Guru Nanak Blessings 🙌
June 15, 2025 at 03:51 PM
*कल के सत्संग का ज्ञान*👏 *!! धन गुरु नानक जी !!* *!! श्री जपजी साहिब जी !!* *!! DAY 102 !!* *👉!!*अंत कारणि केते बिललाहि ॥ ता के अंत न पाए जाहि ॥* पद्अर्थ: अंत कारणि = हदबंदी ढूँढने के लिए। केते = कई मनुष्य। बिललाहि = बिलकते हैं, तरले लेते हैं। ता के अंत = उस अकाल-पुरख का अंत/ की सीमा। न पाऐ जाहि = ढूँढे नही जा सकते। अर्थ: कई मनुष्य अकाल-पुरख की हदें, सीमाएं तलाशने में व्याकुल हो रहे हैं, पर वे उस की सीमांओं को नहीं ढूँढ सकते। 👉🏻 परमार्थी रूप से अपने ध्यान को शब्दों में जोड़ना हमारा मुख्य उद्देश्य है। 👉प्रेम आकर्षण का मुख्य कारण है। जहां प्रेम है वही हमारा ध्यान होता है। 👉🏻 साधसंगत करने से हमारा प्रेम संसार से विमुख होकर ईश्वर में लग जाता है। 👉🏻 इसलिए कहते हैं कि ईश्वर से मिलने का सत्संग ही ठिकाना है। *👉एहु अंतु न जाणै कोइ ॥ बहुता कहीऐ बहुता होइ ॥* पद्अर्थ: ऐहु अंतु = ये सीमाएं (जिसकी तलाश बेअंत जीव कर रहे हैं)। बहुता कहीअै = ज्यों ज्यों अकाल-पुरख को बड़ कहते जाएं, ज्यों ज्यों उसके गुण कथन करते जाएं। बहुता होइ = त्यों त्यों वह और बड़ा, और बड़ा प्रतीत होने लग जाता है। अर्थ: (अकाल पुरख के गुणों का) इन सीमाओं को (जिसकी बेअंत जीव तलाश में लगे हुए हैं) कोई मनुष्य नहीं पा सकता। ज्यों ज्यों ये बात कहते जाएं कि वह बड़ा है, त्यों त्यों वह और भी बड़ा, और भी बेअंत प्रतीत होने लग पड़ता है। 👉🏻 गुरु अर्जुन देव जी महाराज अपनी वाणी में फरमाते हैं कि पिता के जन्म के बारे में पुत्र कभी भी पूर्ण रूप से नहीं जान सकता। भावार्थ है कि मनुष्य कभी भी ईश्वर का पार नहीं पा सकता है। गुरुवाणी में लिखा है:- *पउड़ी ॥ केते कहहि वखाण कहि कहि जावणा ॥ वेद कहहि वखिआण अंतु न पावणा ॥ पड़िऐ नाही भेदु बुझिऐ पावणा ॥ खटु दरसन कै भेखि किसै सचि समावणा ॥ सचा पुरखु अलखु सबदि सुहावणा ॥ मंने नाउ बिसंख दरगह पावणा ॥ खालक कउ आदेसु ढाढी गावणा ॥ नानक जुगु जुगु एकु मंनि वसावणा ॥२१॥* 👉🏻 इस संसार में न जाने कितने ज्ञानी और महा ज्ञानी हुए हैं लेकिन वे भी ईश्वर का अंत नहीं जान पाए हैं। 👉🏻 वेद पुराण उपनिषद आदि ग्रंथ भी परमात्मा के गुणों को गा गाकर थक गए। 👉🏻 बेअंत जीव परमात्मा की करामातों का वर्णन नहीं कर पाए। गुरुवाणी में गुरु साहिब जी कहते हैं:- *तेरा सचे किनै अंतु न पाइआ ॥ गुर परसादि किनै विरलै चितु लाइआ ॥ तुधु सालाहि न रजा कबहूं सचे नावै की भुख लावणिआ ॥२॥* 👉🏻हे सदा स्थिर रहने वाले प्रभू! किसी भी जीव को तेरे गुणों का अंत नहीं मिला। 👉🏻 किसी विरले मनुष्य ने ही गुरू की कृपा से ही (तेरे चरणों में अपना) चिक्त जोड़ा है। 👉🏻 (हे प्रभू! मेहर कर कि) मैं तेरी सिफत-सालाह करते करते कभी भी ना तृप्त होऊँ। तेरे सदा स्थिर रहने वाले नाम की भूख मुझे हमेशा लगी रहे। आगे गुरु साहब जी कहते हैं:- *सिरीरागु महला १ घरु ३ ॥ जोगी अंदरि जोगीआ ॥ तूं भोगी अंदरि भोगीआ ॥ तेरा अंतु न पाइआ सुरगि मछि पइआलि जीउ ॥१॥* 👉🏻हे प्रभू!जोगियों के अंदर (व्यापक हो के तू स्वयं ही) जोग कमा रहा है। 👉🏻माया के भोग भोगने वालों के अंदर भी तू ही पदार्थ भोग रहा है। 👉🏻 स्वर्ग लोक में मातृ लोक में पाताल लोक में (बसते किसी भी जीव ने) तेरे गुणों का अंत नहीं पाया। *👉वडा साहिबु ऊचा थाउ ॥ ऊचे उपरि ऊचा नाउ ॥* पद्अर्थ: थाउ = अकाल-पुरख के निवास का ठिकाना। ऊचे ऊपरि ऊचा = ऊचे से भी ऊँचा, बहुत ऊँचा। नाउ = मशहूरी, नाम, शोहरत। अर्थ: अकाल-पुरख बहुत बड़ा है, उसका ठिकाना ऊँचा है। उसकी शोहरत भी ऊँची है। 👉🏻परमात्मा और नाम एक ही है। नाम की महिमा और परमात्मा की महिमा एक समान ही है। 👉🏻भाई वीरसिंह जी सार के रुप कहते हैं कि ईश्वर के थाह पाने की कोशिश करना व्यर्थ है। हमारी मंजिल ईश्वर में समाना है ना कि उसका अंत पाना। शुकराना वाहेगुरु जी🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻
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