
SSandeep Deo
June 7, 2025 at 07:28 AM
भारत के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति बी.आर. गवई लंदन के ऐतिहासिक ‘ग्रेज इन’ में कह रहे हैं कि डॉक्टर आंबेडकर के कारण वो भारत के नागरिक के रूप में पैदा हुए, न कि अछूत रूप में। यह कह कर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदू समाज को अपमानित कर रहे हैं जस्टिस गवई!
वह कह रहे हैं कि मेरे घर में डॉक्टर आंबेडकर की उपस्थिति सदा रही तो फिर वह डॉक्टर आंबेडकर के लिखे 'शूद्र कौन थे?' यह पुस्तक क्यों नहीं पढ़ पाए, जिसमें बाबा साहेब ने स्पष्ट लिखा है कि भारत में छुआ-छूत की प्रथा नहीं थी। बाबा साहब ने स्पष्ट लिखा है कि शूद्र आर्य थे और मनु ने अस्पृश्यता की अवधारणा नहीं दी। यह बाबा साहब ने लिखा है, पढ़ें जस्टिस गवई।
महाभारत में भीष्म पितामह का यह उपदेश कि राजा को 8 मंत्रियों में से 3 मंत्री शूद्र समुदाय में से नियुक्त करना चाहिए, क्यों नहीं उद्धृत किया जाता। यदि सनातन समाज में अछूतपन होता तो भीष्म यह आदेश देते?
तुर्क, मुगलों के पैदा किए छुआछूत को हिंदू समाज पर लाद दिया गया और अंग्रेजों ने अपने फायदे के लिए इसका इस्तेमाल भी किया और इस एजेंडा को बढ़ाने के लिए अपने लोग भी खड़ा किए। उदाहरण के लिए 'मेहतर' के साथ अछूतपन की बात कही जाती है, जबकि 'मेहतर' एक फारसी शब्द है, इसी तरह 'हलालखोर' इस्लामी शब्द 'हलाल' से बना है; फिर संस्कृत भाषी सनातन धर्म-समाज पर यह आरोपित क्यों किया गया?
जस्टिस गवई तो पावरफुल हैं, वह 1960 के दशक में मैला ढोने वाली जातियों के जीवन में सुधार के लिए सरकार द्वारा गठित 'मलकानी कमेटी' की रिपोर्ट सार्वजनिक करने का आदेश दें, अपने आप दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा कि भारतीय समाज में अछूतपन कैसे मध्यकाल में इस्लामी शासन के साथ आया।
जस्टिस गवई को यदि अंग्रेजों का लिखा ही पढ़ना पसंद है तो वह स्टेनले राइस की पुस्तक 'हिंदू कस्टम एंड देयर ओरिजंस' पढ़ें, जिसमें साफ़-साफ़ लिखा है कि अछूत मानी जाने वाली हिंदू जातियां वो हैं, जिन्हें विजेताओं (इस्लामी आक्रांताओं) ने हराया और फिर उनसे मनमाना कार्य कराया। जस्टिस गवई मलकानी रिपोर्ट को सुप्रीम कोर्ट में मंगवाएं और उस रिपोर्ट की फाइंडिंग देश को बताएं?
वास्तव में हिन्दू समाज में यदि छुआछूत बड़े पैमाने पर होती तो आंबेडकर उपनाम और उन्हें विदेश पढ़ने का खर्च कोई सवर्ण उठाता? यह सवाल स्वयं से जस्टिस गवई क्यों नहीं पूछ पा रहे हैं?
क्या जस्टिस गवई आंबेडकरवादी नव-बौद्ध हैं? क्या वह आज भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वही झूठ परोस रहे हैं जो औपनिवेशिक ताकतों और उनके साझीदारों ने एक योजना के तहत लिखा और फैलाया?
भारत के पढ़े-लिखे मुख्य न्यायाधीश अछूतपन की बात कर रहे हैं, देश की राष्ट्रपति खुद को आदिवासी के रूप में प्रोजेक्ट करती हैं और देश के प्रधानमंत्री बार-बार खुद को पिछड़ा कहते रहते हैं! इतने बड़े पद पर पहुंच कर भी यदि इन सभी के अंदर से जातिवाद नहीं जा रहा है, इनका पिछड़ापन दूर नहीं हो रहा है तो फिर यह शायद कभी न जाए?
जिस देश के हुक्मरान आजादी के 75 साल बाद भी पिछड़ेपन का ढोल ही पीट रहे हों और जिस देश के लोग अपनी जाति को पिछड़ा साबित करने के लिए आंदोलन करते हों, वह देश विकसित बनेगा ? यह दूर की कौड़ी है!
इतने पड़े पद पर पहुंच कर भी यदि इन सभी के अंदर का पिछड़ापन नहीं जा रहा है तो निश्चित रूप से समस्या सामाजिक नहीं, बल्कि राजनीतिक या फिर मानसिक है?
#sandeepdeo

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