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June 11, 2025 at 04:53 AM
कबीर जी की हर कविता बड़ी ताकतवर है। यदि प्रेम की है तो दिल की गहराइयों को छू लेती है और यदि फटकार की है तो दिमाग को झनझना देती है। मगर अफसोस कि इतने ताकतवर कवि की इतनी ताकतवर कविताएँ मिलावट का शिकार हो गई हैं। अनेक नकलची कबीरों ने कबीर का नकली वेश धारण कर कबीर की कविताओं में मिलावट कर डाली है। परिणामतः उनमें प्रामाणिक - अप्रामाणिक रचनाओं की तलाश करना मुश्किल भरा काम है। कबीर जी किंवदंतियों और श्रद्धा के शिकार हुए। ऐसे कि उनका असली व्यक्तित्व इतिहास के गर्त में कहीं गुम हो गया है। कबीर पर निरंतर शोध - कार्य चल रहे हैं। नित नए अनुसंधान सामने आ रहे हैं। कबीर की हर रोज नई - नई व्याख्याएँ प्रस्तुत की जा रही हैं। फिर भी कबीर पकड़ से बाहर हैं। किसी के लिए वे पीर हैं तो किसी के लिए वे वैष्णव हैं। किसी के लिए वे श्रमण हैं तो किसी के लिए वे भगत हैं। किसी के लिए वे समाज - सुधारक हैं तो किसी के लिए वे आध्यात्मिक गुरू हैं। कबीर सबके हैं। हर मानवतावादी इंसान कबीर के आइने में अपना चेहरा देखता है। मगर कबीर तो कबीर हैं।निश्चित कबीर ने जिन पाखंडों के खिलाफ लड़ाई लड़ी, हमने उन्हीं पाखंडों में उन्हें लपेट कर मार डाला है। जिंदा कबीर को अपनाना बड़ा जिगर का काम है। मगर आज के परिप्रेक्ष्य में कबीर को जिंदा करने की जरूरत है। कबीर जैसे व्यक्तित्व पर लिखना बड़ा जोखिम का काम है। इसलिए कि हमने कबीर की वाणी में बड़े पैमाने पर मिलावट कर डाली है। तुलसी का "रामराज्य" और कबीर का "अमरदेसवा"। तुलसी ने " रामराज्य " की परिकल्पना की थी और कबीर ने '' अमरदेसवा " की। तुलसी के " रामराज्य '' में वर्ण व्यवस्था होगी, धर्म का पालन होगा और वेद की ऋचाएं कानून होंगी। तुलसी के शब्दों में :- वरनाश्रम निज निज धरम निरत वेद पथ लोग । चलहिं सदा पावहिं सुखहिं नहिं भय सोक न रोग। कबीर के " अमरदेसवा " में जाति - व्यवस्था नहीं होगी, धर्म का कोई मायने नहीं होगा, वहां न कोई हिंदू होगा और न कोई मुसलमान तथा देवी - देवता राज्य की सीमा से बाहर होंगे। कबीर के शब्दों में :- बाम्हन छत्री न सूद्र बैसवा, मुगल पठान न सैयद सेखवा। आदि जोति नहिं गौर गनेसवा, ब्रह्मा बिस्नु महेस न सेसवा।। जहवाँ से आयो अमर वह देसवा। अमर रहे अमरदेसवा और अमरदेसवा की विराट परिकल्पना करने वाले कवि कबीर, जिनका संदेश था:- दास कबीर ले आए संदेसवा, सार सबद गहि चलौ वहि देसवा। मध्यकालीन कवियों में कबीर के जितने नामलेवा भारत भर में फैले थे, शायद और किसी कवि के नहीं थे। मध्यकाल के कवियों में रैदास, मीराँ बाई, गुरू अमरदास, व्यास जी, मलूकदास, वषना, हरिदास, दरिया, रज्जब आदि अनेक ने कबीर का नाम आदर के साथ लिया है। महाराष्ट्र के कवि तुकाराम, गुजरात के कवि दादूदयाल, पंजाब के कवि नानक, मध्यप्रदेश के कवि धर्मदास, राजस्थान के कवि पीपा जी, हरियाणा के कवि गरीबदास और कर्नाटक के कवि सैन आदि ने कबीर को किसी न किसी रूप में याद किया है। मध्यकालीन फारसी के अनेक ग्रंथों यथा आईन - ए - अकबरी, अकबर - अल - आख्यार, दबिस्ताने मजहिब, खजीनतुल असफिया, खुलासातुत्तवारिख आदि में कबीर का नामोल्लेख है। कबीर की वाणी से न सिर्फ आधुनिक काल में बल्कि मध्यकाल में भी अनेक कवि प्रभावित थे। उदाहरण, कवि पीपा की कबीर के संबंध में यह प्रशंसा प्रस्तुत है: - जो कलि माँझ कबीर न होते। तौ ले बेद अरू कलियुग मिलि करि भगति रसातलि देते।। समाज पर काबिज लोग इतिहास से छेड़छाड़ किया करते हैं। बरसों बाद जनता इतिहास की दिशा और दशा तय करती है। कबीर एक लंबे समय से इतिहास में दफन थे। आज वे तुलसीदास से भी बड़े कवि हैं। कबीर की कविताओं पर सिद्धों और नाथों का प्रभाव बिल्कुल स्पष्ट है। सिद्ध कवियों की संख्या 84 थी। नाथों की 9 थी। सिद्ध और नाथ कवियों में सर्वाधिक शूद्र-अतिशूद्र थे। मछुआरे, चर्मकार, धोबी, डोम, कहार, दर्जी, लकड़हारे और बहुत से शूद्र कहे जाने वाले कवि थे। रामचंद्र शुक्ल ने इनकी कविताओं को सांप्रदायिक माना और लिखा कि सिद्धों और नाथों की कविताएँ शुद्ध साहित्य नहीं है। अर्थात हिंदी साहित्य के इतिहास में इन्हें जगह नहीं मिलनी चाहिए। जबकि हिंदी साहित्य की आरंभिक इमारत इन्हीं शूद्रों की कविताओं पर खड़ी है। सिद्ध और नाथ कवि मूल रूप से उत्तरवर्ती बुद्धिस्ट थे। शायद इसीलिए शुक्ल जी को लगा कि इनका साहित्य सांप्रदायिक है। जबकि सूरदास और तुलसीदास भी किसी न किसी संप्रदाय से जुड़े थे। मगर शुक्ल जी की नजर में वे हिंदी के महाकवि हो गए। रामचंद्र शुक्ल ने भक्तिकाल के इतिहास - लेखन में जिन पुस्तकों का इस्तेमाल किया है, वे भी सांप्रदायिक थे। मिसाल के तौर पर चौरासी वैष्णवन की वार्ता, दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता आदि ग्रंथ भी वल्लभ संप्रदाय के सांप्रदायिक ग्रंथ हैं। हिंदी साहित्य में जब तक बौद्ध आलोचना - पद्धति नहीं आएगी, कबीर तब तक वैष्णव बने रहेंगे। जिस लोक जागरण का नेतृत्व तुलसी ने किया, उससे अलग लोक जागरण का नेतृत्व कबीर ने किया। तुलसी वर्णाश्रमी संस्कृति के पोषक थे, जबकि कबीर उसके विरोधी थे। कबीर श्रमण संस्कृति के पोषक थे। वे श्रम के मूल्य को समझते थे, जबकि तुलसी याचकवृत्ति के थे। तुलसी की नजर में श्रम का वह मूल्य नहीं था, जो कबीर की नजर में मौजूद था। कबीर को भिक्षावृत्ति पसंद नहीं थी। वे स्वयं उपार्जित किए द्रव्य पर अपना जीवन - निर्वाह करना उचित समझते थे। एक साधारण किसान, बुनकर या श्रमिक की जो मूलभूत आवश्यकताएँ होती हैं, कबीर उसी के आकांक्षी थे। वे दो सेर आटा, आधा सेर दाल, पाव भर घी तथा नमक और सोने के लिए एक चारपाई के आकांक्षी थे। कबीर को वेदों तथा स्मृति - ग्रंथों में विश्वास नहीं था, जबकि तुलसी का ज्ञान - स्रोत वेद और पुराण थे। कबीर के काव्य में तर्क है, प्रमाण है और बौद्धिकता है। उनकी दृष्टि वैज्ञानिक बोध से लैस है। कबीर के काव्य में श्रम - मूल्यों की स्थापना है, धार्मिक सत्ता के कठोर नियंत्रण से मुक्ति की छटपटाहट है और सचेत रूप से समाज सुधार के प्रयास हैं। कबीर में वेद - पुराण - उपनिषदों की प्रेरणा खोजना कबीरीय आलोचना की सही दिशा नहीं है। कबीर की वाणी बुद्ध के वचनों से मेल खाती है। बुद्ध और कबीर में भाषा का फर्क है.... शैली में अंतर है वरना सैद्धांतिक धरातल पर दोनों लगभग एक हैं। कबीर के मूल्यांकन में हमें बौद्ध आलोचना- पद्धति का मार्ग अपनाना होगा। 7. गगन घटा घहरानी! कबीर ने लिखा है कि आसमान में घटा घिर आई है। कबीर की यह घटा क्या है? वही गौतम बुद्ध के ज्ञान की घटा है। गौतम बुद्ध की यह ज्ञान - घटा कहाँ से आई है? कबीर ने बताया है कि पूरब से आई है। पूरब दिसा से उठी है बदरिया। पूरब दिशा क्या है? वही पूरब का बोध गया है। यहीं से घटा पश्चिम चली। ....और फिर रिमझिम बरसत पानी। आपन - आपन मेंड़ सम्हारो। टप - टप बोधिज्ञान की बारिश हो रही है और मौका है कि अपनी - अपनी मेंड़ संभाल लो। करै खेत निर्वानी। कबीर कहते हैं कि निर्वाण की खेती करो। निर्वाण मूलतः बौद्ध धम्म की तकनीकी शब्दावली है, इसे जैन धर्म में कैवल्य और हिंदू धर्म में मोक्ष कहा गया है। कबीर हजार साल पहले पैदा हुए थे। मगर उन्हें आलोचकों को समझने हजार साल लगेंगे। कबीर के परम शिष्य और मध्यकाल के कवि धरमदास ने " भवतारण " में लिखा है कि कबीर कलियुग में सुकिति ( बुद्ध ) के अवतार थे। जुगन जुगन लीन्हा अवतारा, रहौं निरंतर प्रकट पसारा। सतयुग सत सुकृत कह टेरा, त्रेता नाम मुनेन्दहिं मेरा। दोपर में करुनाम कहाए, कलियुग नाम कबीर रखाए। ( धरमदास कृत भवतारण, पृ. 31 - 32 ) नोट: बुद्ध का एक नाम सुकिति ( सुकृत ) और दूसरा मुनिन्द ( मुनेन्द ) भी है। धरमदास की यह कविता कबीर को बौद्ध धम्म की ओर झुकाव का संकेत करती है। - प्रो. राजेंद्र प्रसाद सिंह (नए औजार से कबीर की खुदाई)
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