ऑनलाइन वैदिक गुरुकुल
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June 16, 2025 at 03:07 AM
आर्य उद्देश्य रत्नमाला-----॥ स्वामी दयानन्द सरस्वती ॥ ॥ आर्य उद्देश्य रत्नमाला ॥ ( सम्पूर्ण ) वेद वरदान आर्य धर्म योद्धा कर्मवीर धर्म स्थल से* https://whatsapp.com/channel/0029VaFQoKGFXUuXs6nlGW3k १. ईश्वर – जिसके गुण ,कर्म, स्वाभाव और स्वरुप सत्य ही हैं जो केवल चेतनमात्र वस्तु है तथा जो एक अद्वितीय सर्वशक्तिमान , निराकार , सर्वत्र व्यापक , अनादि और अनन्त आदि सत्यगुण वाला है और जिसका स्वभाव अविनाशी , ज्ञानी , आनन्दी , शुद्ध न्यायकारी , दयालु और अजन्मादि है । जिसका कर्म जगत की उत्पत्ति , पालन और विनाश करना तथा सर्वजीवों को पाप , पुण्य के फल ठीक ठीक पहुचाना है; उसको ईश्वर कहते हैं । २. धर्म – जिसका स्वरुप ईश्वर की आज्ञा का यथावत पालन और पक्षपात रहित न्याय सर्वहित करना है । जो कि प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सुपरीक्षित और वेदोक्त होने से सब मनुष्यों के लिये यही एक धर्म मानना योग्य है; उसको धर्म कहते हैं । ३. अधर्म -- जिसका स्वरुप ईश्वर की आज्ञा को छोङकर और पक्षपात सहित अन्यायी होके बिना परीक्षा करके अपना ही हित करना है । जिसमें अविद्या , हठ , अभिमान , क्रूरतादि दोषयुक्त होने के कारण वेदविद्या से विरुद्ध है, इसलिये यह अधर्म सब मनुष्यों को छोङने के योग्य है , इससे यह अधर्म कहाता है ॥ ४. पुण्य -- जिसका स्वरुप विद्धयादि शुभ गुणों का दान और सत्यभाषणादि सत्याचार का करना है , उसको पुण्य कहते हैं । ५. पाप --- जो पुण्य से उलटा और मिथ्या भाषण अर्थात झूठ बोलना आदि कर्म है, उसको पाप कहते हैं ॥ ६. सत्यभाषण ---- जैसा कुछ अपने मन में हो और असम्भव आदि दोषों से रहित करके सदा वैसा सत्य ही बोले ; उसको सत्य भाषण कहते हैं । ७. मिथ्याभाषण --- जो कि सत्यभाषण अर्थात सत्य बोलने से विरुद्ध है ; उसको असत्यभाषण कहते हैं । ८. विश्वास – जिसका मूल अर्थ और फल निश्चय करके सत्य ही हो ; उसका नाम विश्वास है । ९. अविश्वास – जो विश्वास का उल्टा है । जिसका तत्व अर्थ न हो वह अविश्वास है । १०. परलोक – जिसमें सत्य विद्या करके परमेश्वर की प्राप्ति पूर्वक इस जन्म वा पुनर्जन्म और मोक्ष में परम सुख प्राप्त होना है ; उसको परलोक कहते हैं । ११. अपरलोक -- जो परलोक से उल्टा है जिसमें दुःखविशेष भोगना होता है ; वह अपरलोक कहाता है । १२. जन्म -- जिसमे किसी शरीर के साथ संयुक्त होके जीव कर्म में समर्थ होता है ; उसको जन्म कहते हैं । १३. मरण --- जिस शरीर को प्राप्त होकर जीव क्रिया करता है , उस शरीर और जीव का किसी काल में जो वियोग हो जाना है उसको मरण कहते हैं । १४. स्वर्ग --- जो विशेष सुख और सुख की सामग्री को जीव का प्राप्त होना है ; वह स्वर्ग कहाता है । १५. नरक --- जो विशेष दुःख और दुःख की सामग्री को जीव का प्राप्त होना है ; उसको नरक कहते हैं । १६. विद्या -- जिससे ईश्वर से लेके पृथिवी पर्यन्त पदार्थों का सत्य विज्ञान होकर उनसे यथायोग्य उपकार लेना होता है इसका नाम विद्या है । १७. अविद्या --- जो विद्या से विपरीत है भ्रम , अन्धकार और अज्ञानरुप है ; इसलिए इसको अविद्या कहते हैं । १८. सत्पुरुष --- जो सत्यप्रिय , धर्मात्मा , विद्वान सबके हितकारी और महाशय होते हैं ; वे सत्पुरुष कहाते हैं । १९. सत्संग --- जिस करके झूठ से छूटके सत्य की ही प्राप्ति होती है उसको सत्संग और जिस करके पापों में जीव फंसे उसको “ कुसंग ” कहते हैं । २०. तीर्थ --- जितने विद्याभ्यास , सुविचार , ईश्वरोपासना , धर्मानुष्ठान , सत्य का संग , ब्रह्मचर्य , जितेन्द्रियता , उत्तम कर्म हैं , वे सब “ तीर्थ “ कहाते हैं क्योंकि जिन करके जीव दुःखसागर से तर जा सकते हैं । २१. स्तुति --- जो ईश्वर वा किसी दूसरे पदार्थ के गुणज्ञान , कथन , श्रवण और सत्यभाषण करना है ; वह स्तुति कहाती है ॥ २२. स्तुति का फल --- जो गुण ज्ञान आदि के करने से गुण वाले पदार्थों में प्रीति होती है ; यह “ स्तुति का फल “ कहाता है ॥ २३. निन्दा --- जो मिथ्याज्ञान , मिथ्याभाषण , झूठ में आग्रहादि क्रिया का नाम निन्दा है कि जिससे गुण छोङकर उनके स्थान में अवगुण लगाना होता है ॥ २४. प्रार्थना --- अपने पूर्ण पुरषार्थ के उपरान्त उत्तम कर्मो की सिद्धि के लिये परमेश्वर वा किसी सामर्थ्य वाले मनुष्य का सहाय लेने को “ प्रार्थना “ कहते हैं ॥ २५. प्रार्थना का फल --- अभिमान नाश , आत्मा में आर्द्रता , गुण ग्रहण में पुरुषार्थ और अत्यंत प्रीति का होना “ प्रार्थना का फल “ है । २६. उपासना --- जिस करके ईश्वर ही के आनन्द स्वरुप में अपने आत्मा को मग्न करना होता है ; उसको “ उपासना “ कहते हैं । २७. निर्गुणोपासना --- शब्द , स्पर्श और रुप , रस , गंध , संयोग – वियोग , हल्का , भारी अविद्या , जन्म ,मरण और दुख आदि गुणों से रहित परमात्मा को जानकर जो उसकी उपासना करनी है , उसको “ निर्गुणोपासना “ कहते हैं । २८. सगुणोपासना --- जिसको सर्वज्ञ , सर्वशक्तिमान , शुद्ध , नित्य , आनन्द , सर्वव्यापक , सनातन , सर्वकर्ता , सर्वाधार , सर्वस्वामी , सर्वनियन्ता , सर्वान्तर्यामी , मगंल मय , सर्वानन्दप्रद सर्वपिता , सब जगत का रचने वाला , न्यायकारी , दयालु और सत्य गुणों से युक्त जानके जो ईश्वर की उपासना करनी है ; सो “ सगुणोपासना “ कहाती है । २९. मुक्ति --- अर्थात जिससे सब बुरे कामों और जन्म मरण आदि दुःख सागर से छूटकर सुखस्वरुप परमेश्वर को प्राप्त होके सुख ही में रहना “ मुक्ति “ कहती है । ३० मुक्ति के साधन --- अर्थात जो पूर्वोक्त ईश्वर की कृपा , स्तुति , प्रार्थना और उपासना का करना तथा धर्म का आचरण , पुण्य का करना , सत्संग , विश्वास , तीर्थसेवन सत्पुरुषों का संग , परोपकार आदि सब अच्छे कामो का करना और सब दुष्ट कर्मो से अलग रहना है , ये सब “ मुक्ति के साधन “ कहाते हैं ॥ ३१. कर्ता --- जो स्वतन्त्रता से कर्मो का करने वाला है अर्थात जिसके स्वाधीन सब साधन होते हैं , वह कर्ता कहाता है । ३२. कारण --- जिसको ग्रहण करके ही करने वाला किसी कार्य या चीज को बना सकता है अर्थात जिसके बिना कोई चीज बन ही नहीं सकती , वह “ कारण “ कहाता है , सो तीन प्रकार का होता है । ३३. उपादान कारण --- जिसको ग्रहण करके ही उत्पन्न होवे वा कुछ बनाया जाय जैसे कि मट्टी से घङा बनता है ; उसको “ उपादान कारण “ कहते हैं । ( इसमें मिट्टी उपादान कारण है ।) ३४. निमित्त कारण --- जो बनाने वाला है जैसा कि कुंभार घङे को बनाता है इस प्रकार के पदार्थों को “ निमित्त कारण “ कहते हैं । ( इसमें कुंभार निमित्त कारण है ) ३५. साधारण कारण --- जैसे चाक , दण्ड आदि और दिशा , आकाश तथा प्रकाश हैं इनको “ साधारण कारण “ कहते हैं । ३६. कार्य --- जो किसी पदार्थ के संयोग विशेष से स्थूल होके काम में आता है अर्थात जो करने के योग्य है ; वह उस कारण का “ कार्य “ कहाता है । ( जैसे कुम्हार ने मिट्टी आदि के संयोग से घङा बनाया ) ३७. सृष्टि --- जो कर्ता की रचना करके, कारण द्रव्य, किसी संयोग से विशेष अनेक प्रकार कार्यरुप होकर वर्तमान में व्यवहार करने के योग्य हैं ; वह “ सृष्टि “ कहाती है । ३८. जाति --- जो जन्म से लेके मरण पर्यन्त बनी रहे । जो अनेक व्यक्तियों मे एक रुप से प्राप्त हो । जो ईश्वरकृत अर्थात मनुष्य , गाय , अश्व और वृक्षादि समूह हैं ; वे “ जाति “ शब्दार्थ से लिये जाते हैं ॥ ३९. मनुष्य --- अर्थात जो विचार के बिना किसी काम को न करें ; उसका नाम “ मनुष्य “ है ।। ४०. आर्य --- जो श्रेष्ठ स्वभाव , धर्मात्मा , परोपकारी , सत्य विद्या आदि गुणयुक्त और आर्यावर्त्त देश में सब दिन से रहने वाले हैं , उनको “ आर्य “ कहते हैं । ४१. आर्यावर्त्त देश --- हिमालय , विन्ध्याचल , सिन्धु नदी और ब्रह्मपुत्रा नदी इन चारों के बीच और जहां तक उनका विस्तार है उनके मध्य में जो देश है ; उसका नाम “ आर्यावर्त्त “ है । ४२. दस्यु --- अनार्य अर्थात जो अनाङी आर्यों के स्वभाव और निवास से पृथक डाकू , चोर , हिंसक कि जो दुष्ट मनुष्य है , वह “ दस्यु “ कहाता है ॥ ४३. वर्ण --- जो गुण और कर्मों के योग से ग्रहण किया जाता है ; वह “ वर्ण “ शब्दार्थ से लिया जाता है । ४४. वर्ण के भेद --- जो ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य और शूद्रादि हैं ; वे “ वर्ण “ कहाते हैं ॥ ४५. आश्रम --- जिनमें अत्यन्त परिश्रम करके उत्तम गुणों का ग्रहण और श्रेष्ठ काम किये जायं उनको “ आश्रम “ कहते हैं ॥ ४६. आश्रम के भेद --- जो सत्य विद्या आदि शुभ गुणों का ग्रहण तथा जितेन्द्रियता से आत्मा और शरीर के बल को बढाने के लिये ब्रह्मचारी ; जो सन्तानोत्पत्ति और विद्यादि सब व्यवहारों को सिद्ध करने के लिये गृहाश्रम ; जो विचार के लिए वानप्रस्थ ; और सर्वोपकार करने के लिए सन्यासाश्रम होता है ; ये “ चार आश्रम “ कहाते हैं । ४७. यज्ञ --- जो अग्निहोत्र से लेके अश्वमेध पर्यन्त जो शिल्प व्यवहार और जो पदार्थ विज्ञान है ; जो कि जगत के उपकार के लिए किया जाता है ; उसको “ यज्ञ “ कहते है । ४८. कर्म --- जो मन , इन्द्रिय और शरीर में जीव चेष्टा विशेष करता है सो “ कर्म “ कहाता है । वह शुभ , अशुभ और मिश्रभेद से तीन प्रकार का है । ४९. क्रियमाण --- जो वर्तमान में किया जाता है “ क्रियामाण कर्म “ कहाता है । ५०. संचित --- जो क्रियमाण का संस्कार ज्ञान में जमा होता है ; उस को “ संचित कर्म “ कहते हैं । ५१. प्रारब्ध --- जो पूर्व किये हुये कर्मों के सुख – दुःख रूप फल भोग किया जाता है उसको “ प्रारब्ध “ कहते हैं ॥ ५२. अनादि पदार्थ --- जो ईश्वर , जीव और सब जगत का कारण हैं ये तीन पदार्थ स्वरूप से “ अनादि “ हैं । ५३. प्रवाह से अनादि पदार्थ --- जो कार्य जगत , जीव के कर्म और जो इनका संयोग – वियोग है ; ये तीन परम्परा से अनादि हैं ॥ ५४. अनादि का स्वरूप --- जो न कभी उत्पन्न हुआ हो , जिसका कारण कोई भी न हो , जो सदा से स्वयं सिद्ध होके सदा वर्तमान रहे वह अनादि कहाता है ॥ ५५. पुरूषार्थ --- अर्थात सर्वथा आलस्य छोङ के उत्तम व्यवहारों की सिद्धि के लिए मन , शरीर , वाणी और धन से अत्यन्त उद्द्योग ( परिश्रम ) करना है ; उसको “ पुरूषार्थ “ कहते हैं ॥ ५६. पुरूषार्थ के भेद --- जो अप्राप्त वस्तु की इच्छा करनी ; प्राप्त का अच्छी प्रकार रक्षण करना ; रक्षित को बढाना और बढे हुये पदार्थों का सत्यविद्या की उन्नति में तथा सबके हित करने में खर्च करना है ; इन चार प्रकार के कर्मो को पुरूषार्थ कहते हैं ॥ ५७. परोपकार --- अर्थात अपने सब सामार्थ्य से दूसरे प्राणियों के सुख होने के लिए जो तन , मन , धन से प्रयत्न करना है ; वह “ परोपकार “ कहाता है ॥ ५८. शिष्टाचार --- जिसमें शुभ गुणों का ग्रहण और अशुभ गुणों का त्याग किया जाता है ; वह “ शिष्टाचार “ कहाता है ॥ ५९. सदाचार --- जो सृष्टि से लेके आज पर्यन्त सत्पुरूषों का वेदोक्त आचार चला आया है कि जिसमें सत्य का ही आचरण और असत्य का परित्याग किया है ; उसको “ सदाचार “ कहते है । ६०. विद्द्यापुस्तक --- जो ईश्वरोक्त , सनातन , सत्यविध्यामय चार वेद हैं उनको “ विद्द्यापुस्तक “ कहते हैं । ६१. आचार्य --- जो श्रेष्ठ आचार को ग्रहण कराके सब विद्याओं को पढा देवे ; उनको “ आचार्य “ कहते हैं । ६२. गुरू --- जो वीर्यदान से लेके भोजनादि कराके पालन करता है ; इससे पिता को “ गुरू “ कहते हैं और जो अपने सत्योपदेश से ह्रदय के अज्ञान रूपी अन्धकार मिटा देवे उनको भी “ आचार्य “ कहते हैं । ६३. अतिथि --- जिसकी आने और जाने में कोई भी निश्चित तिथि न हो तथा जो विद्वान होकर सर्वत्र भ्रमण करके प्रश्नोत्तरों के उपदेश से सब जीवों का उपकार करता है ; उसको “ अतिथि कहते हैं । वेद वरदान आर्य धर्म योद्धा कर्मवीर धर्म स्थल से* https://whatsapp.com/channel/0029VaFQoKGFXUuXs6nlGW3k ६४. पञ्चायतन पूजा --- जीते माता , पिता , आचार्य , अतिथि और परमेश्वर को जो यथायोग्य सत्कार करके प्रसन्न करना है ; उसको “ पञ्चायतन पूजा “ कहते हैं । ६५. पूजा --- जो ज्ञानादि गुण वाले का यथायोग्य सत्कार करना है ; उसको “ पूजा “ कहते हैं । ६६. अपूजा --- जो ज्ञानादि रहित जङ पदार्थ और जो सत्कार के योग्य नहीं है ; उसको जो सत्कार करना है ; वह “ अपूजा “ कहाती है । ६७. जङ --- जो वस्तु ज्ञानादि गुणों से रहित है ; उसको “ जङ “ कहते हैं । ६८. चेतन --- जो पदार्थ ज्ञानादि गुणों से युक्त है ; उसको “ चेतन “ कहते हैं । ६९. भावना --- जो जैसी चीज हो उसमें विचार से वैसा ही निश्चय करना कि जिसका विषय भ्रमरहित हो अर्थात जैसे को तैसा ही समझ लेना ; उसको “ भावना “ कहते है । ७०. अभावना --- जो भावना से उल्टी हो अर्थात जो मिथ्या ज्ञान से अन्य में अन्य निश्चय मान लेना है जैसे जङ में चेतन और चेतन में जङ का निश्चय कर लेते हैं ; उसको “ अभावना “ कहते हैं । ७१. पण्डित --- जो सत असत को विवेक से जानने वाला , धर्मात्मा सत्यवादी , सत्य – प्रिय , विद्वान और सबका हितकारी है , उसको “ पण्डित “ कहते हैं । ७२. मूर्ख --- जो अज्ञान ,हठ , दुराग्रहादि दोष सहित है उसको “ मूर्ख “ कहते हैं । ७३. ज्येष्ठ कनिष्ठ व्यवहार --- जो बङे और छोटों से यथायोग्य परस्पर मान्य करना है ; उसको “ ज्येष्ठ कनिष्ठ व्यवहार “ कहते हैं । ७४. सर्वहित --- जो तन , मन और धन सबके सुख बढाने में उद्योग करना है ; उसको “ सर्वहित “ कहते हैं । ७५. चोरी त्याग --- जो स्वामी की आज्ञा के बिना किसी के पदार्थ का ग्रहण करना है, वह “ चोरी “ और उसका छोङना “ चोरी त्याग “ कहाता है । ७६. व्यभिचार त्याग --- जो अपनी स्त्री के बिना दूसरी स्त्री के साथ गमन करना और अपनी स्त्री को भी ऋतुकाल के बिना वीर्यदान देना तथा अपनी स्त्री के साथ भी वीर्य का अत्यन्त नाश करना और युवावस्था के बिना विवाह करना है ; यह सब “ व्यभिचार “ कहाता है । उसको छोङ देने का नाम “ व्यभिचार त्याग “ कहाता है ॥ ७७. जीव का स्वरूप --- जो चेतन , अल्पज्ञ , इच्छा , द्वेष , प्रयत्न , सुख , दुःख और ज्ञान गुण वाला तथा नित्य है वह “ जीव “ कहाता है ॥ ७८. स्वभाव --- जिस वस्तु का जो स्वाभाविक गुण है जैसे कि अग्नि में रूप , दाह अर्थात जब तक वह वस्तु रहे तब तक उसका वह गुण भी नहीं छूटता इसलिए इसको “ स्वभाव “ कहते हैं । ७९. प्रलय --- जो कार्य जगत का कारण रूप होना अर्थात जगत का करने वाला ईश्वर जिन – जिन करणों से सृष्टि बनाता है कि अनेक कार्यों को रचके यथावत पालन करके पुनः कारण रूप करके रखना है उसका नाम ‘ प्रलय ‘ है । ८०. मायावी --- जो छल , कपट , स्वार्थ में ही प्रसन्नता दम्भ , अहंकार , शठतादि दोष हैं ; इसको ‘ माया ‘ कहते हैं । और जो मनुष्य इससे युक्त हो ; वह ‘ मायावी ‘ कहाता है । ८१. आप्त --- जो छलादि दोष रहित , धर्मात्मा , विद्वान , सत्योपदेष्टा , सब पर कृपादृष्टि से वर्त्तमान होकर अविद्या अन्धकार का नाश करके अज्ञानी लोगों के आत्माओं में विद्यारूप सूर्य का प्रकाश सदा करें ; उसको ‘ आप्त ‘ कहते हैं । ८२. परीक्षा --- जो प्रत्यक्षादि आठ प्रमाण , वेदविद्या , आत्मा की शुद्धि और सृष्टिक्रम से अनुकूल विचार सत्यासत्य को ठीक – ठीक निश्चय करना है ; उसको ‘ परीक्षा ‘ कहते है । ८३. आठ प्रमाण --- प्रत्यक्ष , अनुमान , उपमान , शब्द , ऐतिह्य , अर्थापत्ति , सम्भव और अभाव ये आठ प्रमाण हैं । इन्हीं से सब सत्यासत्य का यथावत निश्चय मनुष्य कर सकता है । ८४. लक्षण --- जिससे लक्ष्य जाना जाय जो कि उसका स्वाभाविक गुण है । जैसे कि रूप से अग्नि जाना जाता है इसलिए इसको ‘ लक्षण ‘ कहते हैं । ८५. प्रमेय --- जो प्रमाणों से जाना जाता है जैसा कि आंख का प्रमेय रूप अर्थ है । जो कि इन्द्रियों से प्रतीत होता है ; उसको ‘ प्रमेय ‘ कहते हैं । ८६. प्रत्यक्ष --- जो प्रसिद्ध शब्दादि पदार्थों के साथ श्रोत्रादि और मन के निकट सम्बन्ध से ज्ञान होता है ; उसको ‘ प्रत्यक्ष ‘ कहते है । ८७. अनुमान --- किसी पूर्व दृष्ट पदार्थ के अंग को प्रत्यक्ष देखके पश्चात उसके अदृष्ट अंगी का जिससे यथावत ज्ञान होता है , उसको ‘ अनुमान ‘ कहते हैं । ८८. उपमान --- जैसे किसी ने किसी से कहा कि गाय के समतुल्य नील गाय होती है ; जो कि सादृष्य उपमा से ज्ञान होता है , उसको ‘ उपमान ‘ कहते हैं । ८९. शब्द --- जो पूर्ण आप्त परमेश्वर और पूर्वोक्त आप्त मनुष्य का उपदेश है ; उसी को ‘ शब्द प्रमाण ‘ कहते हैं । ९०. ऐतिह्य --- जो शब्द प्रमाण के अनुकूल हो ; जो कि असम्भव और झूठा लेख न हो ; उसी को ‘ इतिहास ‘ कहते हैं । ९१. अर्थापत्ति --- जो एक बात के कहने से दूसरी बात बिना कहे समझी जाय उसको ‘ अर्थापत्ति ‘ कहते हैं । ९२. सम्भव --- जो बात प्रमाण युक्ति और सृष्टि क्रम से युक्त हो ; वह ‘ सम्भव ‘ कहाता है । ९३. अभाव --- जैसे किसी ने किसी से कहा कि तू जल ले आ । उसने वहां देखा कि यहां जल नहीं है परन्तु जहां जल है वहां से ले आना चाहिये । इस अभाव निमित्त से जो ज्ञान होता है ; उसको “ अभाव प्रमाण “ कहते हैं । ९४. शास्त्र --- जो सत्यविद्याओं के प्रतिपादन से युक्त हो और जिस करके मनुष्यों को सत्य सत्य शिक्षा हो ; उसको “ शास्त्र “ कहते हैं । ९५. वेद --- जो ईश्वरोक्त , सत्यविद्याओं से ॠक् संहितादि चार पुस्तक हैं कि जिनसे मनुष्यों को सत्य सत्य ज्ञान हो ; उनको “ वेद “ कहते हैं । ९६. पुराण --- जो प्राचीन ऐतरेय , शतपथ ब्राह्मणादि ॠषि मुनिकृत सत्यार्थ पुस्तक हैं ; उन्हीं को “ पुराण “ , “ इतिहास “ , “ कल्प “ , “ गाथा “ , “ नाराशंसी “ कहते हैं । ९७. उपवेद --- जो आयुर्वेद वैद्यक्शास्त्र , जो धनुर्वेद शस्त्रास्त्र विद्द्या , राजधर्म जो गन्धर्व वेद गानशास्त्र और अर्थवेद जो शिल्पशास्त्र है ; इन चारों को “ उपवेद “ कहते हैं । ९८. वेदांग --- जो शिक्षा , कल्प , व्याकरण , निरूक्त , छन्द और ज्योतिष आर्ष सनातन शास्त्र हैं ; इनको ‘ वेदांग ‘ कहते हैं । ९९. उपांग --- जो ॠषि मुनिकृत मीमांसा , वैशेषिक , न्याय , योग , सांख्य और वेदान्त छः शास्त्र हैं , इनको उपांग कहते हैं । १००. नमस्ते --- मैं तुम्हारा मान्य करता हूं ॥ *वेद वरदान आर्य धर्म योद्धा कर्मवीर धर्म स्थल से* https://whatsapp.com/channel/0029VaFQoKGFXUuXs6nlGW3k
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