भारतीय विचार संग्रह - हस्तिनापुर दर्पण
June 6, 2025 at 05:55 PM
पानी में मीन प्यासी
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आजकल नौतपा चल रहा है। यह भीषण गर्मी का दौर होता है। सूर्य जब टहलते टहलते रोहिणी नक्षत्र में प्रवेश करते हैं तो यह तीक्ष्ण गर्मी का दौर शुरू होता है। प्राय: यह स्थिति ज्येष्ठ मास में बनती है। जेठ यानी बड़ा। सारी धरा जब सूर्य के प्रखर ताप में तपने लगे तब एक एक दिन बहुत मुश्किल से गुजरते हैं। दिन तो मानों किसी निर्लज्ज मेहमान की तरह जान पड़ता है जो टलने का नाम ही ना ले। रात भी किसी प्रतिघात की तरह गुजरे। इसी लिए यह जेठ मास है। सारे मासों से बड़ा और कठिन प्रतीत होने वाला मास।
इसी मास में आती है निर्जला एकादशी। तीखे ताप में बिना जल के रहना निश्चित ही एक तप है। वैसे भगवान को तप बहुत पसंद हैं। तप की सामान्य परिभाषा है, मन और इंद्रियों की एकाग्रता। गीता में भगवान वासुदेव ने शरीर, वाणी और मन के तीन तप बताये हैं। तीनों कमाल के तप हैं। इन्हें किसी एक खास दिन, मुहूर्त या नक्षत्र में नहीं किया जाता। ये तीनों तप आजीवन अभ्यास वाले तप हैं। निरंतर चलते रहने वाले तप।
दिलचस्प है कि विष्णुसहस्रनाम में भगवान के दो नाम आते हैं… ’’महातपा’’ और ‘‘सुतपा’’।
रुद्रो बहुशिरा बभ्रुर्विश्वयोनि: शुचिश्रवा।
अमृत: शाश्वतस्थाणुर्वरारोहो महातपा:।।
मरीचिर्दमनो हंस: सुपर्णो भुजगोत्तम:।
हिरण्यनाभ: सुतपा: पद्मनाभ: प्रजापति:।।
मनीषी आचार्यों ने तप का एक अर्थ ज्ञान भी बताया है। भगवान महातपा इसलिए हैं क्योंकि वह महाज्ञानी हैं। यह जो संसार रूपी एक बहुत बड़ा कारखाना चल रहा है, इसके छोटे से छोटे कल पुर्जे की हर चूड़ी और पेज का माप रखने के कारण वह महातपा हैं। वैसे हम भारतीयों को ‘‘महा’’ शब्द से बड़ा प्यार है। जब तक हम किसी को महान नहीं बना लेते या किसी भी व्यक्ति या वस्तु पर महा की सीढ़ी नहीं टिका देते, हमारे पेट का पानी हिलता रहता है। महा मतलब यह हम में से कोई नहीं है। यह हमसे अलग है।
इसके ठीक विपरीत ‘‘सु’’ अव्यय एक प्यारी उपाधि है। यह जिस शब्द के आगे लग जाये, वह अपना सा लगने लगता है। दिल के बहुत करीब आ जाता है। भगवान ‘‘सुतपा’’ हैं। क्योंकि ईश्वर का हर तप इस पूरी सृष्टि के मांगल्य के लिए है। नर और नारायण का रूप धर कर वही श्रीहरि इस पूरे धरा मण्डल के कल्याण के लिए अनादिकाल से तपस्यारत हैं।
श्रीहरि ही नर और नारायण, दोनों के रूप में स्वयं तप कर रहे हैं। कभी कभी लगता है कि जेठ की गर्मी में प्यासा रह रहे हैं। निर्जल होने का अहंकार की पोटली में भाव बांध कर चले रहे हैं। जबकि पानी के भीतर रहने वाली मछली की प्यास में भला क्या वास्तविकता हो सकती है? क्योंकि जहां प्यासे रहने की संकल्प शक्ति नारायण से आ रही है वहीं कितने ही छबीलों में उस ‘‘सुतपा’’ की मिठास भी तो कच्ची लस्सी के रूप में बंट रही है।
एकादशी की राम राम
सगर पुत्रों के शरीर नहीं थे, उनके शरीर ऋषि शाप-श्राप से भस्मिभूत हो चुके थे - केवल राख बची थी,
गंगा जल का स्पर्श होते ही उनका कल्याण हो गया,
तो फिर सशरीर, जान-समझ द्विरद्धा सव्रत गंगाजी का सेवन-आचमन-मज्जन-पूजन करते हैं - उनके कल्याण में कोई संशय भी हो सकता है?
भस्मीभूताङ्गसङ्गेन स्वर्याता: सगरात्मजा:।
किं पुनः श्रद्धया देवीं ये सेवन्ते धृतव्रता:।।
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भा.९.९.१३
राजा अंशुमान्, दिलीप, भगीरथ की तपस्या के फलस्वरूप भगवती गङ्गा ने भगीरथ को दर्शन दिया, वर देने की बात पर भगीरथ ने मर्त्यलोक यानी पृथ्वी पर चलने की प्रार्थना की,
देवी ने दो समस्या सामने रखी ~ वैकुंठ/ब्रह्मलोक माने इतने ऊपर से धारा पृथ्वी पर गिरेगी तो उसका वेग-फोर्स इतना होगा कि पृथ्वी बिध जाय और उसे फोड़ कर दूसरी ओर रसातल चली जाऊँ,
दूसरा यह कि पृथ्वी पर कदाचित टिक भी गयी तो पापी लोग मुझमें अपने पाप छोड़ जायेंगे, धो जायेंगे फिर उन पापों को मैं कहाँ धोऊँगी?
भगीरथ ने कहा - माँ! जिन्होंने लोक-परलोक, धन-सम्पत्ति, स्त्री-पुत्र आदि लौकिक कामनाओं का संन्यास कर दिया है, संसार से उपरत हो अपने आप में शान्त हैं, लोकों को पवित्र करनेवाले, परोपकारी, ब्रह्मनिष्ठ संत-साधु-सज्जन हैं वे अपने अंग-संग से आपके अघ हर लेंगे; क्योंकि उनके हृदय में पापरूप अघासुर को मारनेवाले हरि सर्वदा निवास करते हैं!
रही वेग की बात तो उसके लिए भोले बाबा हैईये हैं..
साधवो न्यासिन: शान्ता ब्रह्मिष्ठा लोकपावना:।
हरन्त्यघं तेsसङ्गात् तेष्वास्ते ह्यघभिद्धरि:।।
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भा.९.९.४~७
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