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February 17, 2025 at 03:17 PM
ॐ का अन्य शब्द से सन्धि होने पर यह ओम् लिखा जाता है-
ओमिति ब्रह्म (तैत्तिरीय उपनिषद्,
ॐ का अन्य शब्द से सन्धि होने पर यह ओम् लिखा जाता है-
ओमिति ब्रह्म (तैत्तिरीय उपनिषद्, १/८/१)
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म (गीता, ८/१३, ब्रह्मविद्या, प्रणव आदि उपनिषद्)
प्रणवः सर्ववेदेषु (गीता, ७/८), वेद्यं पवित्रमोङ्कारः (गीता, ९/१७)
ऋचो अक्षरे परमे व्योमन् यस्मिन् देवा अधिविश्वे निषेदुः।
यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति य इत्तद्विदुस्त इमे समासते॥
(ऋक्, १/१६४/३९, श्वेताश्वतर उपनिषद्, ४/८)
यहां, व्योम = वि + ओम = परम शूुन्य जिसमें ॐ भी अव्यक्त है। वही देव तथा विश्व का अधिष्ठान है। जो इसे नहीं जानता उसकी ऋचा क्या कर सकती है?
व्यक्त रूप में ॐ के ४ पाद हैं-अ, उ, म्, विन्दु (अर्द्धमात्रा)। तन्त्र में अर्धमात्रा विन्दु के नौ स्तर तक अर्ध भाग किये हैं, जो विश्व के नौ सर्ग के अनुसार हैं।
अव्यक्त ध्वनि से ॐकार उत्पत्ति का वर्णन भागवत पुराण (१२/६/३७-४५) में है। इसे वेद तथा मनुष्य नमन करते हैं, नव जाते हैं, अतः इसे प्रणव कहा है।
प्रणव का आकार धनुष जैसा ऋक् (६/७), विशेषकर मन्त्र ३ में है, जिसका सारांश है-
धनुर्गृहीत्वौपनिषदं महास्त्रं, शरं ह्युपासा निशितं सन्धयीत।
आयम्य तद् भावगतेन चेतसा लक्ष्यं तदेवाक्षरं सोम्य विद्धि॥३॥
प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्षणमुच्यते।
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत्॥४॥
(मुण्डकोपनिषद्, २/२/३-४)
ॐ के धनुष-बाण आकार का वर्णन देवीभागवत (७/३६/६), मार्कण्डेय अध्याय ४२, पुराणों में भी है।
(२) त्रितार प्रणव-वेद में ॐ के अन्य रूप ’ईं’ तथा ’श्रीं’ हैं।
’ईं’ गुप्त प्रणव है। इसमें तत् (अव्यक्त ब्रह्म) सत् (दृश्य जगत्) तथा दर्शक जीवात्मा का समन्वय है-
ॐ तत्-सत् इति निर्देशः ब्रह्मणः त्रिविधः स्मृतः। (गीता, १७/२३)
अधिदैविक, अधिभौतिक, अध्यात्मिक विश्वों के समन्वय रूप में यह एक ही अक्षर है, जिसे जानने से वेद ज्ञात होता है-
य ईं चकार न सो अस्य वेद य ईं ददर्श हिरुगिन्नु तस्मात्। (ऋक्, १/१६४/३२)
इन तीन के समन्वय रूप प्रत्यक्ष विश्व का धारक ब्रह्म को तीन माता (पृथ्वी) तथा तीन पिता (द्यौ) निम्न दृष्टि से नहीं देखते हैं।
तिस्रो मातॄस्त्रीन् पितॄन् बिभ्रदेक ऊर्ध्वतस्थौ नेमवग्लापयन्ति॥ (ऋक्, १/१६४/१०)
नेमवग्लापयन्ति = न + ईं + अव-ग्लापयन्ति।
जो अन्तः गुहा में ईं को स्पष्ट देखता है (चिकेत) वह अमृत चैतन्य धारा प्राप्त करता है-
य ईं चिकेत गुहा भवनमा यः ससाद धारामृतस्य (ऋक्, १/६७/४)
धारा, इला आदि पद्मिनी रूप श्री हैं-
तां पद्मिनीमीं शरणमहं प्रपद्ये (श्री सूक्त)
पद्मिनीमीं = पद्मिनीं + ईं।
ईङ्काराय स्वाहा। ईङ्कृताय स्वाहा। (तैत्तिरीय सं, ७/१/१९/९)
ॐ का तृतीय वैदिक रूप श्री है जो परब्रह्म की शक्ति या महिमा है (श्री = तेज)।
श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यौ (वाज. यजु, ३१/२२)
दृश्य जगत् या सम्पत्ति लक्ष्मी है, अदृश्य तेज या सम्पत्ति श्री है।
या श्रीः स्वयं सुकृतिनां भवनेष्वलक्ष्मीः (दुर्गा सप्तशती, ४/५)
= सुकृति लोगों के घर में अदृश्य सम्पत्ति (अलक्ष्मी) जैसे श्री (तेज), प्रतिभा, ख्याति आदि रहती है।
श्री त्रयी वेद रूप है-
अहेबुध्निय मन्त्रं मे गोपायायमृषयस्त्रयी विदा विदुः।
ऋचः सामानि यजूँषि साहि श्रीरमृता सताम्॥ (तैत्तिरीय ब्राह्मण, १/२/१/६)
शब्दात्मिकां सुवैमलर्ग्यजुषां निधान-मुद्गीथ रम्य पदपाठवतां च साम्नाम्।
देवी त्रयी भगवती भवभावनाय वार्ता च सर्वजगतां परमार्तिहन्त्री॥
(दुर्गा सप्तशती, ४/१०)
(३) तीन विभाग-ॐ = अव्यक्त प्रणव, ईं = गुप्त प्रणव, श्रीः = शाक्त प्रणव-तीनों के तीन - तीन खण्ड हैं। तन्त्र के मन्त्रों का अन्त भी श्रीं से होता है-
ॐ ह्रीं श्रीं (षोडशी मन्त्र), ऐं ह्रीं श्रीं (त्रितार मन्त्र)।
ॐ = अ + उ + म्।
ईं = इ + ई + म्। इ = इह (यहां) लोक।
ईं = दृश्य जगत् (ई गति व्याप्ति ब्रजन कान्त्यशन खादनेषु, धातु पाठ, २/४१), म् = ब्रह्म।
श्रीं = श + र + ईं।
श = महालक्ष्मी, र = धन, ई = तुष्टि।
ह्रीं-ह = शिव, र = प्रकृति, ई = महामाया। नाद (अनुस्वार) = विश्वाम्बा।
(४) दीक्षा और अधिकार-जप के लिए छोटा मन्त्र होता है। अध्ययन के लिए सभी मन्त्र पढ़े जा सकते हैं किन्तु साधना के लिए एक ही मन्त्र उचित है। एक साथ दो मन्त्रों का जप नहीं हो सकता है। मानसिक जप के लिए मन्त्र केवल एक या दो अक्षर का होता है। मन उस पर धीरे धीरे स्थिर होता है। चञ्चल होने के कारण वह इधर उधर घूमता है, थक कर पुनः मन्त्र पर आता है-
जैसे उड़ि जहाज को पन्छी पुनि जहाज पर आवे।
मननात् त्रायते इति मन्त्रः। अर्थात् जो मनन करने पर त्राण (रक्षा) करे, वही मंत्र है।
मंत्र केवल शब्द नहीं, बल्कि ऊर्जा और कंपन का स्रोत है। जब श्रद्धा और एकाग्रता के साथ मंत्र का जप किया जाता है, तो वह हमारे चित्त को शुद्ध करता है और आत्मबल प्रदान करता है।
मंत्र जाप के तीन प्रकार:
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1. वाचिक जप: स्पष्ट उच्चारण के साथ किया गया जप।
2. उपांशु जप: धीमे स्वर में किया गया जप।
3. मानसिक जप: मन ही मन किया गया जप, जो सर्वोच्च माना गया है।
मंत्र की शक्ति:
हमारे विचारों को सकारात्मक बनाती है।
मन, शरीर और आत्मा को संतुलित करती है।
संकट के समय आत्मविश्वास और साहस देती है।
राम नाम का महत्त्व: तुलसीदास जी कहते हैं— “राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार।
तुलसी भीतर बाहिरहुँ जौं चाहसि उजियार॥” अर्थात राम नाम ऐसा दीपक है जो भीतर और बाहर दोनों ओर प्रकाश फैलाता है।
मंत्र जाप केवल शब्दों की पुनरावृत्ति नहीं, बल्कि आत्मा से परमात्मा का संवाद है। इसलिए, मनन और श्रद्धा के साथ मंत्रों का जप कीजिए, क्योंकि वही आपको हर संकट से त्राण देगा।
मंत्र सिर्फ़ शब्दों का समूह नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक ऊर्जा होती है, जो हमारे चित्त, चेतना और आत्मा को शुद्ध कर हमें ईश्वरीय शक्ति से जोड़ती है।
मंत्रों का जाप और ध्यान हमारे भीतर आंतरिक शांति और दिव्य ऊर्जा का संचार करते हैं, जो जीवन में स्थिरता और साहस लाते हैं।
ॐ जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तुते।
Courtes: Mahayogi Muni Baba
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