
Dr Chakra Acharya Astro Vastu
February 26, 2025 at 11:28 AM
(प्रयागराज महाकुम्भ और महाशिवरात्रि पर विशेष)
*विषय -* गङ्गा आदि देहगत १० नाड़ियों का वर्णन एवं उनका विशेष विवरण।
*ऋषिः -* सिन्धुक्षित्प्रैयमेधः
*देवता -* नद्यः
*छन्दः -* स्वराडार्चीजगती
*स्वरः -* निषादः
*इमं मे गङ्गे यमुने सरस्वति शुतुद्रि स्तोमं सचता परुष्ण्या।*
*असिक्न्या मरुद्वृधे वितस्तयार्जीकीये शृणुह्या सुषोमया॥*
- ऋग्वेद १०.७५.५
*पद पाठः -*
इमम् । मे । गङ्गे । यमुने । सरस्वति । शुतुद्रि । स्तोमम् । सचत । परुष्णि । आ । असिक्न्या । मरुत्ऽवृधे । वितस्तया । आज्र्जीकीये । शृणुहि । आ । सुऽसोमया ॥
*पदार्थः -*
(गंगे) = हे गंगे !
(यमुने) = हे यमुने !
(सरस्वति) = हे सरस्वति !
(शुतुद्रि) = हे शुतुद्रि!
(परुष्ण) = हे परुष्ण !
(मरुद्-वृधे) = हे मरुद्वृधे !
(वितस्तया) = हे वितस्ता!
(असिक्न्या) = हे असिक्नी!
(सुसोमया) = हे सुसोमा!
(आर्जीकीये) हे आर्जीकीये!
(मे इमं स्तोमं) = हमारे इस स्तुतियोग्य वचन को
(सचता आ शृणुहि) = समवेत होकर श्रवण कर।
*भावार्थ: -* मैं प्रभु का स्तवन करूँ और निम्न १० बातें से युक्त जीववाला बनूँ — [क] क्रियाशीलता, [ख] संयम, [ग] ज्ञान, [घ] वासना-विद्रावण, [ङ] शुभ भावनाओं का पूरण, [च] विषयों से अबद्धता, [छ] प्राणशक्ति, [ज] रोग व राग-द्वेषादि अशुभः क्षय, [झ] स्वस्थता व सबलता, [ञ] और विनीतता ।
*मन्त्र की मुख्य बातें -*
१) गंगा से क्रियाशीलता
२) यमुना से संयम
३) सरस्वती से ज्ञान
४) शुतुद्री से वासना-विद्रावण
५) परुष्णी से शुभ भावनाओं का पूरण,
६) वितस्ता से विषयों से अबद्धता,
७) मरुद्वृधा से प्राणशक्ति
८) असिक्न्या रोग व राग-द्वेषादि अशुभः क्षय,
९) सुसोमया से स्वस्थता व सबलता,
१०) आर्जीकीये से विनीतता
११) मैं आत्मज्ञान के लिए इनका स्तवन करता हूँ।
१२) आप लोग भी समवेत होकर सुनें।
*व्याख्या : -* इस मन्त्र में कहे गये दश नाम जो १)गंगा, २)यमुना, ३)सरस्वती, ४)परुष्णी, ५)मरुद्वृधा, ६)शुतुद्री, ७)वितस्ता, ८)असिक्नी, ९)सुसोमा १०)आर्जिकीया हैं, ये सब नाम तो लोक व्यवहार में नदियों के लिये प्रसिद्ध हैं। क्योंकि इनका नाम मुख में आते ही नदियों का ध्यान आ जाता है। किन्तु अध्यात्म जगत में ये सब दश नाम शरीर की विशेष नाड़ियों के लिए कहे जाते हैं। क्योंकि वेद में इन नामों का 'नदी परक' अर्थ, असंगत और तात्पर्य से पृथक होता है। क्योंकि सृष्टिक्रम में 'कार्य' के मूल में 'कारण' माना है, सृष्टि का निमित्त कारण परमात्मा है और परमात्मा के नित्य होने से परमात्मा का 'वेद रुपी' ज्ञान भी नित्य है, अतः वेद पहले हैं और एकरस हैं। सृष्टि तो बनती बिगड़ती है। वेद से ही ऋषियों ने पहाड़, नदी, सागर, वृक्ष और प्राणि आदि के नाम लिए हैं और फिर उनका नामकरण किया है। वेद में गंगा नदी का वर्णन मानना वेदों को पौरुषेय मानने जैसा है, जबकि वेद तो अपौरुषेय हैं वेद ईश्वर कृत हैं। किसी भी मनुष्य में या ऋषि, महात्मा में वेद की रचना करने का सामर्थ्य नहीं है। प्राचीन ग्रन्थों में इन वेद मन्त्रोक्त नामों का वर्णन नाडियों के सम्बन्ध में मिलता है। जैसे संगीत के विषय में केरल की हस्तलिखित लिपि में यह लिखा है -
इडा च पिङ्गलाख्या च सुषुम्ना चास्थिजिह्विका।
अलम्बुसा यथा पूषा गान्धारी शङ्खिनी कुहूः देहमध्यगता एता मुख्याः स्युर्दश नाडयः॥
अध्यात्म जगत में ये दश विशेष नाड़ियां हैं, उन नाड़ियों में व्याप्त आत्म-शक्ति भी उन्हीं नामों से कही जाती है।
जैसे बृहदारण्यक में लिखा है - ‘शुण्वन् श्रोत्रं भवत्ति मनो मन्वानो वाग् वदन्’ इत्यादि। इसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिये।
*अब आइए मन्त्र के एक-एक शब्द पर अक्षरशः विचार करते हैं -*
*१) गंगे -* हे गंगे ! (सम्बोधने प्रथमा) गंगा शब्द 'गम्' धातु से बना है, जो निरन्तर गमन करती है वह गंगा कहलाती है। अर्थात गति और क्रियाशीलता। अपनी तीव्र गति के कारण ही गंगा नदी का जल पवित्र है, क्रियाशीलता हमें भी पवित्र बनाती है। इसलिए हमारा शरीर भी सदा क्रियाशील रहे। 'गंगा' को ही 'पिंगला' नाड़ी कहते हैं, जो आत्मा को ज्ञान प्राप्त कराती है। हमारे शरीर में 'पिंगला नाडी' गतिशीलता और क्रियाशीलता के लिए प्रसिद्ध है। यह नासिका के दाहिने छिद्र अर्थात् सूर्य स्वर के साथ चलती है। 'सूर्य-स्वर' गति और ऊर्जा के लिए है। वह प्राणों द्वारा आवश्यक ऊष्मा प्रदान करता है। नासिक का दाहिना छिद्र सूर्य के समान उष्ण होकर उष्ण श्वास प्रवाहित करता है। क्योंकि उष्ण श्वास शरीर को आवश्यक तापमान में बनाए रखता है। शरीर का उच्च रक्तचाप पिंगला नाडी से सुव्यवस्थित एवं नियन्त्रित बना रहता है। 'पिंगला' धनात्मक ऊर्जा का संचार करती है। इसको 'सूर्यनाड़ी' भी कहा जाता है। यह शरीर में जोश, श्रमशक्ति का वहन करती है और चेतना को बहिर्मुखी बनाती है। पिंगला का उद्गम मूलाधार के दाहिने भाग से होता है। मन्त्र में पिंगला नाडी को अध्यात्म से जोडकर आत्मा को जानने और समझने का सहायक माना गया है। जो परमात्मा को प्राप्त कराने के सूर्य द्वार तक निकट ले जाने में सहायता करती है। जैसा कि मुण्डकोपनिषद् में कहा गया है -
तपः श्रद्धे ह्यूपवसन्त्यरण्ये शान्ता विद्वांसो भैक्षचर्यां चरन्तः।
सूर्य द्वारेण ते विरजाः प्रयान्ति यत्रामृतः स पुरुषोह्यव्ययात्मा। (मुण्डक, १-२-११)
*२) यमुने -* हे यमुना! 'यमुना' शब्द 'यम् उपरमे' धातु से ण्यः प्रत्यय से बना है। यमुना, अर्थात् यमन, संयम। शरीर में स्थित यमुना नाडी को संबोधित करते हुए कहा गया है कि हे यमुना! नाडी तू हमारे शरीर का संयमन कर। 'यमुना' को ही 'इड़ा' कहते हैं, जो देह के समस्त अंगों को सुव्यवस्थित करती और संयम में रखती है। इड़ा नाड़ी को 'चंद्र-नाड़ी' भी कहा जाता है। यह रीढ़ की हड्डी के बाईं ओर होती है। 'इडा', नासिका के बायें स्वर से संचालित होती है। बाँया स्वर 'चन्द्र-स्वर' कहलाता है। दिन में 'सूर्य-स्वर' प्रधान और रात्रि में 'चन्द्र-स्वर' प्रधान होता है। नासिका का दाहिना छिद्र अर्थात 'सूर्य-स्वर', सूर्य से प्रभावित है और बायाँ छिद्र अर्थात 'चंद्र-स्वर', चन्द्रमा से प्रभावित है। मनुष्य को दिन में कार्य करने के लिए सूर्य की ऊष्मा और रात्रि में शयन के लिए चन्द्रमा की शीतलता आवश्यक होती है। 'इडा' नाडी मन को एकाग्र करने में और शांत एवं स्थिर करने में सहायता प्रदान करती है। शरीर में स्थित पिंगला और इडा़ को ही अध्यात्म वर्णन में गंगा और यमुना कहते हैं।
*३) सरस्वति -* हे सरस्वति ! सरस्वती सुषुम्ना, उसमें प्रशस्त ज्ञान-सुख का उद्भव होता है, सरस्वती तो ज्ञान की अधिष्ठात्री है ही। हमारा मस्तिष्क ज्ञानान्वित हो। शुद्ध जलों से युक्त नदी के समान उत्तम ज्ञानमयी और गुरु परम्परा से बहनेवाली वेदवाणी और उसको धारण करनेवाले विद्वान् जन। जिसमें प्रशंसा योग्य ज्ञान आदि गुण हों, ऐसी उत्तम सब विद्याओं को देनेवाली वाणी।सुषुम्ना नाड़ी को सरस्वती नाड़ी भी कहा जाता है। सुषुम्ना नाड़ी, शरीर की तीन मुख्य नाड़ियों में से एक है. यह रीढ़ की हड्डी से होकर गुज़रती है और मूलाधार चक्र से शुरू होकर सिर के ऊपर ब्रह्मरंध्र तक जाती है। सुषुम्ना नाड़ी को ब्रह्मनाड़ी भी कहा जाता है. गंगे यमुने सरस्वति' इन तीन सम्बोधन शब्दों से 'गति, संयम व ज्ञान' का प्रतिपादन है।
*४) शुतुद्रि -* हे शुतुद्रि! 'शुतुद्री' (शुद्राविणी, क्षिप्रद्राविणी, आशुतुन्ना इव द्रवति) जो 'शु-तुद्री' शु - अर्थात् शीघ्रता से और 'तुद्री' - तुद् व्यथने वासनाओं को व्यथित करके दूर भगाने की वृत्ति को सूचित कर रही है। हे शुतुद्री तेरी सहायता से मैं शरीर में वासना पर नियन्त्रण चाहता हूँ। बिना वासना के पराभव के मेरी गति आत्मा की ओर केन्द्रित नहीं हो पा रही है। तू शीघ्रता से वासनाओं को व्यथित करती है।
*५) परुष्ण्या -* हे परुष्ण! 'परुष्णी' (पर्ववती, भास्वती, कुटिलगामिनी। निरु०) जो प्रतिपर्व पीठ के मोहरों में से नीचे तक गई है, वह वर्ण में चमकीली कुटिल मार्ग में गई है। अशुभ वासनाओं को दूर भगाकर, शुभ भावनाओं के भरने का भाव 'परुष्णी' शब्द से व्यक्त होता है [ पर्व पूरणे]। हम अशुभवृत्तियों को दूर करें और शुभवृत्तियों का अपने में पूरण करें [सुनीतिभिः विश्वानि दुरिता स्वस्तये]।
*६) मरुद्-वृधे -* हे मरुद्वृधे ! 'मरुद्वृधा' (सर्वा नद्यो मरुतः एनां वर्धयन्ति) जो और नाड़ियां है वे उसको बढ़ाती हैं, नाड़ी का वह अंश जहाँ अन्य सब मिल कर एक हो जाती हैं। अथवा मरुत्, देह के प्राण उसको और वह प्राणों पुष्ट करते हैं। हे (मरुद् वृधे) = [मरुतः प्राणाः] प्राणवर्धन की भावना मरुवृधा' का भाव प्राणों का वर्धन है, प्राणायाम के द्वारा हम प्राणशक्ति का वर्धन करते हैं।
*७) वितस्तया -* हे वितस्ता! वितस्ता’ (विदग्धा, विवृद्धा, महाकुला। नि०) देह में वितस्ता वह नाड़ी है जो देह में दाह अर्थात् ताप को धारण करती है, वह बहुत व्यापक और त्वचा भर में व्याप्त है।
*८) असिक्न्या -* हे असिक्नी!असिक्ती’ (अशुक्ला, असिता सितमिति वर्गनाम तत्प्रतिषेधः। नि०) जो शुक्ल अर्थात् चमकीली नहीं, उसमें जो रस बहता है उसका कोई रंग नहीं है। असिनी' [षिञ् बन्धने] करते हैं, और विषय वासनाओं को वि-विशेषरूप से उपक्षीण करनेवाले होते हैं [तसु उपक्षये] ।
*९) सुषोमया -* हे सुसोमा! 'सुषोमा' उत्तम प्रेरणा वाली वा उत्तम वीर्य वाली वीर्यवहा नाडी वा जो अंगों में शक्ति प्रदान करे। (सिन्धुः यदेनामभिप्रसुवन्ति नद्यः । सिन्धुः स्यन्दनात् नि०) सब नदियां जैसे सिन्धु में आती हैं ऐसे समस्त प्राण जिसमें आकर लय हो जाते हैं वह आत्मा ही ‘सिन्धु’ है। वह एक शरीर से दूसरे शरीर में, एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में जाते हुए महानद के समान जाता है अतः ‘सिन्धु’ कहाता है। देह ही देश के तुल्य ‘क्षेत्र’ कहाता है। (सा मे आत्माभूत् इति सोमः) सोम मेरा अपना ही आत्मा है ऐसा ब्राह्मणप्रोक्त निर्वचन है, इससे ‘सुषोमा’ स्वयं आत्मा रूप नदी है। आत्मा का नदीरूप से वर्णन महाभारत में— आत्मा नदी संयम-पुण्यतीर्था, सत्योदका, शीलतटा दयोर्मिः। इत्यादि भिन्नर २ स्थिति में यहां इन नामों से आत्मा को ही सम्बोधन किया गया है। इति षष्ठो वर्गः॥
*१०) आर्जीकीये -* हे आर्जीकीये! आर्जीकीया (ऋजूकप्रभवा वा, ऋजुगामिनी वा) ऋजूक से उत्पन्न, वा ऋजु जाने वाली, मस्तक में विशेष स्थान ‘ऋजूक’ है। हे (आर्जीकीये) = [ऋज to be healthy or strong] स्वस्थता व सबलता की स्थिति !
*११) मे इमं स्तोमं -* (मे) हमारे या मेरे द्वारा (इमं) इन नाडी के विषय में कहे गये (स्तोमं) स्तवन को, स्तुतियोग्य वचनों को। हे गंगा आदि वृत्तियों मैंने जो कुछ तुम्हारी स्तुति की है। वह आत्मशक्ति संचय के लिए है। क्योंकि इन्हीं नाडियों में आत्मा शक्ति और ऊर्जा रुप में बसता है। मैं प्रभु का स्तवन करने के लिए ही गंगादि शब्दों से सूचित वृत्तियों का स्तवन करता हूँ। जिससे मैं शरीर की भीतर व्याप्त सूक्ष्म अध्यात्म विज्ञान को समझ सकूँ।
*१२) सचता आ शृणुहि -* (सचता) समवेत होकर [सच समवाये] (आ) चारों ओर से (शृणुहि) श्रवण कर। अर्थात् मेरे इस स्तवन के साथ हे गंगा आदि वृत्तियो ! तुम भी समवेत होकर सोम का शरीर में रक्षण करके, प्रभु-प्रवण वृत्तिवाला बनकर प्रभु का स्तवन करो। क्योंकि इन गंगा आदि वृत्तियों को जानने समझने का मुख्य प्रयोजन प्रभु प्राप्ति ही है। मैं चारों ओर से समवेत होकर इस प्रभु प्राप्ति का स्तवन करना चाहता हूँ और इसी स्तवन को सुनने सुनाने के लिए प्रेरित कर रहा हूँ। यह प्रभु प्राप्ति का स्तवन मेरी नाडियों में प्रवाहित हो रहा है। मैं इस गति देना चाहता हूं धारणा और ध्यान के द्वारा मैं इसमें निमग्न होता हूँ। भिन्न भिन्न स्थानों पर धारणा करने से मैं उसके गुण धर्म को समझ पाता हूँ। "देश बन्धः चित्तस्य धारणा" चित्त को शरीर भिन्न भिन्न स्थानों पर टिकाने से धारणा बनती है। महर्षि पतञ्जलि ने योग के आठ अङ्गो में धारणों छठे स्थान पर रखा है क्योंकि ध्यान से पहले धरना आवश्यक है धरना के बिना ध्यान में सफलता नहीं मिलती धरना का मतलब विचारों का एकीकरण एक स्थान पर मां और विचारों को ठिकाना नियंत्रित रहना जब योगाभ्यास लंबे समय तक एक स्थान पर टिके रहने में सफल होता है तब वह ज्ञान की ओर अग्रसर हो जाता है अर्थात वह यह का पता है कि अब मेरा ध्यान लगने लगा है इसी एक स्थान पर लगातार टिकने और उसमें किसी भी प्रकार की रुकावट ना आने को महर्षि पतंजलि ने ध्यान बताया है "तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्" जिस भी आन्तरिक या बाह्य स्थान पर धारणा का अभ्यास किया गया है। उस स्थान पर ज्ञान या चित्त की वृत्ति का एक समान या उसकी एकरूपता बनी रहना ही ध्यान कहलाता है । उस ज्ञान के बीच में किसी भी प्रकार की कोई रुकावट या बाधा नहीं उत्पन्न होनी चाहिए। अर्थात् जो ज्ञान या वृत्ति की स्थिति बनी हुई है उसमें किसी अन्य ज्ञान या वृत्ति का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। उस स्थान पर की गई धारणा की निरन्तरता बनी रहनी चाहिए। और उसी ध्यान से मैं समाधि की ओर अग्रसर होता हूँ। इस मन्त्र में उक्त नाडियों के महत्व को समझकर शरीर की आध्यात्मिक यात्रा का वर्णन किया गया है। इस मै स्वयं प्रभु से इस महात्म्य को समवेत होकर सुनना चाहता हूँ अर्थात में ध्यान में बैठ जाऊं और प्रभु मुझे सुनते चले जाएं। और प्रभु से सुनकर मैं उसे अन्य लोगों को सुनाते चलूं।
'कुबि आच्छादने' धातु से 'कुम्भ' बना है। जहाँ लोग आच्छादित हो या छा जाए वह कुम्भ है। या जहाँ पर कुछ समय के लिए स्थित हो जाएँ। 'कुम्भ' घडे को भी कहते हैं। घड़ा जल को अपने आप में स्थित रखता है जिससे जल में शीतलता आ जाती है। प्राणायाम जगत में कुंभक अति प्रसिद्ध है जैसे आभ्यन्तर कुंभक और बाह्य कुम्भक आभ्यन्तर कुम्भक में प्राण को अन्दर लेकर के छाती में भरकर थोड़ी देर के लिए अन्दर में ही रोका जाता है। जिसे आप आभ्यन्तर कुम्भक कहते हैं। ऐसे ही बाह्य कुंभक भी होता है। जिसमें श्वास को बाहर फेंक कर बाहर ही रोक कर रखना पड़ता है। इसे बाह्य कुंभक कहते हैं। इस प्रकार शरीर में प्राण को अंदर रखने से और बाहर निकाल कर बाहर रोकने से शरीर में धारणा और ध्यान के लिए बहुत लाभ मिलता है। क्योंकि महर्षि पतञ्जलि ने योग के आठ अंगों में धारणा और ध्यान से पहले "प्राणायाम" भी लिखा है। महर्षि दयानन्द सरस्वती ने भी संध्या उपासना में संध्या से पूर्व तीन बार प्राणायाम का वर्णन किया है और संध्या के अन्दर प्राणायाम मंत्र के बाद तीन बाह्य प्रणाम करने का विधान किया है। इससे भी पता लगता है की संध्या ध्यान इत्यादि में प्राणायाम करने से मन को एकाग्र करने में बहुत अच्छी सहायता मिलती है। यदि देखा जाए तो मनुष्य को प्रतिदिन अपने भीतर प्रयागराज जैसा कुंभ का मेला लगाना पड़ता है। शरीर में दाहिना स्वर जो पिंगला नाडी है, वही गंगा है और शरीर में बायाँ स्वर जिसको चंद्र स्वर कहते हैं वही इड़ा है वही यमुना है और मेरुदंड के मध्य से आई हुई सुषुम्णा नाड़ी ही सरस्वती है। यह तीनों नदियां कपिल के ऊपर आज्ञा चक्र में एकत्रित होकर संगम का निर्माण करती है। इस भृकुटी में योगी व्यक्ति धारणा की स्थिति बनाता है। कुंडली जागरण का प्रयास करता है। यही तीनों नदियों का संगम है। यही प्रयागराज है। महर्षि पतञ्जलि ने चार प्राणायाम का वर्णन किया है उनमें बाह्य और आभ्ययन्तर प्राणायाम के साथ कुंभक भी किया जाता है। अर्थात हृदय में प्राण को स्थिर करना (ठहराना) ही कुंभक है। प्राणायाम की सफलता के बाद धारणा और ध्यान के द्वारा तीनों नड़ियों पर धारणा बनाना और उसी में लंबे समय तक टिके रहना ही ध्यान है। इसी आज्ञाचक्र में तीन नाड़ीयों के संगम डूबकी लगाकर योगी प्रचलित प्रयागराज में स्नान करने के समान डुबकी लगाता है। यह अलंकार रूप वर्णन केवल समझाने के लिए है। किन्तु नड़ियों का वर्णन यथार्थ है।
सूर्य के चारों ओर जो ग्रह भ्रमण करते हैं। उन ग्रहों में भ्रमण करने की गति पृथक पृथक है। जैसे सबसे पहला ग्रह बुध है वह 88 दिन में सूर्य की परिक्रमा करता है। शुक्र ग्रह सूर्य की परिक्रमा करने में 225 दिन लेता है। फिर पृथ्वी है वह 366 दिन में सूर्य की परिक्रमा करती है। मंगल 687 दिन में सूर्य की परिक्रमा करता है। इसी प्रकार इस सौरमंडल का सबसे बड़ा ग्रह बृहस्पति है जिसको 'गुरु' कहते हैं वह 4331 दिनों में अर्थात् 11.86 वर्ष में सूर्य की परिक्रमा करता है। पृथ्वी की गणना के अनुसार बृहस्पति का एक वर्ष लगभग 12 साल का होता है। हमारे ऋषि मुनि जो प्राचीन काल से ही इन ग्रहों नक्षत्रों की गति को जानते थे अर्थात् भौतिक विज्ञान को अच्छे से समझते थे। उन्होंने हमारे अधिकतर त्यौहार और पर्व पृथ्वी और सूर्य की गति के आधार पर रखे हैं। किंतु कुम्भ महापर्व को बृहस्पति की गणना के आधार पर रखा। इससे उनकी बुद्धिमत्ता का पता लगता है। गुरु का मतलब बड़ा होता है, नवग्रहों में बृहस्पति सबसे अधिक बडा और बहुत अधिक गुरुत्वाकर्षण वाला है। वैयाकरण वाले लोग जो बहुत समय तक पढाते हैं लंबे काल तक शिष्यों का मार्गदर्शन करते हैं ऐसे आचार्य को बृहस्पति कहते थे। तो बृहस्पति लंबे काल और बड़े का पर्यायवाची है। इसी आधार पर भी कुंभ का मेला रखा गया है। ताकि लोग बृहस्पति की गणना को भी याद रखें। बृहस्पति को गुरु कहते हैं और बृहस्पति ग्रह का गुरुत्वाकर्षण बहुत अधिक होता है। विज्ञान जगत में ऐसा माना जाता है कि पृथ्वी की ओर कोई भी उल्का पिंड आता है तो बृहस्पति उसे अपनी ओर खींच लेता है। क्योंकि बृहस्पति का गुरुत्वाकर्षण बहुत अधिक तीव्र होता है इससे पृथ्वी की रक्षा होती है। हमारे ऋषि मुनियों ने भी बृहस्पति के एक परिक्रमा अर्थात पृथ्वी के अनुसार 12 साल पर महाकुंभ का आयोजन रखा। जिससे साधु संत ऋषि मुनि महात्मा एकत्रित होकर के समाज पर आ रहे संकट, समाज में आ रही गिरावट तथा चक्रवर्ती सम्राट राजा इत्यादि जो गलती करते हैं उसे पर अंकुश लगाने के लिए एक धर्म संसद का आयोजन किया करते थे। और वहां पर पास किए गए सभी संविधानों को राजा और प्राजाओं को पालन करना पड़ता था। क्योंकि सनातन में धर्म से ऊपर कोई नहीं होता और ऋषियों को धर्म की स्थापना और धर्म की परिभाषा करने का अधिकार है। उसी के अनुसार मानव समाज को अपना आचरण सिद्ध करना होता था। परंतु दुख की बात यह है कि आज अधिकतर कुंभ मेले में आने वाले साधु संत वेदों से बहुत दूर हैं। वह सामान्य महर्षि पतंजलि के योग दर्शन को भी नहीं पढें हैं। तंत्र मंत्र आदि के द्वारा समाज का कोई उपकार नहीं होता है। जो साधु संत मनुष्य की खोपड़ी रखते हैं। शमशान की राख के द्वारा भस्म रगडते हैं और श्मशान के अंगारे में भोजन पकाते हैं। इस प्रकार की अनर्गल क्रियाकलापों से वैदिक धर्म बदनाम होता है। जितने भी कुंभ में साधु संत आए हैं वे सभी संस्कृत के महान विद्वान होने चाहिए। जिनको संस्कृत नहीं आती उन्हें संस्कृत सीखना चाहिए। जिन्हें वेद पढ़ना नहीं आता उन्हें वेद पढ़ना चाहिए। जिन्हें दर्शन नहीं आता उन्हें षड् दर्शनों और बाकी का अध्ययन करना चाहिए। ग्यारह उपनिषदों का अध्ययन करना चाहिए। ब्राह्मण ग्रन्थ को पढ़ना चाहिए। आयुर्वेद को पढ़ना चाहिए। तभी वे साधु संत कहलाने योग्य हैं। केवल बड़ी-बड़ी दाढ़ी रखने मात्र से चिमटा रख लेने से गेरुवे रंग लेने से कोई साधु नहीं बनता। प्रत्येक साधु की एक आइडेंटिटी होनी चाहिए। प्रत्येक साधु के पास एक प्रामाणिक परिचय पत्र होना चाहिए कि उन्होंने किसी से विद्या पढी है और किससे दीक्षा ली है। केवल सांसारिक दुखों से विरक्त हुआ व्यक्ति कभी सन्यासी साध्वी विद्वान नहीं हो सकता। उसके लिए तो विशेष योग्यता विशेष वैराग्य होना चाहिए। जो भी साधु होकर सुट्टा मारते हैं, धूम्रपान करते हैं, वह कभी साधु की कोटि में या सन्यासी की कोटि में नहीं आ सकते। एक संन्यासी को सदैव धूम्रपान और नशे से दूर होना चाहिए। उसे छोड़ने का प्रयास करना चाहिए। प्राणायाम और योग शास्त्र में विशेष गति होनी चाहिए। उसे ध्यान और समाधि का अभ्यास करना चाहिए। उसकी वाणी परिष्कृत और भाषा में अच्छी कमान होनी चाहिए। जिससे लोगों को पता चल सके कि वह पढ़ा लिखा सुलझा हुआ विद्वान है। उसका चरित्र बहुत उत्तम होना चाहिए बिना चरित्र के साधु किसी काम का नहीं होता। समाज में पढ़ने वाले बड़े-बड़े डॉक्टर जो एमबीबीएस करते हैं, जो आई एस करके कलेक्टर और कमिश्नर बनते हैं, इसी प्रकार इंजीनियर, आईआईटियन, वकील और न्यायाधीश से भी अधिक उच्च क्लास की योग्यता साधु संत की होनी चाहिए। तभी उनका मान होना चाहिए। क्योंकि "विद्या विहीनः पशु" और यदि सांसारिकता को बोझ मात्रा मानकर भागा हुआ व्यक्ति संसार के क्लेशो का निवारण और लोगों के क्लेशों का निवारण करके समाज के अंदर में सुख शांति, नैतिकता आदर्श, चरित्र का विस्तार कैसे कर सकता है? इसलिए हमारे साधु सन्त महात्मा सन्यासी वेदों के प्रकाण्ड विद्वान होने चाहिए।
जल के स्नान से कभी भी पापों की निवृत्ति संभव नहीं है। पापों का भोक्ता तो जीव होता है। शरीर तो साधन मात्र है। शरीर तो यही त्याज्य है। पाप पुण्य तो जीव के साथ आते जाते हैं। इसलिए कर्ता जीव है। जल से शरीर शुद्ध होता है। पाप तो विचारों से होता है। पाप कोई शरीर पर चिपके हुए नहीं होते जो जल के स्नान से धुल जाएंगे। वेदों का यह सिद्धान्त है कि पाप भोग कर ही काटे जा सकते हैं और जब तक वह पाप जीव को उसके कर्मों का फल नहीं भुगाते वे कभी जीव का पीछा नहीं छोड़ते। जैसे हजारों गौओं में बछड़ा अपनी मां को ढूंढ ही लेता है। वैसे ही कर्म भी कर्ता को ढूंढ ही लेता है। वैदिक शास्त्रों का यह अटल सिद्धांत है कि
*अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाभम्।*
इस संसार में मनुष्य को अपने कर्मों का फल इस जन्म में वा पर जन्म में भोगना ही पड़ता है। ईश्वर कभी पापों को क्षमा नहीं करते। यदि ईश्वर पाप को क्षमा करने लग जाए तो वह अन्यायकारी कहलाएगा। क्योंकि जिनके साथ आपने पाप किया है उनके साथ न्याय न हो सकेगा। इसलिए जिनको कष्ट और दुख हुआ है उनके न्याय के लिए पाप कर्ता को दंड देना अनिवार्य होता है। नदियों के संगम और पर्वतों की उपत्यकाओं में जाने से और नदियों में स्नान करने से बाह्य शुद्धि होती है बाह्य शुद्धि से व्यक्ति आंतरिक शुद्धि की ओर अग्रसर होता है। परंतु उसके लिए योगाभ्यास महात्माओं का सत्संग, स्वाध्याय, चिंतन, मनन और संध्या करना अनिवार्य होता है। जिसे व्यक्ति पापों के फल को भोगने में समर्थ हो पाता है और आगे पाप न करने की प्रेरणा व आत्मबल प्राप्त करता है। तीर्थ का मतलब है दुखों से छूटना। मनुष्य जीवन में आए हुए दुखों से छूटने का उपाय है ज्ञान, धर्मानुष्ठान, विद्याभ्यास, माता-पिताओं एवं बड़ों की सेवा, महात्माओं का सत्संग, निरंतर परिश्रम और स्वाध्याय, ब्रह्मचर्य संयम आदि ये हमारे सच्चे तीर्थ हैं। जो हमें विद्या और अनुभव प्रदान करते हैं जिससे व्यक्ति दुखों से छूटकर सुखों को प्राप्त करता है।
कुंभ के मेले में जाकर स्नान करने के बाद जन समुदाय को साधु संतों के पास वहाँ बैठकर सत्संग, स्वाध्याय साधना, संध्या, हवन इत्यादि करना और सीखना चाहिए। उसी से मनुष्य का कल्याण होता है। स्नान से तो कवल बाह्य शुद्धि होती है, किंतु जीवन के अंदर में प्रतिदिन संध्या, यज्ञ, हवन, स्वाध्याय, आदर्श दिनचर्या, संयम, कुसंग का त्याग धर्म अनुष्ठान और जीवन में निरंतर परिश्रम पुरुषार्थ करने से मनुष्य जीवन सफल होता है।
🙏🙏
डॉ चक्र आचार्य
🙏
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