Sanatan yog
February 26, 2025 at 08:07 AM
'क्षीणे पुण्ये मत्र्यलोकं विशन्ति' - गीता ।
हृदयाकाश में दीपक की भाँति प्रकाशमान ब्रह्म (शिव-शक्ति) का ध्यान करने से जीव अमृत-स्वरूप हो जाता है। जो न्याय से धन का उपार्जन करने वाला, तत्त्वज्ञान में स्थित है, अतिथि-प्रेमी एवं श्राद्धकर्ता तथा सत्यवादी है वह गृहस्थ भी मुक्त हो जाता है। अतः मन्त्रशास्त्र का आश्रय लेकर गृहस्थ साधक मनुष्य को चाहिए कि वह अपने को बन्धन मुक्त कर ले ।
पितृयानमार्ग की उपवीथी से लेकर अगस्त्य तारे के बीच का जो मार्ग है, उससे सन्तान की कामना करने वाले अग्निहोत्री लोग स्वर्ग में जाते हैं। जो भलीभाँति यज्ञ, दानादि क्रिया में तत्पर हैं तथा आठ गुणों से युक्त होते हैं वे सगृहस्थ भी उसी भाँति यात्रा करते हैं।
हमारे हृदयाकाश के भीतर जो दीपक की भाँति प्रकाशमान 'आत्मा' है, उसकी अनन्त किरणें फैली हुई है, जो श्वेत, कृष्ण, पिंगल एवं नील, कपिल, पीत और रक्त वर्ण की हैं। उनमें से एक किरण ऐसी है, जो सूर्यमण्डल को भेदरकर सीधे ऊपर की ओर चली जाती है और ब्रह्मलोक का भी उल्लङ्घन कर ऊपर चली गई है। उसी मार्ग से योगी पुरुष परम गति को प्राप्त होता है। जैसे जल से कैर प्रक्षालित होता है वैसे ही नाम स्मरण से एवं जप से वाकूशुद्धि होती और 'आत्मा की शुद्धि मन्त्र के जप से होती है। अतः मन्त्रशास्त्र का ज्ञाता संधिक अपनी साधना से पब्रह्म में विलीन हो जाता है ।
भारत देश में मन्त्रशास्त्र का अद्भुत भण्डार है। तन्त्र और यन्त्र पूजन से साधक वह सब कुछ प्राप्त कर लेता है जिसके लिए वह इस संसार में मनुष्य तन में आया है। साधना से इसे ब्रह्म ज्ञान प्राप्त हो जाता है और आत्मा शुद्ध हो जाती है।
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