PuruṣārTha
PuruṣārTha
May 17, 2025 at 11:30 AM
"सत्यमेव जयते" — सत्य की ही विजय होती है — केवल राष्ट्रीय प्रतीक के नीचे अंकित कोई नारा नहीं है, बल्कि यह मुण्डक उपनिषद् में निहित एक आध्यात्मिक और दार्शनिक उद्घोषणा है। इसका आशय यह है कि अंतिम विजय बल, छल या प्रपंच की नहीं, बल्कि सत्य की होती है — न केवल तथ्यों की सत्यता की, बल्कि अस्तित्वगत, नैतिक और आध्यात्मिक सत्य की (ऋत, सत्य, धर्म)। किन्तु व्यवहार में: राजनीतिज्ञ सत्य को अक्सर सुविधा का उपकरण बना लेते हैं, न कि आस्था का। वाणी में प्रामाणिकता की जगह चालाकी ले लेती है। अधिकारी नियमों को प्राथमिकता देते हैं, सिद्धांतों को नहीं — और अक्सर तंत्र की स्थिरता हेतु सत्य की बलि दे दी जाती है। प्रणाली ईमानदारी नहीं, दक्षता, अनुकूलता और परिणाम को इनाम देती है। जनता, जो कभी संघर्षरत है, कभी आकांक्षाओं में उलझी, वह हमेशा गहरे सत्य को पहचानने या उसे निभाने की स्थिति में नहीं होती। इसलिए, समष्टिगत रूप में — एक समाज और एक तंत्र के रूप में — हम अक्सर सत्यमेव जयते के गूढ़ अर्थ को समझने और जीने में असफल रहते हैं। यह अधिकतर सजावटी बनकर रह गया है, कोई सक्रिय और सजीव मूल्य नहीं। परंतु, इसका यह अर्थ नहीं कि सब कुछ खो गया है। जब भी कोई सत्ता से सत्य की बात करता है, ईमानदारी से जीवन जीता है, या धर्म को कर्म में उतारता है, सत्यमेव जयते की आत्मा फिर से साँस लेती है।
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