एक राही "रवि"
एक राही "रवि"
May 26, 2025 at 11:56 AM
बेसुरी सी हो गई... जिन्दगी जो बांसुरी थी, बेसुरी सी हो गई। कल तलक जो पूर्ण सी थी, फिर अधूरी हो गई। क्या पता क्या हो रहा है, कौन जागा सो रहा। कौन क्या क्या काटता है, कौन क्या क्या बो रहा। किसको किससे क्या मिला है, कौन किसको खो रहा। कोई भी न जानता है, कब कहाँ क्या हो रहा। इच्छाओं के पीछे भागे, किरकिरी सी हो गई। जिन्दगी जो बांसुरी थी, बेसुरी सी हो गई। सबकी चाल ढाल जैसे, शतरंजी बिसात सी। दिन की रोशनी भी यहाँ, लगे काली रात सी। रिश्तेदारियां बनी है, पतझडों के पात सी। नेट पर ही चेट होती, हेलो हाय बात सी। धडकनों का क्या भरोसा, सिरफिरी सी हो गई। जिन्दगी जो बांसुरी थी, बेसुरी सी हो गई। फर्क कितना भूल बैठे, हम मकर औ मीन में। सांप विषेले पल रहे हैं, अपनी आस्तीन में। हमनें रक्तबीज बोएं, मन की इस ज़मीन में। सिर्फ व्याभिचार घोला, उम्र के हर सीन में। इस क़दर इन्सानियत ये, आसुरी सी हो गई। जिन्दगी जो बांसुरी थी, बेसुरी सी हो गई। वो जीएं मरें भले ही, बस मुझे मुनाफा हो। ज़मीर बेच के भी मेरे, अर्थ का इज़ाफा हो। मैं ही मैं करता रहा मैं, ये अहम की हार है। इसलिए ही वक्त की भी, मार है फटकार है। आदमी की बेबसी अब, हिमगिरी सी हो गई। जिन्दगी जो बांसुरी थी, बेसुरी सी हो गई। 💞💞🙏🏻💞💞
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