
दीन सिखाओ बेटी बचाओ
June 10, 2025 at 07:34 AM
⚠️ इस्लाम और हिंदू धर्म में क़ुर्बानी ⚠️
पूरा साल जानवरों को ज़ब्ह़ करके उनके गोश्त से लुत़्फ़-अंदोज़ होने वाले इस्लाम दुश्मन अ़नासिर मुल्ह़िदीन बिल्-ख़ुसूस मुशरिकीने हिंद मुसलमानों के मरकज़ी तेहवार ई़दुल अज़हा के आते ही हर चहार जानिब वावैला मचाना शुरूअ़् कर देते हैं और दीने इस्लाम की रौशन ता'लीमात पर ये ए'तिराज़ करते हैं के दीने इस्लाम अपने पैरोकारों को जानवरों की क़ुर्बानी और गोश्त-ख़ोरी की ज़ालिमाना ता'लीम देता है; और मुसलमानों पर ये ए'तिराज़ करते हैं के मुसलमान जानवरों को बड़ी बे-दर्दी के साथ ज़ब्ह़ करके उनका गोश्त खाते हैं।
हम आज इसी टॉपिक पर तफ़सील से लिखेंगे, जिससे ये भी पता लग जायेगा के हमें ज़ालिम कहने वाले ख़ुद कितने रह़म करने वाले हैं; और दीन से ग़ाफ़िल मुसलमानों के शुब्हात भी दूर हो जायेंगे इंशा अल्लाह (अ़ज़्ज़ व जल्ल)।
— मज़हबे इस्लाम में क़ुर्बानी का तसव्वुर:
लफ़्ज़े क़ुर्बानी अ़रबी के लफ़्ज़ क़ुर्बान से माख़ूज़ है, अ़रबी में क़ुर्बानी के लिए लफ़्ज़े 'उज़्हिया' भी इस्ते'माल होता है. शरई़ इस्त़िलाह़ में क़ुर्बानी अल्लाह का तक़र्रुब ह़ासिल करने के लिए राहे ख़ुदा में मख़्स़ूस जानवर को किसी मख़्स़ूस दिन में ज़ब्ह़ करने को कहते हैं।
ह़ुज़ूर स़दरुश्-शरीआ़, मुफ़्ती अमजद अ़ली आ'ज़मी रह़मतुल्लाहि अ़लैह फ़रमाते हैं: मख़्स़ूस जानवर को मख़्स़ूस दिन में ब-निय्यते तक़र्रुब ज़ब्ह़ करना क़ुर्बानी है, और कभी उस जानवर को भी उज़्हिया और क़ुर्बानी कहते हैं, जो ज़ब्ह़ किया जाता है.
📙 [बहारे शरीअ़त, जिल्द नं. 3, सफ़ह़ा नं. 327, नाशिर: मक्तबतुल मदीना (कराची)]
क़दीम तारीख़े इंसानी में शायद ही कोई ऐसा मज़हब और क़ौम हो, जिसके यहां क़ुर्बानी व गोश्त-ख़ोरी का तसव्वुर न मिलता हो, बल्कि तारीख़े इंसानी की शुरूआ़त ही गोश्त-ख़ोरी से होती है; चूंकि मज़हबे इस्लाम दुनिया के क़दीम तरीन मज़ाहिब में से एक है, बल्कि ये कहा जाए, तो मुबालग़ा न होगा के जब से इस ख़ाक-दाने गेती पर इंसान ने क़दम रखा है, तबसे इस्लाम इस ज़मीन पर मौजूद है; लिहाज़ा इसमें भी वाज़ेह़ त़ौर पर क़ुर्बानी का तसव्वुर मौजूद है और दीने इस्लाम अपने पैरोकारों को गोश्त-ख़ोरी की इजाज़त देता है।
इस्लाम में गोश्त-ख़ोरी सिर्फ़ ह़लाल व मुबाह़ ही नहीं है, बल्कि ऐ़ने फ़ित़रते इंसानी के मुत़ाबिक़ है, क्योंकि दुनिया में सिर्फ़ दीने इस्लाम ही वाह़िद मज़हब है, जो मुकम्मल त़ौर पर फ़ित़रते इंसानी के मुत़ाबिक़ है और फ़ित़रते इंसानी के मुत़ाबिक़ ही अपने तमाम अह़काम व क़वानीन मुरत्तब करता है।
जानवरों को क़ुर्बे इलाही के ह़ुसूल की निय्यत से ज़ब्ह़ करने की तारीख़ ह़ज़रते आदम अ़लैहिस्सलाम के दो बेटों (क़ाबील व हाबील) की क़ुर्बानी से ही शुरूअ़् हो जाती है, जैसा के अल्लाह (अ़ज़्ज़ व जल्ल) ने क़ुरआन 5:27 में फ़रमाया:
"وَ اتْلُ عَلَیْهِمْ نَبَاَ ابْنَیْ اٰدَمَ بِالْحَقِّۘ-اِذْ قَرَّبَا قُرْبَانًا فَتُقُبِّلَ مِنْ اَحَدِهِمَا وَ لَمْ یُتَقَبَّلْ مِنَ الْاٰخَرِؕ-"
"और (ऐ ह़बीब!) उन्हें आदम के दो बेटों की सच्ची ख़बर पढ़कर सुनाओ, जब दोनों ने एक-एक क़ुर्बानी पेश की, तो उनमें से एक की त़रफ़ से क़ुबूल कर ली गई और दूसरे की त़रफ़ से क़ुबूल न की गई."
[कंज़ुल ईमान]
हाबील और क़ाबील की क़ुर्बानी के बा'द भी जानवरों की क़ुर्बानी का सिलसिला दुनिया की अक्सर क़ौमों में राइज रहा, और हर क़ौमो मिल्लत के लोगों ने ख़ुदा की रज़ा-जोई के लिए इस अ़मल को अपनाया और अपने-अपने मज़हब के ज़रूरी रुक्न के त़ौर पर इस अ़मल को तस्लीम किया; चुनांचे अल्लाह (अ़ज़्ज़ व जल्ल) क़ुरआन 22:34 में फ़रमाता है:
"وَ لِكُلِّ اُمَّةٍ جَعَلْنَا مَنْسَكًا لِّیَذْكُرُوا اسْمَ اللّٰهِ عَلٰى مَا رَزَقَهُمْ مِّنْۢ بَهِیْمَةِ الْاَنْعَامِؕ-"
"और हर उम्मत के लिए हमने एक क़ुर्बानी मुक़र्रर फ़रमाई के अल्लाह का नाम लें उसके दिये हुए बे-ज़बान चौपायों पर."
[कंज़ुल ईमान]
मुशरिकीने हिंद के अनपढ़ विद्वान कहते हैं: क़ुरआन में क़ुर्बानी का ज़िक्र नहीं, जबकि क़ुरआन में क़ुर्बानी का साफ़ ज़िक्र है, वो अलग बात है के उसे देखने के लिए आंखों की ज़रूरत है.
हम (वाज़ेह़) दलील देकर इनकी इस बचकाना बात को भी इनके मुंह पर दे मारते हैं. अल्लाह (अ़ज़्ज़ व जल्ल) क़ुरआन 108:2 में फ़रमाता है के:-
"فَصَلِّ لِرَبِّكَ وَ انْحَرْ۔"
"तो तुम अपने रब के लिए नमाज़ पढ़ो और क़ुर्बानी करो."
[कंज़ुल ईमान]
— क़ुर्बानी की ह़िक्मत:
ह़कीमुल उम्मत ह़ज़रते मुफ़्ती अह़मद यार ख़ान नई़़मी रह़मतुल्लाहि तआ़ला अ़लैह क़ुर्बानी की ह़िक्मत बयान करते हुए फ़रमाते हैं:
क़ुर्बानी करने से ख़ुद रब पर क़ुर्बान होना भी आता है, क्योंकि हर अदना, आ'ला पर क़ुर्बान होता है. दाना पर खेत की ज़मीन क़ुर्बान हुई, के जोत दी गई, और दाना जानवर पर क़ुर्बान हुआ, के जानवर ने खा लिया, फिर जानवर इंसान पर क़ुर्बान हो गया, के ज़ब्ह़ कर दिया गया, इसी क़ाइदे से चाहिए के इंसान रब पर क़ुर्बान हो, के जब दीन को उसकी जान की ज़रूरत हो, पेश कर दे, जैसे ख़लीलुल्लाह ने अपने फ़रज़ंद की क़ुर्बानी अम्रे इलाही पर पेश कर दी।
नीज़ (जानवर) ज़ब्ह़ करने से जिहाद और शहादत पैदा होती है; जिस क़ौम ने ख़ून न देखा हो, वो कभी जंग नहीं कर सकती, जैसे बनिया और ब्राह्मण, जिसे मरना आता है, उसे जीना भी आता है, जिस क़ौम में मरने का जज़्बा न हो, उसे दुनिया में ज़िंदा रहने का भी ह़क़ नहीं, गोया क़ुर्बानी करने वाले जानवर को मारकर ख़ुद मरना सीखना है।
📙 [असरारुल अह़काम, सफ़ह़ा नं. 30, नाशिर: मक्तबा इस्लामिया (लाहौर)]
— हुनूद के यहां क़ुर्बानी का तसव्वुर:
अगर इस मौज़ूअ़् पर मज़ीद कुछ लिखूंगा, तो मेरी ये तह़रीर लंबी हो जाएगी, इसलिए जानवरों पर रह़म करने वाले और उन्हें बिल्कुल न खाने वाले समाज की पोल खोलकर बात ख़त्म करता हूं:-
संस्कृत ज़बान में क़ुर्बानी के लिए लफ़्ज़े 'बलि' इस्ते'माल किया जाता है, और हिंदू धर्म की मज़हबी इस्त़िलाह़ के मुत़ाबिक़ बलि मख़्स़ूस जानवर को ईश्वर के नाम पर किसी ख़ास मक़्स़द के तह़्त ज़ब्ह़ करने को कहते हैं।
इन मक़ासिद में मालो दौलत का ह़ुसूल, शहर व गांव की मिल्कियत, पुराने मर्ज़ से नजात, ह़ैवानों का ह़ासिल होना, रूह़ानियत क़ुव्वते बयान, औलाद, इ़ज़्ज़त, दुश्मनों पर फ़तह़, ह़ुकूमत, रिज़्क़, आबाओ अजदाद की रूह़ों के लिए सुकून, क़ह़त़-साली से नजात, बारिश वग़ैरह का ह़ुसूल शामिल है।
वैसे तो इनके यहां मुख़्तलिफ़ मवाक़ेअ़् पर मुख़्तलिफ़ जानवरों को मारा जाता है, जिसमें तफ़सील है, मगर मैं मुख़्तसर करके लिखूंगा:-
— बैल की क़ुर्बानी:
ऋग्वेद में है:
"अद्रिणा ते मन्दिन इन्द्र तूयान्त्सुन्वन्ति सोमान्पिबसि त्वमेषाम्,
पचन्ति ते वृषभाँ अत्सि तेषां पृक्षेण यन्मघवन्हूयमान."
इंद्र की बहू ने कहा — "ऐ इंद्र! यज्ञ करने वाले लोग पत्थरों के ज़रीए़ तुम्हारे लिए सोमरस तैयार करते हैं, और तुम उसे पीते हो; और वो यजमान बैल का मांस पकाते हैं और तुम उसे खाते हो. उस वक़्त तुम यज्ञ करने वालों के ज़रीए़ बुलाये जाते हो."
📙 [ऋग्वेद, मंडल 10, सूक्त 28, मंत्र 3]
इसी में है:
"उक्ष्णो हि मे पञ्चदश साकं पचन्ति विंशतिम्.
उताहमद्मि पीव इदुभा कुक्षी पृणन्ति मे विश्वस्मादिन्द्र उत्तर."
इंद्राणी के ज़रीए़ प्रेरित यज्ञ करने वाले लोग मेरे लिए पंद्रह या बीस बैल बैल पकाते हैं, और मैं उन्हें खाकर मोटा बनता हूं. याज्ञिक लोग मेरी दोनों बगलें सोमरस से भर देते हैं...."
📙 [ऋग्वेद, मंडल 10, सूक्त 86, मंत्र 14]
'वैदिक धर्म में गोश्त-ख़ोरी' में है: (वैदिक ईश्वर कहते हैं के) ऐ ब्राह्मणों सुनो! जो शख़्स बैल की आहुति आग में डालता है और उसके गोश्त का हवन करता है, उसे आग देवता कभी तक्लीफ़ नहीं देता, और बाक़ी सब देवता भी उस क़ुर्बानी देने वाले को ख़ुश करते हैं; और उसकी ये क़ुर्बानी सौ यज्ञ के बराबर होती है।
📙 [दिफ़ाए़ इस्लाम, सफ़ह़ा नं 223]
— घोड़े की क़ुर्बानी:
बैल तो बैल क़दीम वैदिक धर्म में घोड़े की भी क़ुर्बानी की जाती थी, जैसा के यजुर्वेद में है:
"यद्वाजिनो दाम सन्दानमर्वतो या शीर्षण्या रशना रज्जुरस्य.
यद्वा घास्य प्रभृतमास्ये तृण सर्वा ता ते अपि देवेष्वस्तु."
"इस त़ाक़तवर और चंचल (घोड़े) को क़ाबू में रखने के लिए गर्दन, कमर, सिर की रस्सी (और ज़ब्ह़ करते वक़्त) जो घास वग़ैरह घोड़े के मुंह में थी, सबका सब देवताओं को ही पहुंचे."
"यदश्वस्य क्रविषो मक्षिकाश यद्वा स्वरौ स्वधितौ रिप्तमस्ति.
यद्धस्तयोः शमितुर्यन्नखेषु सर्वा ता ते अपि देवेष्वस्तु."
"जिस घोड़े का गोश्त (ज़ब्ह़ करते वक़्त) मक्खियां खाती हैं और जो गोश्त ज़ब्ह़ करने वालों के हाथों और उंगलियों में लगा रहता है, वो सब भी देवताओं का ही हो."
"यदूवध्यमुदरस्यापवाति य ऽ आमस्य क्रविषो गन्धो अस्ति.
सुकृता तच्छमितारः कृण्वन्तूत मेध श्रृतपाकं पचन्तु."
"यज्ञ के उदर (पेट) में जो अधपचे अन्न, गंध आदि निकल रहे हैं, उन की शांति भलीभांति किए गए यज्ञ के उपचार से हो. वे पचें यह पाचन देवगणों के अनुसार हो."
📙 [यजुर्वेद, अध्याय 25, मंत्र 31, 32, 33]
— गाय की क़ुर्बानी:
आज के हुनूद अपने घर से बे-ख़बर हैं, मगर गाय के नाम पर मुसलमानों पर तशद्दुद करते हैं और उन्हें बे-दर्दी के साथ क़त्ल तक कर डालते हैं, जबकि क़दीम हिंदू धर्म में इसी गाय की क़ुर्बानी की जाती थी, जैसा के अथर्ववेद में है:
ऐ गाय! तेरा चमड़ा वेदि होवे और तेरे बाल आसन (बैठने की चीज़) हों, मेरी ज़बान ने तुझे चखा है। यज्ञ वाले लोग तेरी क़ुर्बानी के बाइ़स या'नी तुझे पाकर मारे ख़ुशी के नाचते हैं।
ऐ क़ुर्बानी की गाय! तेरे बाल कूची (ब्रश) की त़रह़ नर्म हों और मेरी ज़बान (ब-वजह तुझे चखने के) पाक हो, और तू क़ुर्बानी के काम आकर या'नी क़ुर्बानी वाली होकर जन्नत को चली जा.
जो आदमी गाय को पकाता है, उसकी तमाम मुरादें पूरी हो जाती हैं और उसके ऋत्विज् यज्ञ कराने वाले ब्राह्मण लोग सबके सब पूरी-पूरी कामियाबी ह़ासिल करते हैं।
📙 [अथर्ववेद, कांड 10, सूक्त 9, मंत्र 2, 3, 4]
— इंसान की क़ुर्बानी:
गाय तो गाय, वैदिक लिट्रेचर में तो इंसानों की क़ुर्बानी का भी ज़िक्र आता है, जैसा के वेदों की इल्हामी तफ़सीर जिसको वेदों का जुज़ माना जाता है, 'कात्यायन श्रौतसूत्र, अध्याय 16, कांड 1, सूत्र 8' में है:
उसमें आग देवता के लिए एक आदमी, एक घोड़ा, एक गाय, एक भेड़, एक बकरा ये पांच जानवर मारे जायें।
आदमी को मारने का त़रीक़ा सूत्र नं. 14 में यूं आया है: जिस आग में गोश्त पकाया और भूना जाता है, उसके पीछे इह़ात़ा-सा बनाकर उसमें आदमी को मारा जाये।
📙 [दिफ़ाए़ इस्लाम, सफ़ह़ा नं. 225]
महाभारत में लिखा है: युधिष्ठिर के पूछने से महर्षि लोमश ने لومک नामी राजा का ह़ाल सुनाया, उसमें राजा की प्रार्थना से ब्राह्मणों ने कहा के अगर तू अपने बेटे چنتو नामी को क़ुर्बान करेगा, तो सौ बेटे तेरे घर पैदा होंगे, लड़के की चर्बी आग में डाली जायेगी, उसका धुआं रानियां सूंघेंगी, तो हर एक के हां एक-एक बा-हिम्मत लड़का पैदा होगा, राजा ने मंज़ूर कर लिया, तो यज्ञ कराने वाले ब्राह्मण ने उस लड़के को खींचकर उसकी क़ुर्बानी करके, उसकी चर्बी निकालकर आग में हवन कराया।
📙 [दिफ़ाए़ इस्लाम, सफ़ह़ा नं. 225]
— रामचंद्र जी और गोश्त-ख़ोरी:
वाल्मीकि रामायण में लिखा है के जब श्री रामचंद्र जी को चौदह साल बनबास मिला, तो आप अपने भाई लक्ष्मण और अपनी बीवी सीता के हमराह जंगल में गए; और वहां एक जगह डेरा लगाकर अपने भाई लक्ष्मण से कहा के जाओ और एक काला हिरन मारकर लाओ, ताकि उससे पतरों का यज्ञ किया जाए, चुनांचे ये ह़ुक्म सुनकर लक्ष्मण जी गए और एक काला हिरन मारकर लाए, जिसको सीता जी ने पकाया, फिर उसका गोश्त श्री रामचंद्र, लक्ष्मण और सीता जी ने खाया।
बाल्मीकि रामायण में मज़ीद लिखा है:
उस वक़्त तीर से मारे हुए दस पाक और काले हिरन अच्छी त़रह़ से सुखाए गए और आग में पकाकर लक्ष्मण ने तैयार कर रखे थे।
भाई का ये काम देखकर रामचंद्र जी बहुत ख़ुश हुए और सीता जी से बोले: अब बली करना मुनासिब है।
तब रानी सीता ने पहले और जीवों को कुछ गोश्त दिया, बा'द में दोनों भाइयों (रामचंद्र और लक्ष्मण) को सीता ने गोश्त और शहद दिया।
जब वो दोनों बहादुर भाई खा चुके, तब सीता जी ने भी थोड़ा-सा खाया।
जो गोश्त बच गया वो सुखाने के लिए रख दिया, और रामचंद्र जी के कहने से सीता कव्वों से उस गोश्त की ह़िफ़ाज़त करने लगीं।
📙 [दिफ़ाए़ इस्लाम, सफ़ह़ा नं. 226]
— मनुस्मृति और गोश्त-ख़ोरी:
"खाने के लाइक़ जानवरों को खाने से, खाने वाले को दोष (गुनाह) नहीं होता, क्योंकि खाने के लाइक़ जानवर को और खाने वाले जानदार को ब्रह्मा जी ही ने पैदा किया है."
📙 [मनुस्मृति, अध्याय 5, श्लोक 30]
"यज्ञ के वास्त़े और नौकरों के खाने के वास्त़े अच्छे हिरन और पक्षी (परिंद) मारना चाहिए अगस्त्य ऋषि ने अगले ज़माने में ऐसा किया है."
📙 [मनुस्मृति, अध्याय 5, श्लोक 22]
"अगले ज़माने में ऋषियों ने यज्ञ के लिए खाने के लाइक़ हिरन और पक्षियों को मारा है."
📙 [मनुस्मृति, अध्याय 5, श्लोक 23]
"श्री ब्रह्मा जी ने आपसे आप यज्ञ के वास्त़े पशु को पैदा किया, उस यज्ञ में जो बध या'नी क़त्ल होता है, वो बध नहीं कहलाता."
📙 [मनुस्मृति, अध्याय 5, श्लोक 39]
"अन्न, पशु, दरख़्त, परिंद, कछुआ वग़ैरह ये सब यज्ञ के वास्त़े मारे जाने से उत्तम ज़ात को दूसरे जन्म में पाते हैं."
📙 [मनुस्मृति, अध्याय 5, श्लोक 40]
"मछली के गोश्त से दो महीने तक, और हिरन के गोश्त से तीन महीने तक, और भेड़ के गोश्त से चार महीने तक, और परिंद जानवर के गोश्त से पांच महीने तक पितृ (आबाओ अजदाद) आसूदा रहते हैं."
"बकरा के गोश्त से छः महीने तक चित्रमृर्ग के गोश्त से सात महीने तक, ईन हिरन के गोश्त से आठ महीने तक, रुरु हिरन के गोश्त से नौ महीने तक पितृ आसूदा रहते हैं."
📙 [मनुस्मृति, अध्याय 5, श्लोक 268,269]
"मोल लिये हुए, या दूसरे के लाए हुए मांस को देवता और पितरों को भोग लगाकर खाने से पाप नहीं होता."
📙 [मनुस्मृति, अध्याय 5, श्लोक 32]
— मंदिरों में क़ुर्बानी:
गढ़ीमाई मंदिर (नेपाल):- यहां हर पांच साल बा'द हिंदू गढ़ीमाई नामी तेहवार मनाते हैं, तक़रीबन दो मिलियन लोग इस तेहवार में शिरकत करते हैं.
यहां अ़क़ीदत-मंदों की जानिब से सारा दिन मुख़्तलिफ़ क़िस्म के जानवर (जैसे कबूतर, बत़्त़ख़, भैंस, बकरा, चूहा, ख़िंज़ीर, भेड़ वग़ैरह) गढ़ीमाई के नाम से क़ुर्बान होते हैं। सरकारी सर्वे के मुत़ाबिक़ 2009 में यहां 20 हज़ार भैंसों को ज़ब्ह़ किया गया था और ज़ब्ह़ होने वाले कुल जानवरों की ता'दाद एक अंदाज़े के मुत़ाबिक़ तक़रीबन 2 लाख 50 हज़ार थी।
कामाख्या मंदिर (आसाम):- इस मंदिर में आ़म मंदिरों की त़रह़ कोई मूर्ति नहीं रखी गई है, बल्कि सिर्फ़ एक पत्थर जो शर्मगाह की शक्ल में है, उसी की पूजा की जाती है। यहां भी इस देवी के नाम पर हज़ारों जानवरों की बलि दी जाती है।
कालीघाट मंदिर (मग़रिबी बंगाल):- हिंदू मज़हब में काली माता बर्बादी और तबाही की देवी समझी जाती है। यहां तो बच्चों तक की भेंट चढ़ाई जाती है।
लंदन (ब्यूरो रिपोर्ट) इंडिया में एक शख़्स ने अपने आठ माह के बच्चे को काली काली माता के मंदिर में ले जाकर उसके क़दमों में रखकर क़त्ल कर दिया। इसी त़रह़ एक शख़्स राजकुमार ने अपने आठ माह के कमसिन बच्चे को कुल्हाड़ी से ज़ब्ह़ कर दिया।
📙 [देखिए: दिफ़ाए़ इस्लाम, सफ़ह़ा नं. 229-233]
मैं अपनी इस तह़रीर को कुछ और बढ़ाता, लेकिन ये पहले ही काफ़ी लंबी हो चुकी है, इसलिए इतने पर ही बस करता हूं. अल्लाह (अ़ज़्ज़ व जल्ल) हमें ज़ालिमों के ज़ुल्म से बचाए।
नोट: मैंने दलीलें अगर्चे हुनूद की कुतुब से तलाश करके ही लिखी हैं, लेकिन इसमें किताब — दिफ़ाए़ इस्लाम — काफ़ी मददगार साबित हुई, आप इस किताब को ज़रूर पढ़ें, बहुत प्यारी किताब है। इसके मुसन्निफ़ ने इसमें बड़ी बेबाकी के साथ लिखा है, जो हर एक के बस की बात नहीं।
अल्लाह (अ़ज़्ज़ व जल्ल) उनसे मज़ीद काम ले।
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मुह़म्मद ज़ैद रज़ा क़ादिरी
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