ऑनलाइन वैदिक गुरुकुल
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June 10, 2025 at 09:54 AM
*(कृण्वन्तो विश्वमार्यम् )* समस्त संसार को श्रेष्ठ बनाओ । https://whatsapp.com/channel/0029VaFQoKGFXUuXs6nlGW3k *ईश्वर* ईश्वर का मुख्य नाम ओउम् है ईश्वर एक ही है और निराकार है ईश्वर सच्चिदानन्द स्वरूप है ईश्वर अवतार नहीं लेता है ईश्वर पापों को क्षमा नहीं करता है ईश्वर सब जीवों का कर्म फल प्रदाता है ईश्वर सर्वज्ञ सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान है ईश्वर सृष्टि का रचयिता पालनकर्ता एवं संहार कर्त्ता है *आत्मा* - आत्मा चेतन एवं अल्पज्ञ है आत्माओं की संख्या अनंत है आत्मा सत् चित् स्वरूप है आत्मा न कभी मरता है और न कभी उत्पन्न हुआ है आत्मा और शरीर के संयोग को जन्म एवं वियोग का नाम मृत्यु है शरीर के नष्ट होने पर जीवात्मा नष्ट नहीं होता है आत्मा अपने कर्मानुसार अच्छी व बुरी योनियों में जाता है आत्मा कर्म करने में स्वतंत्र एवं फल भोगने में ईश्वर की व्यवस्था के आधीन है इच्छा राग द्वेष सुख दुख प्रयत्न और ज्ञान आत्मा के लक्षण हैं आत्मा सृष्टि का निर्माण नहीं कर सकता अपितु (शरीर के माध्यम से ) उसके भोग एवं अपवर्ग मोक्ष के लिए सृष्टि में निर्माण करता है *प्रकृति* यह भौतिक जगत् प्रकृति का बना हुआ है प्रकृति सत्व रज तम के (इलेक्ट्रॉन प्रोटोन न्यूट्रान )- के सम भाव का नाम है प्रकृति सद् है जड़ है तथा ज्ञान रहित है प्रकृति के मूल तत्व असंख्य हैं और अनादि है न कभी उत्पन्न हुये और न कभी नष्ट होते हैं जव प्रकृति के परमाणु अलग अलग हो जाते हैं ( परमात्मा )ईश्वर कर देता है तो संहार = प्रलय हो जाती है । सत्व रज तम के संयोग और नियम पूर्वक बनाने से ईश्वर सृष्टि का निर्माण कर्ता होने से विश्वकर्मा हैं *वेद -* हमारा धर्म ग्रन्थ वेद है । *नमो वेद माता* अर्थात् वेदमाता को नमन है *वेद के चार भाग है* ऋग्वेद यजुर्वेद सामवेद और अथर्ववेद सृष्टि के आदि = प्रारम्भ में परमात्मा ने *अग्नि वायु आदित्य और अंगिरा* ऋषियो को चारों वेदों का ज्ञान दिया वेद के सिद्धान्त सृष्टि नियमों के अनुकूल है वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक (ज्ञान ) है केवल मंत्र भाग ही वेद हैं। ऋषियों द्वारा रचित उपवेद उपनिषद् ब्राहण ग्रन्थ व्याख्या है वेदों के सिद्धान्त और आदर्श हर मानव के लिए ' हर काल के लिए (सार्वकालिक ) व हर देश के लिए हैं वेद वैदिक भाषा देववाणी संस्कृत में है । तथा बोली जाने वाली प्रयोग में आने वाली भाषा संस्कत लौकिक है *उपवेद चार है* क्रमशः आयुर्वेद धनुर्वेद गन्धर्व वेद अर्थवेद (शिल्पवेद) वेद पुस्तक का नहीं ज्ञान का नाम है संस्कृत भाषा वेदों से निकली है तथा सब भाषाओं की जननी है *वेदांग -* ब्राहमण ग्रन्थ आरण्यक और उपनिषद् ब्राह्मण ग्रन्थों के ही भाग हैं *उपनिषदें* मुख्य ग्यारह मान्य (प्रामाणिक ) हैं वेदों के अर्थ समझने के लिए जिससे सहायता मिलती है वे *वेदाङ्ग* 6 है -शिक्षा,कल्प , व्याकरण, निरुक्त,छन्द और ज्योतिष (भूगोल) *उपांग*- दर्शन 6 है - सांख्य ' योग , न्याय , वेशेषिक वेदान्त और मीमांसा दर्शन । सबसे पुरानी और सबसे मानने योग्य स्मृति ग्रन्थ मनुस्मृति ही है । प्रक्षेप मिलावटो )को छोड़कर । मुख्य *ब्राह्मण ग्रन्थ* ऐतरेय शतपथ साम और गोपथ है *देवता -* देवता वे कहलाते हैं जो कुछ दान करें , ज्ञान दे , प्रकाश करे ' दूसरों का उपकार करें । *देवता दो प्रकार के होते हैं* जड़ और चेतन । जडदेवता वे हैं जो प्राण रहित हैं , फिर भी संसार को लाभ पहुंचाते हैं ये संख्या में 33 में से 32 हैं । 12 आदित्य (मास), 11 रुद (5 प्राण 5 उपप्राण और ग्यारहवाँ चेतन जीवात्मा '8 वसु 5 पंचमहाभूत सूर्य चन्द्र और नक्षत्र (8 ) /1 इन्द्र ( विद्युत् )1 *प्रजापति* =यज्ञ माता पिता आचार्य अतिथि एवं पति पत्नि चेतन देवता हैं । जो श्रेष्ठ आचार आचरण को ग्रहण करके सब विद्याओं को पढ़ा देवे उसको आचार्य कहते हैं चेतन देवताओं की पूजा उनके आदर सत्कार तथा आज्ञा पालन करने से होती है जड़ देवताओं की पूजा यज्ञ हवन इत्यादि से होती है महापुरुषों की मूर्ति बन सकती है ईश्वर की नहीं । महापुरुषों के चरित्र के अनुकूल आचरण करना ही उनकी सच्ची पूजा है । *सत्य* जो पदार्थ जैसा हैं उसको यथार्थ वैसा मानना ही सत्य है । *जीवन शैली -* शिखा =चोटी और सूत्र यज्ञोपवीत (जनेऊ) हमारी संस्कृति के मुख्य बाह्य चिन्ह है माता पिता आचार्य और अतिथि विद्वान ही पितर कहलाते हैं और श्रद्धापूर्वक इनकी सेवा आदर सत्कार ' आज्ञा पालन करना ही इन्हें तृप्त करना है । यही श्राद्ध और तर्पण है न कि मृत का । सात्विक विचारों के लिए शुद्ध और पवित्र आहार ही सेवनीय है *हमारा अभिवादन* (नमस्ते ) " मैं तुम्हारा मान्य करता हूँ "है । जो श्रेष्ठ स्वभाव, धर्मात्मा' परोपकारी । वेदानुकूल आचरण करने वाला है वह आर्य है । .......................... क्रमश: *सृष्टि : -* सबसे पहले मनुष्य की सृष्टि = सृजन = रचना त्रिविष्टप अर्थात् तिब्ब्त से हुई यहीं से सब भू मण्डल में धीरे - धीरे फैलते गये । सृष्टि को उत्पन्न हुए (सन् - 2024 ) 1 अरब 97 करोड़ 29 लाख 49 हजार 126 वर्ष हुए लेकिन मनुष्य की उत्पत्ति बाद में हुयी थी । *वेदोत्पत्ति* सृष्टिसंवत्1960853124 वाँ वर्ष है । सृष्टि की कुल आयु 4 अरब 32 करोड वर्ष है । आदि सृष्टि अमैथुनी हुयी . अर्थात् नर-मादा संसर्ग पर आधारित नही थी । ईश्वर जीव और मूल प्रकृति तो गुण कर्म स्वभाव से अनादि है । किन्तु सृष्टि रचना स्थिति (वर्तमान) और प्रलय = संहार प्रवाह से अनादि है अर्थात् सृष्टि और पालन करना और प्रलय का आदि - अन्त होता रहता है । *धर्म : -* धैर्य - क्षमा - मन को वश में करना - चोरी न करना - शुद्धता अर्थात् शारीरिक आत्मिक और वित्तीय शुद्धता - इन्द्रिय निग्रह - आत्मा परमात्मा का ज्ञान प्राप्त करना - विद्या वेद विद्या तथा मेडिकल इंजिनियरिंग आदि ' सत्याचरण करना - और क्रोध न करना ये धर्म के दस लक्षण अर्थात चिन्ह हैं । *मनुष्य* वह है जो मननपूर्वक एवं बुद्धि पूर्वक हर कार्य को सोच-विचार कर करता है । मनुष्य वह है जो अच्छे गुणो को धारण करके प्राणिमात्र का उपकार करते हुए मोक्ष को प्राप्त करता है । धर्म मनुष्य मात्र के लिए एक होता है, और वह केवल वैदिक धर्म है । धर्म शाश्वत सिद्धान्तो पर आधारित है वह किसी व्यक्ति विशेष - महापुरुष का चलाया हुआ नहीं होता है । *मत-मतांतर* किसी व्यक्ति विशेष की मान्यताओं पर आधारित है । *स्वर्ग - नरक : -* स्वर्ग और नरक का कोई विशेष स्थान नहीं है । विशेष सुख और सुख की सामग्री को जीव द्वारा प्राप्त होना स्वर्ग कहलाता है । विशेष दुःख और दुःख की सामग्री जीव को प्राप्त होना नरक कहलाता है । संक्षेप में जो व्यक्ति सुखी 'भोग आदि सामग्री 'शुद्ध -तेजस्वी इंद्रियाँ और पवित्र मन आत्मा वाला हो वह स्वर्ग में है । इसके विपरीत नरक है । जिससे जीव दुःख सागर से तर जाये ( पार) हो जाए वह तीर्थ है जैसे विद्या ,परोपकार , विद्वान् -गुरु से सम्बन्ध अच्छे धर्मात्मा माता-पिता आदि । *भूत-प्रेत* बीते हुए का नाम भूत, शव = मृत शरीर वाली आत्मा को प्रेत कहते हैं जब तक कि उसे दूसरा किसी भी योनि वाला शरीर न मिल जाएं । *उपासना =पूजा पद्धति :* विद्याभ्यास सुविचार ' ईश्वरोपासना ' धर्मानुष्ठान ' सत्संग = सज्जनों का संग और स्वाध्याय ' ब्रहचर्य इन्द्रिय संयम आदि सब तीर्थ है । जन्म मरण दुःख अविद्या संयोग वियोग रूप रस गन्ध आदि से रहित परमात्मा की उपासना करना निर्गुणोपासना है अर्थात् परमात्मा इनसे रहित है ऐसा बारम्बार विचार करना । सर्वज्ञ 'सर्व शक्तिमान् 'सर्व व्यापक ' सच्चिदानंद , सर्वाधार , न्यायकारी दयालु आदि गुणों से युक्त ईश्वर की उपासना ध्यान करना सगुणोपासना कहलाती है । *ज्ञान*= पृथिवी से लेकर परमेश्वर पर्यंत पदार्थो का यथावत् ज्ञान प्राप्त करके उपयोग में लाना *कर्म*= वेदानुसार आचरण , और उपासना तीनों ही मुक्ति के लिए आवश्यक है । ईश्वर का गुणगान ही ईश्वर की स्तुति है । ईश्वर के गुणगान के साथ उन गुणों को प्राप्त करने की इच्छा ही प्रार्थना है । अष्टांग ( आठ अंगो वाले) योग साधन से ईश्वर के समीप होना ही ईश्वर की उपासना है। = यम नियम आसन - प्राणायाम प्रत्याहार , धारणा ' ध्यान और समाधि । ये आठ अंग है । *मोक्ष : -* जिससे सब बुरे काम ' और जन्म मरणादि दुःख सागर से छूट कर आनन्द मय आनंद स्वरूप परमेश्वर को प्राप्त होके ( प्रत्यक्ष अनुभव करके आनन्द ही में रहना ,वह मोक्ष या मुक्ति कहलाती है । मुक्ति में जीव ईश्वर में लय नहीं होता अर्थात् दोनों की अपनी अपनी सत्ता बनी रहती है । मुक्ति में जीव 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों तक ब्रह्मानंद प्राप्त कर पुनः संसार में आता है । मानव अष्टांग योग से उन्नति करता हुआ ईश्वर को प्राप्त प्रत्यक्ष कर सकता हू है। यज्ञ - एवं संस्कार : - प्रतिदिन प्रातःकाल और सायंकाल सन्धि वेला में परमात्मा का ध्यान करना ही संध्या है । प्रत्येक मनुष्य को पंच महायज्ञ प्रतिदिन करने चाहिए , ब्रह्म यज्ञ अर्थात् संध्या और स्वाध्याय , देवयज्ञ अर्थात् अग्निहोत्र हवन पितृ यज्ञ अर्थात् माता - पिता गुरुजनों की सेवा करना जो पहले आचार्य के लक्षण बता चुके वह गुरु ' बलिवैश्व देव यज्ञ अर्थात् दीन अनाथ गाय आदि को भोजन देना । अतिथि यज्ञ अर्थात् घर आये हुए विद्वान् उपदेशक महात्माओं की सेवा करना । जीवन को उत्तम बनाने के लिए 16 संस्कार आवश्यक है । वर्ण एवं आश्रम : - जो गुण कर्म और स्वभाव से ग्रहण किया जाता है वह वर्ण कहलाता है वर्ण चार हैं ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र । *जाति* जन्मसे मरण पर्यंत एक ही बनी रहती है । जैसे मनुष्य थोड़ा गाय वानर ( बन्दर ) बकरी आदि । साधारण रीति से मनुष्य की आयु ने चार भाग किये जाते हैं जिसके अन्तर्गत उसका पालन करता हुआ वह सर्वाङ्गीण विकास कर सकता है ब्रह्मचर्य गृहस्थ वानप्रस्थ संन्यास आश्रम । .,................................. क्रमशः लगातार नारी कल्याण एवम् सामाजिक सुधार : - नारि मातृ शक्ति है अतः सम्माननीय है । बालविवाह , अनमेल विवाह ' सगोत्र विवाह ' बहुपत्नीत्व ' दहेज -प्रथा , गौहत्या , पशुबलि नरबली ' सतीप्रथा -छुआछूत = (जो पवित्र है वह शुद्ध और जो अपवित्र हो वह अछूत है ), जादू-टोने, ताबीज अंधविश्वास , नारी और शूद्र को भी वेद पढ़ने गायत्री मंत्र का जाप करने का अधिकार, अन्तर्समाज विवाह (अन्तर्जातीय - बोल चाल की भाषा में ) विवाह पर्दा प्रथा । बारहवीं -तेरहवीं (मरने के 12-13 दिन बाद खाना खिलाना ) ' मूर्त्तियों में धन का अपव्यथ पर (सोने चांदी हीरे मोती आदि पहनाना ) किसी विशेष स्थान में स्वर्ग - नरक मानना आदि सामाजिक सुधार आन्दोलन करना और इनका पाखण्ड उन्मूलन करना चाहिए साधन की पवित्रता : - धर्मयुक्त साधनों से (पुरुषार्थ ) श्रम शारीरिक मानासिक बौद्धिक श्रम द्वारा धन कमाना चाहिए ठगी चोरी रिश्वत ' आदि से नहींऔर परोपकार विद्यादान , श्रमदान ' सेवा सरकार की सेवा ' (नौकरी + व्यापार आदि से जो धन प्राप्त होवे उसमें सन्तोष करना और शेष बचे धन को असहाय अनाथ रोगीऔर निर्बलों की रक्षा में लगाना । स्वदेश प्रेम: - स्वराज्य स्वभाष स्ववेशभूषा स्व संस्कृति पर गर्व होना चाहिए । आर्य समाज : - आर्य समाज कोई नया मत नहीं है । यह तो सत्य सनातन वैदिक धर्म में आयी कुरीतियों - रूढ़िवादिता को हटाकर उसे पुनः प्रतिष्ठित करने हेतु युग निर्माता महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती जी द्वारा चैत्र शुक्ल प्रतिपदा संवत् .1932 तदनुसार बुधवार (दिनांक07- अप्रेल -1875 ईस्वी ० ) को प्रारम्भ किया एक पवित्र विचारधारा तैया हमारी पूर्व निर्धारित ऋषियों तथा वेदों द्वारा संचालित एक पाखण्ड को हटाकर उसके स्थान पर यथार्थ वैरिक संस्कृति और ज्ञान को प्राप्त करने तथा आचरण में लाने हेतु किया गया एक पवित्र उपहार है। आर्य समाज मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्रजी महाराज एवं योग-योगेश्वर श्री कृष्ण चन्द्रजी महाराज 'राज+ऋषि आदि महापुरुषों एवं सभी सनातन पर्वों को तथा ज्योतिष गणित (फलित नहीं) को मानता है । आर्य समाज महार्षि दयानंद सरस्वती जी के विचारों तथा उनके पूर्व उत्पन्न हुये सभी ऋषि मुनियों का अनुकरण करता है । तथा प्रचार करता है । आर्य समाज भौतिकवाद ( प्रेय -मार्ग) एवं अध्यात्मवाद (श्रेय मार्ग ) में समन्वय कर विश्व को सुख शान्ति एवं आनंदमय मार्ग पर अग्रसर कर मानव को धर्म अर्थ काम और मोक्ष की प्राप्ति कराने का कार्य प्रस्तुत करता है । अधिक जानकारी हेतु सत्यार्थप्रकाश ' ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका संस्कार विधि व्यवहार भानु ' गोकरुणा निधि व पंच महायज्ञ विधि -वेदादिभाष्य ग्रन्थों का स्वाध्याय करना चाहिए । इति परिचय पत्रम् ॥ https://whatsapp.com/channel/0029VaFQoKGFXUuXs6nlGW3k
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