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February 23, 2025 at 11:56 AM
अंग्रेज कितने आधुनिक थे? वो 1628 से लेकर 1707 तक लगातार शाहजहां और औरंगज़ेब की आर्मी से पिटे थे… औरंगजेब के दरबार में अंग्रेजों को नाक रगड़वाई गई थी… 15वीं, 16वीं, 17वीं सदी में विश्व में तीन सबसे बड़ी ताकतें थी… ये तीन ताकतें थी ऑटोमन तुर्की, मुगलकालीन भारत और फारस (ईरान) इनमें तो अंग्रेजों का नाम दूर दूर तक नहीं है… 15वीं सदी में इसी यूरोप को कुस्तुनतुनिया में बुरी तरह हराया गया था जिसका दर्द आज भी यूरोप को हो रहा है… 18वीं सदी में भी ऑटोमन तुर्की सबसे ताकतवर रहा है, प्रथम विश्व युद्ध (20वीं सदी) में आकर तुर्की यूरोप से पिछड़ा है… यह हमारा गुलाम दिमाग ही है कि हर तौर तरीके से अंग्रेजों को बेस्ट ठहरा देता है, इसका सबसे बड़ा सुबूत है कि अंग्रेजी बोलने वाले को हम टैलेंटेड समझ लेते हैं जबकि वो मूर्ख भी हो सकता है… कला के मामले में मध्यकालीन भारत का यूरोप का कोई भी देश मुकाबला नहीं कर सकता, आपको यूरोप की कला अच्छी दिखती है लेकिन कुतुब मीनार, ताजमहल, लाल किला, जामा मस्जिद जैसी बड़ी बड़ी विश्व प्रसिद्ध इमारतों में स्थापत्य कला के बजाय ऐश क्यों दिखता है? विश्व के सात अजूबे सारे प्राचीन है। लेकिन सबसे सुंदर अजूबा लगभग 375 साल पुराना ताजमहल है। ये दुनिया के मुंह पर तमाचा है कि मध्यकाल में भारतीय स्थापत्य कला का कोई मुकाबला ही नहीं कर सकता था। जब यूरोप में इतनी ही कला थी तो मध्यकाल की एक यूरोपियन इमारत का नाम बताएं जो विश्व प्रसिद्ध हो। अगर इमारत किसी काम की नहीं होती तो रोम का म्यूजियम अजूबा क्यों है? साहित्य के क्षेत्र में मध्यकालीन भारत की विश्व प्रसिद्ध रचनाएं हैं, जिसमें बरनी की फतवा ए जहांदारी (कानूनी किताब), बाबरनामा, अकबरनामा, पादशाहनामा, तुजुक ए जहांगीरी... फतवा ए आलमगीरी (ये किताब कानून का रूप है) इन किताबों में सिर्फ युद्धों का जिक्र नहीं है बल्कि कला, कानून, राजनीति, धार्मिक विचार मिलते हैं। साथ में ज्योग्राफी भी। इसके अलावा आपको दुनियाभर की किताबें मिल जाएंगी लेकिन पढ़े कौन? आप लोगों ने कितनी बार गर्व किया है कि यूरोप से पहले रॉकेट एक भारतीय ने बनाया था जिसका नाम टीपू सुल्तान था। लेकिन कुंठा से फुर्सत मिले तब न। आधुनिक काल से पहले जितने भी स्कूल, कॉलेज बने वो स्थानीय पाठशालाएं और मदरसे थे, जैसे युनेस्को की सूची में विश्व की पहली विश्वविद्यालय अल कुरैयिन यूनिवर्सिटी है जो 9वीं सदी में मोरक्को में बनी थी। लेकिन यह शुरुआत में एक मदरसा थी। भारत में भी दुनियाभर के मदरसे बने थे। मदरसे का ही इंग्लिश शब्द स्कूल है। दक्कन भारत में महमूद गवां मदरसा अपने टाइम में मशहूर शिक्षण संस्थान था। दिल्ली का एक प्रसिद्ध मदरसा जिसका प्रधानाचार्य इब्ने ए बतुता भी रहे थे। बादशाह अकबर ऐ आज़म की व्यक्तिगत लाइब्रेरी में 2400 से ज्यादा किताबें थी। जो 400 पहले 16वीं सदी की बात है। अगर ये मदरसे हमेशा कायम रह पाते तो शायद आज बड़ी यूनिवर्सिटियां कहलाती लेकिन अंग्रेजों ने इनको खत्म कर दिया। तोड़ दिया या उसे पुलिस चौकी में बदल दिया। अंग्रेज ईसाई थे और ईसाई मुस्लिम न सिर्फ राजनीतिक दुश्मन थे बल्कि धार्मिक दुश्मन भी थे। इसलिए अंग्रेजों ने किसी भी मुस्लिम तालीमी इदारे को नहीं छोड़ा। इसीलिए 1857 के बाद दारुल उलूम देवबंद मदरसा कायम हुआ, अभी तो लगभग 150 साल ही हुए है कि दारुल उलूम देवबंद सबसे बड़ी इस्लामिक यूनिवर्सिटी में गिना जाने लगा है। जबकि इस मदरसे के पास तो शुरुआत में आजीविका चलाने के साधन नहीं थे। तो सोचे मध्यकालीन तालीमी इदारे जो सुलतानों और बादशाहों ने कायम किए थे। ये अभी तक कायम रहते तो उनका मर्तबा कितना बुलंद होता? मध्यकाल में कोई भारतीय नौकरी करने यूरोप नहीं गया। लेकिन बर्नियर, फिंच, पेलसर्ट, पिएट्रो, टवरनियर, पीटर मुंडी जैसे कई यूरोपियन मुगलों के दरबार में नौकरी करते थे, भूख के मारे गिड़गिड़ाते थे कि हमे व्यापार करने दिया जाए, क्योंकि उस वक्त भारत का व्यापार दुनिया में अपना प्रभुत्व जमाए था। लेकिन इसे कुंठित मन सराहेगा कब। सबसे बड़ी प्रॉब्लम यह कि "घर की मुर्गी दाल बराबर" की हमारी कहावत के मुताबिक हम चलते हैं। क्योंकि हमें अपना कुछ भी अच्छा नहीं दिखता। इसके अलावा इतिहास का एक फेमस स्टेटमेंट है कि “कोई भी विशिष्ट नहीं होता बल्कि उसे विशिष्ट बनाना पड़ता है” यूरोप वालों ने अपने इतिहास को दुनिया के लिए विशिष्ट बनाया है न कि विशिष्ट था। जबकि हमने अपनी ही उपेक्षा को है। लेकिन अपनी कुंठा को शांत करने के लिए हुनूद तो कुछ भी लिख, बोल रहे हैं, बुरी तरह से हारे हुए युद्ध को भी PVR सिनेमा में जीत रहे हैं… #history - संदेशवाहक

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