
Acharya Prashant
March 1, 2025 at 07:04 AM
गीता की सीख – पिटते रहो, उठते रहो!
"तितिक्षस्व और युध्यस्व – ये दोनों शब्द साथ चलने चाहिए। सहते जाओ और लड़ते जाओ।"
सहन करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।
क्या करोगे? पैदा हो गए हो, तो सहना ही पड़ेगा।
जीवन गरिमाहीन है।
जिसकी दुर्गति होनी होती है, वह पैदा हो जाता है।
लेकिन जीवन की जो थोड़ी-बहुत गरिमा हो सकती है, वह केवल इसी में है कि—
जब जीवन चोट मारे, तो हाय-हाय करके चिल्लाओ मत।
बस मौन गरिमा के साथ सह लो, पी जाओ।
निस्पृह, निरपेक्ष।
"ठीक, सह लिया। पी गए।"
और अगर गहरे रस से देखो, तो पाओगे—
"तितिक्षस्व और युध्यस्व एक ही हैं।"
सहना ही लड़ना है। ये दो चीज़ें नहीं हैं।
कभी इन्हें अलग भी देख सकते हो—
"पहले सहो, फिर लड़ो।"
लेकिन किसी और दृष्टि से देखो, तो समझोगे—
"सहन करना ही सबसे बड़ी लड़ाई है।"
प्रकृति का स्वभाव है तुम्हारे अहंकार पर प्रहार करना।
और अहंकार का कर्तव्य सिर्फ इतना है कि वह उन प्रहारों से विचलित न हो।
वह अपनी जगह से न डिगे।
और उसकी जगह क्या है?
"आत्मा की गोद में।"
"मैं यहाँ बैठा हूँ, थपेड़े पड़ रहे हैं, पर मैं हिलूँगा नहीं।"
यही तितिक्षस्व है—चुपचाप सहना।
यही युध्यस्व है—अपने स्थान पर अडिग रहना।
~ आचार्य जी
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