुण हमें जीवन का सही आनंद दे सकें। अगर आपके पास इससे जुड़ा कोई अनुभव हो तो साझा करें (9636652786) मिलते है अगले भाग में आपका सूफी

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2/5/2025, 1:56:51 PM

सूफ़ी की क़लम से…✍🏻 “आओ चले..उल्टे क़दम, कुछ क़दम बीसवीं सदी की ओर “ भाग- 22 “ क्या आपकी चाय में कैंसर है” साहित्य की दुनिया में “चाय” का महत्व हमेशा से रहा है चाहे उसके लिए लोगों और चिकित्सकों के कितने ही अलग अलग ख़यालात क्यों ना हों लेकिन ओवरऑल, चाय हमेशा से लोगों की पसंदीदा रही है और आज भी है और शायद हमेशा रहेगी भी । चाय के कई प्रकार होते हैं लेकिन यहाँ हम चाय के विभिन्न प्रकार के बारे में बात ना करके केवल उसके परोसने के तरीक़े पर बात करेंगे जो आज के दौर में सर्वाधिक चलन में हैं । घर हो या ऑफिस, बाज़ार हो या स्कूल,अस्पताल या खेत खलिहान ही क्यों न हो, सब जगह चाय पहुँच ही जाती है लेकिन अपने परंपरागत कप- प्लेट में नहीं बल्कि प्लास्टिक कोटेड पेपर डिस्पोजल में, जो हमारे स्वास्थ्य के लिए काफ़ी घातक हो सकता है । नए दौर में शॉर्टकट अपनाने और धोने की झंझट से बचने के लिए लोगों ने डिस्पोजल का इस्तेमाल शुरू कर दिया जो आज व्यापक स्तर पर पहुँच चुका है । ये डिस्पोजल वैसे तो पेपर के बने होते है लेकिन ज्यादातर डिस्पोजल के अंदर रसायनिक कोटिंग की जाती है जिससे गर्म चीज डालने पर वह आसानी से ख़राब नहीं होते लेकिन वो रसायन गर्म चाय के साथ उसमें घुल जाती हैं और हमारे शरीर के अंदर जाकर हमें स्लो कैंसर का निःशुल्क तोहफ़ा दे सकती है । इसलिए सबसे पहले हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि कहीं हम भी रसायन कोटेड वाली चाय पीकर कैंसर को दावत तो नहीं दे रहे हैं ना? पहले बाजारों में चाय पीने का अलग ही आनंद होता था । गर्मागर्म चाय के भगोने में अदरक या इलायची का छौंक इंसान के नथुनों में ख़ुशबू बिखेर कर, उसे चाय पीने के लिए मजबूर कर देते थे और फिर वो चाय छनकर, जब काँच के कप में गिरती थी तो चाय की सुंदरता दुगनी हो जाती थी । जब चायवाला, काँच के ग्लासों को आपस में टकराकर लोगों को देता था तो अपने आप चीयर हो जाता था और लोग मजें से चाय का आनंद लेते थे । फिर जमाना बदला और डिस्पोजल आया । अगर आपने इक्कीसवीं सदी के शुरुआती दौर को देखा हो तो आपको याद होगा कि जब नए नए डिस्पोजल बाजार में आए तो चाय के दाम, काँच के ग्लास में कम और डिस्पोजल में अधिक होते थे क्योंकि वो एक नया फैशन था। डिस्पोजल का ये फैशन ऐसा चला कि सब चाय वालों ने काँच और चीनी के कप और ग्लास ग़ायब कर दिए और सब जगह सिर्फ़ डिस्पोजल का चलन हो गया। वक्त ने फिर करवट बदली और लोगों को अहसास हुआ कि डिस्पोजल कप हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है तो फिर से कप और ग्लास की तरफ़ लौटने लगे और अब वो दिन आ गया जब डिस्पोजल चाय सबसे सस्ती और काँच, चीनी या मिट्टी के बर्तन वाली चाय महंगी मिलने लगी । अगर हम, चाय पीने के हमारे पुराने तरीक़ों को नहीं बदलते तो शायद आज कई तरह की गैस/एसिडिटी और स्लो कैंसर वाली समस्याओं से बचे रह सकते थे। लेकिन अब भी ज़्यादा देर नहीं हुई है, हमें वक्त रहते रसायन वाली डिस्पोजल चाय को अलविदा कह देना चाहिए ताकि स्वास्थ्य के मामले में थोड़ा सचेत रह सकें । हालांकि ये काम आसान नहीं है क्योंकि मौजूदा समय में हर जगह सिर्फ डिस्पोजल का ही बोलबाला है , ऐसे में हमें जितना हो सके इन्हें अवॉयड करना चाहिए। इसके अलावा अपने आसपास की चाय की दुकानों पर, जहां हमारा उठना बैठना ज़्यादा होता है, उन चाय वालों से,पुराने समय की तरह काँच,चीनी या मिट्टी के कप लाने का आग्रह करना चाहिए । थोड़ा वक्त लगेगा लेकिन फिर से वो समय आ जाएगा जिसमें चाय का पुराना स्वाद और अंदाज़ लौट आएगा वो भी बिना रासायनिक कोटेड डिस्पोजल कप के, इसलिए थोड़े पैसे अतिरिक्त खर्च करें और चाय को पुराने तरीके से एंजॉय करें । चाय के पुराने दौर की अपनी यादें हमारे साथ ज़रूर शेयर करें (9636652786) मिलते है अगले भाग में आपका सूफी

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