
Sanatan Dharma 🚩 (धर्म, संस्कृति और आध्यात्म)
June 20, 2025 at 11:35 AM
स्व + अर्थ = "स्वार्थ।" इस शब्द का अर्थ है, अपने लाभ के लिए कर्म करना।
पर + उपकार = "परोपकार।" इस शब्द का अर्थ है, दूसरों के लाभ के लिए कर्म करना।
स्वार्थी कौन होता है? "जिसमें कुछ कमी हो, वह अपनी कमी को पूरा करने के लिए कर्म करता हो, उसको स्वार्थी कहते हैं। वह आत्मा है।"
परोपकारी कौन है? "जिसके अंदर कोई कमी न हो, जो दूसरों के लाभ के लिए कर्म करता हो, वह परोपकारी है। क्योंकि उसमे स्वयं में कोई कमी नहीं होती, इसलिए वह अपने लाभ के लिए कुछ नहीं करता, दूसरों के लाभ के लिए करता है। ऐसा परोपकारी ईश्वर है।"
"कभी-कभी जब आत्मा भी दूसरों के लाभ के लिए कर्म करता है, तब उस घटना में वह भी परोपकारी कहलाता है।"
आत्मा में स्वभाव से ही बहुत सारी कमियां हैं। "उसे रोटी चाहिए, कपड़ा चाहिए, मकान चाहिए, धन संपत्ति, पुत्र परिवार घूमना फिरना खाना पीना मौज मस्ती करना और आगे मोक्ष का आनंद प्राप्त करना आदि, यह सब चाहिए। इन सब कमियों को पूरा करने के लिए आत्मा सदा प्रयत्नशील रहता है।"
सभी आत्माएं एक जैसी हैं, इसलिए सभी आत्माएं अपनी कमियों को पूरा करने के लिए सदा कर्म करती रहती हैं। "यदि इस ढंग से देखा जाए, तो प्रत्येक आत्मा स्वार्थी है। वह अपने लाभ के लिए कर्म करती है। यह तो उसका स्वभाव ही है।"
आत्मा जो परोपकार भी करती है, तो उसमें भी उसको ही लाभ मिलता है। इसलिए परोपकार करना भी स्वार्थ पूर्ति का ही रूप है। "परंतु यह एक उत्तम कोटि का स्वार्थ माना जाता है, जब कोई व्यक्ति परोपकार करता है। यदि वह परोपकार निष्काम कर्म के रूप में किया गया हो, तो उसका फल उसे मोक्ष के रूप में प्राप्त होता है। इसका नाम देवतापन है।"
"यदि कोई आत्मा अपने लाभ के लिए कर्म करे और दूसरों को परेशान न करे, तो इस दृष्टि से उसके कर्म को दोषपूर्ण नहीं मानना चाहिए। क्योंकि वेदों में ईश्वर ने ऐसा करने की छूट दे रखी है।"
"और यदि अपना स्वार्थ पूरा करते समय दूसरों के साथ अन्याय झूठ छल कपट चोरी हिंसा अत्याचार व्यभिचार आदि का व्यवहार किया जाए, जिससे कि दूसरों को कष्ट होता हो, तो इस तरह से दूसरों को कष्ट देकर अपना स्वार्थ सिद्ध करना, इसे वैदिक शास्त्रों में अच्छा नहीं माना, बल्कि इसे निकृष्ट स्वार्थ कहा गया है।"
"वहां तक अपना स्वार्थ पूरा करना ठीक है, जहां तक न्याय पूर्वक हम दूसरों को सुख देवें , और दूसरे लोग भी हमें सुख देवें।" "इसी का नाम मानवता या मनुष्यपन है, इसी का नाम विवेक है, इसी का नाम न्याय है। दूसरों की हानि करके, अपना स्वार्थ सिद्ध करना, यह ठीक नहीं है। इसका राक्षसपन है।"
"तो इस प्रकार से मानवता की सीमा में रहकर भले ही सब लोग अपना अपना स्वार्थ सिद्ध करें, इसमें कोई दोष नहीं है।"
*🪷 ओम शांति 🪷*
