ऑनलाइन वैदिक गुरुकुल
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February 10, 2025 at 02:15 PM
*जीवात्मा* एक ऐसी वस्तु, जो अत्यंत सूक्ष्म है, अत्यंत छोटी है, एक स्थान पर रहने वाली है, जिसमें ज्ञान अर्थात अनुभूति का गुण है, जिस में रंग, रूप, गंध, भार (वजन) नहीं है, कभी नाश नहीं होता, जो सदा से है और सदा रहेगी, जो मनुष्य, पक्षी, पशु आदि का शरीर धारण करती है तथा कर्म करने में स्वतंत्र है, उसे जीवात्मा कहते हैं । जीवात्मा स्थान नहीं घेरती, एक सुई की नोक पर विश्व की सभी जीवात्माएँ आ सकती है । *मृत्योपरान्त जीवात्मा* कर्मों के अनुसार पुनर्जन्म को प्राप्त करेगी अथवा मुक्ति/मोक्ष को प्राप्त करेगी । जीवात्मा शरीर छोड़ने के पश्चात ईश्वर की व्यवस्था के अनुसार कुछ ही पलों में शीघ्र ही दूसरे शरीर को धारण कर लेता है | एक क्षण के कई भाग कर दीजिए, उससे भी कम समय में आत्मा एक शरीर छोड़कर शीघ्र ही दूसरे शरीर को धारण कर लेता है । यह सामान्य नियम है | *आत्मा का स्वभाव* कर्म करना है, किसी भी क्षण आत्मा कर्म किये बिना नहीं रह सकता है । वे कर्म अच्छे करे अथवा बुरे, ये उस पर निर्भर है, परन्तु कर्म करेगा अवश्य । तो कर्मों के कारण ही आत्मा का पुनर्जन्म होता है । पुनर्जन्म के लिए आत्मा सर्वथा ईश्वराधीन है । जब एक जन्म में, कर्मों का फल शेष रह जाये, तो उसे भोगने के लिए दूसरे जन्म अपेक्षित होते हैं । कर्मों का फल अवश्य मिलता है, बिना फल दिये, वे कर्म कभी नष्ट नहीं होते हैं, क्योंकि, "अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ।" (महाभारत) किये गये अच्छे बुरे कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ेगा । "नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि ।" (अत्री स्मृति) यथा "धेनुसहस्त्रेषु वत्सो गच्छति मातरम् । तथा यच्च कृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति ।" (चाणक्य नीति १३/१४) हजारों गायों के बीच में से भी बछड़ा जैसे केवल अपनी माँ के पास ही आता है, वैसे ही किया हुआ कर्म हजारों मनुष्यों में कर्ता को पहचान लेता है । *पुनर्जन्म में जीवात्मा किस शरीर को प्राप्त होगी ?* मनुष्य का जीव पशु, पक्षियों में और पशु, पक्षियों का जीव मनुष्य में आता जाता है । जब पाप अधिक बढ़ जाते हैं और पुण्य कम होते हैं, तब मनुष्य का जीव पशु आदि नीच शरीर में जाता है । जब धर्म अधिक और अधर्म कम होता है, तो मनुष्य का शरीर मिलता है । सात्विक और राजसिक कर्मों के मिलेजुले प्रभाव से मानव देह मिलती है । यदि सात्विक कर्म बहुत कम है और राजसिक अधिक, तो नीच कुल का मानव शरीर प्राप्त होगा । यदि सात्विक गुणों का अनुपात बढ़ता जायेगा, तो उसी अनुपात में मानव का उच्च कुल उच्च प्राप्त होगा । जिसने अत्यधिक सात्विक कर्म किये होगें, वो अत्यधिक विद्वान मनुष्य के घर जन्म लेगा । *मोक्ष* का अर्थ है, समस्त दुःख, भय चिंता, रोग, शोक, पीड़ा, इच्छाओं का त्याग, जन्म-मरण के बंधन से मुक्त होकर परमपिता परमात्मा के परम आनन्द को प्राप्त करना तथा बिना शरीर के भी इच्छानुसार स्वतंत्रतापूर्वक समस्त लोक-लोकान्तरों में भ्रमण करना । यह मुक्ति अथवा मोक्ष वेदादि शास्त्रों में बताये ईश्वराज्ञा पालने, अधर्म, अविद्या, कुसंग, कुसंस्कार, बुरे व्यसन से अलग रहना तथा यम नियमों का पालन करते हुए अष्टांगयोगाभ्यास के माध्यम से समाधी अवस्था को प्राप्त करके समस्त अविद्या और अज्ञानता के संस्कारों को नष्ट करके सत्यभाष्ण, परोपकार, न्याय धर्म की वृद्धि करने तथा जब संसार के भोगों से वैराग्य हो जाता है, तब जीवात्मा की संसार के भोग पदार्थ को प्राप्त करने की इच्छायें समाप्त हो जाती हैं, तब जीवात्मा मोक्ष को प्राप्त करती है | वैराग्य मन की एक स्थिति है, जो जीवन में किसी भी समय सहज ही प्राप्त हो सकती है । इसके लिए राग-द्वेषादि समस्त क्लेशों को नष्ट करने वाले योगी को शरीर छोड़ने के बाद मोक्ष मिलता है । जीवात्मा वास्तव में क्या चाहता है ? इसका संक्षिप्त उत्तर है, जीवात्मा पूर्ण और स्थायी सुख, शांति, निर्भयता और स्वतंत्रता चाहता है, जो इस मनुष्य शरीर में असम्भव है । इसीलिए वेद शास्त्रों में मोक्ष अथवा मुक्ति का मार्ग बताया गया है । जहां पूर्ण आनन्द है । जीवात्मा, अपने कर्मफल को भोगने और मोक्ष को प्राप्त करने के लिए शरीर को धारण करता है । संसार के प्रारम्भ से यह शरीर धारण करता आया है और जब तक मोक्ष को प्राप्त नहीं करता, तब तक शरीर धारण करते रहेगा | शरीर दो प्रकार का होता है :- (१) सूक्ष्म शरीर (मन, बुद्धि, अहंकार, ५ ज्ञानेन्द्रियाँ) (२) स्थूल शरीर (५ कर्मेन्द्रियाँ = नासिका, त्वचा, कर्ण आदि बाहरी शरीर) और इस शरीर के द्वारा आत्मा कर्मों को करता है । जब मृत्यु होती है, तब आत्मा अपने सूक्ष्म शरीर को पूरे स्थूल शरीर से समेटता हुआ किसी एक द्वार से बाहर निकलता है । और जिन जिन इन्द्रियों को समेटता जाता है, वे सब निष्क्रिय होती जाती है । तभी हम देखते हैं कि मृत्यु के समय बोलना, दिखना, सुनना सब बंद होता चला जाता है । मृत्यु ठीक वैसा ही है, जैसा कि हमें बिस्तर पर लेटे लेटे गहरी नींद में जाते हुए लगता है । हम ज्ञान शून्य होने लगते हैं ।नवजात शिशु को ध्यान पूर्वक बढ़ता हुआ देखेगें तो पायेगें, वे अपने पूर्व जन्म गुण लेकर आता है, भय, हर्ष, स्वाद सीखने की क्षमता, उत्साह सोते हुए रोना हँसना यह सब क्रियाएँ और स्मरण उसके सूक्ष्म शरीर के साथ ही आई है । *मोक्ष के बाद जीवात्मा कहाँ रहता है* :- मुक्ति या मोक्ष में, जीवात्मा ब्रह्म में रहता है । ब्रह्म जो पूर्ण है, सर्वव्यापक है, उसी में जीवात्मा स्वतंत्र आनन्दपूर्वक विचरता है । मोक्ष की अवस्था में आत्मा पूरे ब्रह्माण्ड का चक्कर लगाता रहता है और ईश्वर के आनन्द में रहता है । जीव को किसी भी शरीर की आवश्यक्ता ही नहीं होती । जब स्थूल शरीर नहीं रहता तो जीवात्मा में सूक्ष्म शरीर के संकल्पादि स्वाभाविक शुद्ध गुण रहते हैं । जब सुनना चाहता है, तब सुनता है । स्पर्श करना चाहता है, तब त्वचा । देखने के संकल्प से चक्षु/आँखें । स्वाद के अर्थ रसना संकल्प के लिए । मन व बुद्धि स्मरण के लिये चित अपनी स्वशक्ति से मुक्ति और संकल्प मात्र से शरीर होता है । जैसे शरीर धारण करके इन्द्रियों के द्वारा जीव आनन्द भोगता है और वे आनन्द असल में जीवात्मा ही भोगती है शरीर नहीं । वैसे ही मुक्ति में बिना शरीर के संकल्प मात्र से सब आनन्द भोग लेता है । जैसे बिना परिवार के व्यक्ति अपने विचारों में ही समस्त प्राणी मात्र को अपना परिवार मान कर सुख अनुभव कर सकता है । जैसे एकांत में ईश्वर की उपस्थिति को अनुभव कर के अकेला नहीं समझता यह सब संकल्प ही कहलाता है । जैसे स्वादिष्ट वस्तु के स्मरण मात्र से ही मुख में उसका स्वाद संकल्प मात्र से ही अनुभव हो जाता है ।
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