
जाने जैन इतिहास को ✨
February 3, 2025 at 02:10 AM
*3 फरवरी*
*कब क्या हुआ!*
- जाने तेरापंथ के इतिहास को
सन् 1942 श्री डूंगरगढ़ मर्यादा महोत्सव से प्रतिक्रमण को सामूहिक अनुष्ठान का रूप मिला।
*प्रतिक्रमण का सामूहिक रूप*
प्रतिक्रमण जैन साधु की चर्या का एक अनिवार्य अंग है। वह दोनों समय किया जाता है, पूर्व में उसे सामूहिक अनुष्ठान का रूप नहीं मिला था, दो साधु कहीं, चार साधु कहीं, इस रूप में स्वतंत्र बैठकर प्रतिक्रमण करते थे। वि. सं. 1999 का मर्यादा महोत्सव श्रीडूंगरगढ़ था। उससे पूर्व पौष महीने में आचार्यश्री का प्रवास सरदारशहर में था। चातुर्मास सम्पन्न कर आने वाले साधु-साध्वियों की संख्या पांच सौ से अधिक हो गई। आचार्यश्री ने देखा, प्रतिक्रमण के समय साधु पांच-पांच सात-सात की मंडलियां बनाकर बैठ जाते हैं और प्रतिक्रमण के साथ-साथ गपशप का दौर भी चलता रहता है। आचार्यश्री को यह क्रम अच्छा नहीं लगा। उसे प्रायोगिक व सामूहिक रूप प्रदान करने का चिन्तन किया। उन्होंने उस समय साधु-साध्वियों के लिए एक शिक्षात्मक गीत रचा 'मतिमन्त मुणी' उस गीत में 'विधियुक्त उभय-टक पडिकमणो' का संकेत किया। क्रम प्रारम्भ भी किया। पर जैसा प्रायोगिक व सामूहिक रूप होना चाहिए था, वह नहीं बना। सन् 1944 (वि. सं. 2001) बीदासर में शेषकाल (चातुर्मास के समय से अतिरिक्त समय) का प्रवास था। उस समय आवश्यक सूत्र की वृत्ति के आधार पर एक परिष्कृत और विस्तृत विधि निर्धारित की और उस विधि को लागू कर दिया। उसके अनुसार प्रायः साधु आचार्य की सन्निधि में उपस्थित हो यथाशक्य उठ-बैठकर विधिपूर्वक प्रतिक्रमण करने लगे। हालांकि बीच-बीच में इसमें कुछ शिथिलता भी आई पर आचार्यवर की पुनः-पुनः प्रेरणा से यह विधि सामान्यतः व्यवस्थित चल रही है।
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*समण संस्कृति संकाय*
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📲 प्रस्तुति : *समण संस्कृति संकाय, जैन विश्व भारती*
📲 संप्रसारक : *अभातेयुप जैन तेरापंथ न्यूज़*