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June 15, 2025 at 05:19 AM
क्या कारण है कि जो लोग संविधान के निमार्ण के समय से लेकर आज तक संविधान का विरोध करते आए थे वो कुछसाल पहले तक प्रेम बिहारी रायजादा को संविधान निर्माता बता रहे थे और अब बी. एन. राव को। क्योंकि उनकी संविधान बदलने की सारी कौशिसे भारतीय जनमानस के जागरूक होने के कारण विफल हो गई इसलिए अब एक नया नाटक खेल रहे है, क्योंकि इनकी योजना के निहितार्थ लम्बे समय के लिए होते है अब ये चाहते है कि किसी भी तरह यदि भारतीय जनमानस मे ये बात डाल दी जाए कि संविधान का निर्माण बाबा साहेब ने नहीं किया तो इनका हिन्दू राष्ट्र का सपना साकार हो जाएगा। लेकिन इनको अब याद रखना चाहिए कि वो दिन लद गए जब बहुजन समाज तुम्हारी हाँ में हाँ मिलता था। आज भारतीय जनमानस ज्योति राव फुले, माता सावित्री बाई फुले, पेरियार और बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर द्वारा तैयार किया गया जनमानस है जो अब तुम्हारे बहकावे में नहीं आएगा। रही बात संविधान निर्माता कि तो ये पूरी दुनिया जानती है कि भारतीय संविधान का निर्माण तो बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर ने ही किया था और इसके लिए colmbia यूनिवर्सिटी ने उन्हें सम्मानित भी किया था। बाद में उस्मानीया यूनिवर्सिटी ने भी उन्हें सम्मानित किया था। यदि संविधान निर्माता बी. एन. राव महोदय होते तो आप न तो संविधान का विरोध करते और न ही उसे बदले की बात करते जिसकाआप लोग 1949 से लगातार राग अलाप रहे है। आप लोग कब का बी. एन. राव महोदय को अवतार घोषित कर देते और उनके मंदिर बना कर व्यवसाय शुरु कर देते क्योंकि इसमें आपको महारत हासिल है। अगर ऐसा नहीं होता तो, जब भारत की संविधान सभा ने भारत के संविधान को अंतिम रूप दिया था, तब आरएसएस खुश नहीं था। भारत की संविधान सभा ने 26 नवंबर, 1949 को भारत के संविधान को अंतिम रूप दिया, जिस दिन को अब हर साल संविधान दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस संविधान ने एक नवजात भारतीय गणराज्य का वादा किया था, जो लोकतंत्र, न्याय, समतावाद और कानून के शासन पर आधारित था । हालाँकि, आरएसएस बहुत नाराज़ था। इसे मंजूरी देने की ऐतिहासिक घटना के चार दिन बाद, आरएसएस के अंग्रेजी मुखपत्र, ऑर्गनाइज़र ने 30 नवंबर, 1949 को एक संपादकीय में शिकायत की: "लेकिन हमारे संविधान में प्राचीन भारत में हुए अनूठे संवैधानिक विकास का कोई उल्लेख नहीं है । मनु के कानून स्पार्टा के लाइकर्गस या फारस के सोलोन से बहुत पहले लिखे गए थे। आज भी मनुस्मृति में वर्णित उनके कानून दुनिया भर में प्रशंसा का विषय हैं और सहज आज्ञाकारिता और अनुरूपता को बढ़ावा देते हैं। लेकिन हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए इसका कोई मतलब नहीं है।" इस प्रकार, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) चाहता था कि इस संविधान की जगह मनुस्मृति या मनु संहिता लागू की जाए, जो शूद्रों, अछूतों और महिलाओं के प्रति अपमानजनक और अमानवीय संदर्भों के लिए जानी जाती है। स्वतंत्र भारत में मनु के कानूनों को लागू करने की मांग करके आरएसएस केवल अपने गुरु, दार्शनिक और मार्गदर्शक वीडी सावरकर का अनुसरण कर रहा था। उनके अनुसार, " मनुस्मृति वह शास्त्र है जो हमारे हिंदू राष्ट्र के लिए वेदों के बाद सबसे अधिक पूजनीय है और जो प्राचीन काल से ही हमारी संस्कृति-रीति-रिवाज, विचार और व्यवहार का आधार बन गया है। सदियों से इस पुस्तक ने हमारे राष्ट्र की आध्यात्मिक और दैवीय यात्रा को संहिताबद्ध किया है। आज भी करोड़ों हिंदू अपने जीवन और व्यवहार में जिन नियमों का पालन करते हैं, वे मनुस्मृति पर आधारित हैं। आज मनुस्मृति हिंदू कानून है।" आरएसएस ने भारतीय संविधान से नफरत करना जारी रखा, जबकि इसे वैश्विक स्तर पर समानता और न्याय के सिद्धांतों को कायम रखने वाले बेहतरीन दस्तावेजों में से एक माना जाता है। आरएसएस के सबसे प्रमुख विचारक एमएस गोलवलकर ने इसे हिंदू विरोधी घोषित किया। उनके लेखन का संग्रह बंच ऑफ थॉट्स जो आरएसएस कार्यकर्ताओं के लिए बाइबिल है, उसमें संविधान के खिलाफ निम्नलिखित कथन है। "हमारा संविधान भी पश्चिमी देशों के विभिन्न संविधानों के विभिन्न अनुच्छेदों का एक बोझिल और विषम संयोजन मात्र है। इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे हमारा अपना कहा जा सके। क्या इसके मार्गदर्शक सिद्धांतों में इस बात का एक भी संदर्भ है कि हमारा राष्ट्रीय मिशन क्या है और जीवन में हमारा मुख्य उद्देश्य क्या है? नहीं।" [एम.एस. गोलवलकर, बंच ऑफ थॉट्स , साहित्य सिंधु, बैंगलोर, 1996, पृ. 238.] मनुस्मृति में आरएसएस के शीर्ष नेतृत्व की आस्था स्वाभाविक रूप से उन्हें जातिवाद में भी विश्वास दिलाती है, जिसने अस्पृश्यता की घृणित प्रथा को जन्म दिया। आरएसएस के लिए जातिवाद हिंदू राष्ट्रवाद का सार है। गोलवलकर ने यह कहने में कोई संकोच नहीं किया कि जातिवाद हिंदू राष्ट्र का पर्याय है। उनके अनुसार, हिंदू लोग कोई और नहीं बल्कि, “उन्होंने कहा कि हम लोग विराट पुरुष हैं, सर्वशक्तिमान ईश्वर प्रकट हुए हैं। पुरुष -सूक्त [ऋग्वेद की 10 मण्डल में] में सर्वशक्तिमान के निम्नलिखित विवरण से यह स्पष्ट है जिसमें कहा गया है कि सूर्य और चंद्रमा उनकी आंखें हैं, तारे और आकाश उनकी नाभि से बने हैं और ब्राह्मण सिर है, क्षत्रिय हाथ हैं, वैश्य जांघ हैं और शूद्र पैर हैं। [मूल पाठ में इटैलिक्स] इसका मतलब है कि जिन लोगों में यह चार गुना व्यवस्था है, यानी हिंदू लोग, वे हमारे भगवान हैं । ईश्वरत्व का यह सर्वोच्च दर्शन 'राष्ट्र' की हमारी अवधारणा का मूल है और यह हमारी सोच में व्याप्त है और इसने हमारी सांस्कृतिक विरासत की विभिन्न अनूठी अवधारणाओं को जन्म दिया है।” [गोलवलकर, एम.एस., बंच ऑफ थॉट्स , आरएसएस द्वारा प्रकाशित गोलवलकर के लेखों/भाषणों का संग्रह, पृष्ठ 36-37.] लोकतंत्र के सिद्धांतों के विपरीत आरएसएस लगातार भारत पर अधिनायकवादी शासन की मांग करता रहा है। गोलवलकर ने 1940 में आरएसएस के 1350 शीर्ष स्तर के कार्यकर्ताओं के समक्ष भाषण देते हुए कहा था, "एक ध्वज, एक नेता और एक विचारधारा से प्रेरित आरएसएस इस महान भूमि के कोने-कोने में हिंदुत्व की ज्योति जला रहा है।" [ एमएस गोलवलकर, श्री गुरुजी समग्र दर्शन (हिंदी में गोलवलकर की संकलित रचनाएँ), भारतीय विचार साधना, नागपुर, दूसरा, खंड। ] एक झंडा, एक नेता और एक विचारधारा का यह नारा सीधे तौर पर यूरोप की नाजी और फासीवादी पार्टियों के कार्यक्रमों से उधार लिया गया है। आरएसएस संविधान के संघीय ढांचे के भी सख्त खिलाफ है, जो कि भारत की राजनीति की 'बुनियादी' विशेषता है। यह बात गोलवलकर के निम्नलिखित संदेश से स्पष्ट है जो उन्होंने 1961 में राष्ट्रीय एकता परिषद के पहले सत्र को भेजा था। इसमें लिखा था, आज की संघीय शासन प्रणाली न केवल अलगाववाद को जन्म देती है बल्कि उसका पोषण भी करती है, एक तरह से एक राष्ट्र के तथ्य को मानने से इंकार करती है और उसे नष्ट कर देती है। इसे पूरी तरह से उखाड़ फेंकना चाहिए, संविधान को शुद्ध करना चाहिए और एकात्मक शासन प्रणाली की स्थापना करनी चाहिए। [एमएस गोलवलकर, श्री गुरुजी समग्र दर्शन (हिंदी में गोलवलकर की संकलित रचनाएँ), भारतीय विचार साधना, नागपुर, दूसरा, खंड। तृतीय, पृ. 128.] ये भारतीय संघवाद पर आरएसएस विचारक के कुछ बिखरे हुए विचार नहीं हैं। आरएसएस की बाइबिल, बंच ऑफ थॉट्स में एक विशेष अध्याय है, जिसका शीर्षक है, 'एकात्मक राज्य चाहता था।' भारत की संघीय व्यवस्था के लिए अपना उपाय प्रस्तुत करते हुए वे लिखते हैं, सबसे महत्वपूर्ण और प्रभावी कदम सभी को अच्छे के लिए गहराई से दफनाना होगा हमारे देश के संविधान के संघीय ढांचे की बात करें, एक राज्य अर्थात भारत के भीतर सभी 'स्वायत्त' या अर्ध-स्वायत्त 'राज्यों' के अस्तित्व को मिटा दें और 'एक देश, एक राज्य, एक विधानमंडल, एक कार्यपालिका' की घोषणा करें, जिसमें विखंडन, क्षेत्रीय, सांप्रदायिक, भाषाई या अन्य प्रकार के गर्व का कोई निशान न हो, जो हमारे एकीकृत सद्भाव को बिगाड़ने का मौका न दे। संविधान की फिर से जांच की जानी चाहिए और इसे फिर से तैयार किया जाना चाहिए, ताकि सरकार के इस एकात्मक रूप को स्थापित किया जा सके और इस तरह अंग्रेजों द्वारा किए गए और वर्तमान नेताओं द्वारा अनजाने में आत्मसात किए गए शरारती प्रचार को प्रभावी ढंग से खारिज किया जा सके , कि हम इतने सारे अलग-अलग 'जातीय समूहों' या 'राष्ट्रीयताओं' का एक साथ रहना और भौगोलिक निकटता और एक समान सर्वोच्च विदेशी प्रभुत्व के संयोग से एक साथ समूहीकृत होना है। [ एम.एस. गोलवलकर, बंच ऑफ थॉट्स , साहित्य सिंधु, बैंगलोर, 1996, पृ. 227.] जब अटल बिहारी वाजपेयी महोदय भारत के प्रधानमंत्री बने तो इसी एजेंडे पर कार्य करते हुए संविधान समीक्षा आयोग का गठन किया था परन्तु बाद में ये विचार छोड़ना पड़ा क्योंकि वह स्पष्ट बहुमत की सरकार नहीं थी। जब 2014 में हिंदुत्व के रथ पर सवार होकर मोदी सत्ता में आए तो संविधान बदलने की बात फिर जोर पकड़ने लगी और अलग अलग हिन्दुत्व के संघटनो ने घोषणा भी कर दी की 2021 तक हिन्दू राष्ट्र बन जायेगा परन्तु आज भारतीय राजनीती में सत्ता तक पहुंचने की मास्टर key तो बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर ही है बगैर बाबा साहेब का नाम लिए कोई भी राजनैतिक दल सत्ता तक नहीं पहुँच सकता। ये अलग बात है कि ये लोग बाबा साहेब की तस्वीरों पर पुष्प और मला तो अर्पित करते है लेकिन कार्य संविधान और बाबा साहेब के मूल्यों के विपरीत करते है। अब वापस उस बात पर आते है कि संविधान निर्माता बाबा साहेब थे या कोई humble सर्वेंट। पहली बात तो यह कि उस समय संविधान सभा में ही नहीं बल्की पूरे भारत में बाबा साहेब से ज्यादा पढ़ा लिखा कोई व्यक्ति नहीं था, जो इस महान कार्य को इनती शिद्द्त से पूरा कर पाता। कँवल भारती अपने लेख (संविधान-निर्माण में डॉ. आंबेडकर की भूमिका) में लिखते है कि - "भारतीय संविधान के आलोचक, ख़ास तौर से आरएसएस के बुद्धिजीवी डॉ. आंबेडकर को संविधान का लेखक नहीं मानते। इसके दो कारण हो सकते हैं। एक तो यह कि यह उनके विश्वास में नहीं है कि कोई दलित जाति का व्यक्ति इतना विद्वान हो सकता है कि वह संविधान लिख ले। दूसरा कारण यह है कि वे संविधान के निर्माण की प्रक्रिया को जानना नहीं चाहते।" सुभाष काश्यप के शब्दों में, “डॉ. आंबेडकर ने मूल अधिकारों से संबंधित संविधान के भाग 3 को सर्वाधिक आलोचित भाग कहा था। इस पर 38 दिनों तक चर्चा हुई। उपसमिति में 11 दिन तक, सलाहकार समिति में 2 दिन तक और संविधान सभा में 25 दिनों तक विचार विमर्श हुआ।” बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर ने भारत का संविधान लिखकर देश के विकास, अखंडता और एकता को बनाए रखने में विशेष योगदान दिया और सभी नागरिकों को मौलिक अधिकार और न्याय की गारंटी दी। कानून के समक्ष सभी नागरिकों की समानता के सिद्धांत के साथ-साथ एक व्यक्ति, एक राय और एक मूल्य भारतीय संविधान की पहचान बन गई है। श्री सुरेश चंद्र मजूमदार : (पश्चिम बंगाल : जनरल)का वक्तव्य - "मैं डॉ. अंबेडकर और इस सदन में मेरे वरिष्ठ सदस्यों तथा सहयोगियों को एक महान, कठिन और ऐतिहासिक कार्य के सफल निष्पादन के लिए सादर बधाई देता हूँ।" संविधान के प्रथम वाचन के अवसर पर बाबासाहेब ने कहा था, "कोई संविधान संपूर्ण नहीं है। संविधान जैसा कि मसौदा समिति ने बनाया है, इस देश में शुरुआत करने के लिए काफी उपयुक्त है। मेरे विचार में यह काम चलाने लायक है। युद्ध और शांति दोनों अवसरों में यह देश को एक साथ रखने के लिए काफी सुदृढ़ है। वास्तव में यदि मैं यह कहूं कि नए संविधान में परिस्थितियां बिगड़ें तो कारण यह नहीं होगा कि हमारा संविधान बुरा है बल्कि हमें यह कहना पड़ेगा कि आदमी (इसे लागू करने वाला) ही दुष्ट था।" 5 नवंबर 1948 को मसौदा समिति के सदस्य टी.टी. कृष्णमाचारी ने संविधान सभा में अपने भाषण में कहा था- "शायद सदन यह जानता है कि आपने संविधान का प्रारूप तैयार करने के लिए जो सात सदस्य नियुक्त किए थे, उनमें से एक ने त्यागपत्र दे दिया, उसका स्थान रिक्त रहा, एक सदस्य का निधन हो गया, उसका स्थान भी रिक्त रहा, एक अमेरिका चला गया, उसका स्थान भी रिक्त रहा, एक अन्य सदस्य अपने राजकीय समस्याओं से ही निवृत नहीं हुआ, उसकी भी कमी ही रही। एक या दो सदस्य दिल्ली से पर्याप्त दूर रहे और संभवतः स्वास्थ्य खराब होने के कारण वे इस काम में भाग नहीं ले सके। इस प्रकार संविधान का प्रारूप तैयार करने का सारा-का-सारा भार अंत में अकेले डॉ. आंबेडकर के कंचों पर ही आन पड़ा। मैं इनका अतिशय धन्यवादी हूं कि उन्होंने इस काम को कितने प्रशंसनीय ढंग से निभाया है।" संविधान मसौदा तैयार करने के लिए नियुक्त लेखन समिति में कई बार डॉ. आंबेडकर और उनके सचिव को ही देखा गया था। संविधान निर्माण का ऐतिहासिक कार्य डॉ. आंबेडकर ने इस तरह से पूरा कर दिखाया था। काजी सय्यद कमरुद्दीन ने कहा-आंबेडकर को भावी पीढ़ी 'भारतीय संविधान का शिल्पकार' के नाम से पुकारेगी। संविधान सभा ने 26 नवंबर 1949 को संविधान स्वीकृत किया। अपने समापन भाषण में संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने कहा- "अध्यक्ष के रूप में प्रतिदिन इस कुर्सी पर बैठे मैंने किसी दूसरे व्यक्ति की अपेक्षा ज्याद अच्छे ढंग से यह बात देखी है कि प्रारूप 'समिति और इसके सभापति डॉ. आंबेडकर ने अस्वस्थ रहते हुए भी बहुत उत्साह और लगन से काम किया है। हमने डॉ. आंबेडकर को प्रारूप समिति में लेने और इसका सभापति बनाने का जो निर्णय लिया था, हम उससे बेहतर और ज्यादा सही निर्णय ले ही नहीं सकते थे। इन्होंने न केवल अपने चुने जाने को सार्थक मनाया अपितु जो काम इन्होंने किया उसमें चार चांद लगा दिए हैं।" कोलंबिया विश्वविद्यालय ने बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर द्वारा स्वतंत्र भारत के संविधान का प्रारूप तैयार करने जैसे महान कार्य, समाज-सुधार के कार्य और मानवाधिकार के सजग प्रहरी होने की दृष्टि से उन्हें 'डॉक्टर ऑव लॉ' की मानद उपाधि से सम्मानित करने का निर्णय लिया। 5 जून 1952 को दीक्षांत समारोह संपन्न हुआ। उस दिन विश्वविद्यालय के 198वें वार्षिकोत्सव के अवसर पर 6 लोगों को 'डॉक्टर ऑव लॉ' की मानद उपाधि से सम्मानित किया गया। डॉ. आंबेडकर को यह उपाधि देते हुए कोलंबिया विश्वविद्यालय ने उन्हें संविधान-निर्माता, संसद सदस्य, राज्यसभा सदस्य भारत के अग्रणी नागरिक, महान समाज-सुधारक तथा मानवाधिकारों के सजग प्रहरी कहकर उनका सम्मान बढ़ाया। वास्तव में उन्हें यह उपाधि विश्वविद्यालय के अध्यक्ष जनरल आइजन हॉवर के हाथों मिलनी थी, पर संसदीय जिम्मेदारियों व बाद में चुनाव प्रचार उनके प्रस्थान में आड़े आ गए। ऐसा कहा गया था कि विश्वविद्यालय उनकी अनुपस्थिति में ऐसा करने से हिचक रहा था। तदनुसार डॉ. आंबेडकर ने विशाल सभा के सामने यह उपाधि ग्रहण की, जो कोलंबिया के 17 स्कूलों व कॉलेजों के 6848 स्नातकों को उपाधि ग्रहण करते हुए देखने आई थी। डॉ. आंबेडकर के साथ कनाडा के विदेशी मामलों के सचिव लेस्टर पीयरसन और प्रतिष्ठित फ्रांसीसी साहित्यिक इतिहासकार एस. डेनियल मोरनेट तथा अन्य अमेरिकी नागरिकों ने उपाधि ग्रहण की। 5 जून को दीक्षांत समारोह में उपाधि लेने के लिए 6848 स्नातक उपस्थित थे। बाबासाहेब को दी नई उपाधि में लिख गया है, "डॉ. आंबेडकर भारतीय संविधान के शिल्पकार, मंत्रिमंडल के सदस्य, राज्यसभा के सदस्य, भारतीय नागरिकों में एक प्रमुख नागरिक, एक महान समाजसुधारक और मानवीय अधिकारों के लिए संघर्षरत एक महान योद्धा हैं।" 26 मई को उपराष्ट्रपति डॉ. एस. राधाकृष्णन ने डॉ. आंबेडकर को बधाई दी, "मैं अखबार में यह पढ़कर बहुत खुश हूं कि कोलंबिया विश्वविद्यालय आपको 'डॉक्टर ऑव लॉ' की मानद उपाधि से सम्मानित कर रहा है। हमारे संविधान के बाबत आप द्वारा किए गए महान कार्य की यह समुचित मान्यता है। मेरी हार्दिक बधाई...।" डॉ. पटानकर ने कहा कि यह कितना विचित्र है कि किसी भी भारतीय विश्वविद्यालय ने आज तक डॉ. आंबेडकर को सम्मानित करने की बात नहीं सोची, जो भारत के संविधान के मुख्य शिल्पी रहे हैं। यहां तक कि मुंबई विश्वविद्यालय, जिसके वह छात्र थे, ने भी कोई कदम नहीं उठाया, बल्कि उसने तो यही उचित समझा कि उन्हें विदेशी विश्वविद्यालय द्वारा सम्मानित करने के लिए छोड़ दिया जाए। बाळासाहेब खेर ने उन्हें 'संपूर्ण भारत का नेता' कहकर सम्बोधित किया। मान्य स.का. पाटील ने कहा कि 'नेहरू, राजेंद्र प्रसाद और आजाद को उच्च श्रेणी के नेता होने के कारण उन्हें ही अभिनन्दन-पत्र देकर सम्मानित किया जा सकता है।' पर अब उन्होंने कहा, 'आंबेडकर महान समाजसेवी हैं। आंबेडकर संविधान के थोर शिल्पकार हैं, उनमें इतने गुण हैं कि वे अकेले ही केंद्रीय शासन चला सकते हैं।' मा. पाटील ने उनके दीर्घाय होने की कामना भी की थी। बम्बई के 'नेशनल स्टैंडर्ड' समाचार पत्र ने कहा कि आंबेडकर की सुधारवादी कल्पना इतनी भव्य है कि उस कल्पना से हिंदुओं के पुनर्जीवन के सभी क्षेत्र व्याप्त हैं। डॉ. आंबेडकर सिद्धांतों के लिए संघर्षरत योद्धा हैं। उनका ध्येय समाज से अन्याय दूर करने तथा दलितों का उद्धार करने के लिए प्रतिबद्ध है। संविधान शिल्पी और विधिमंत्री के रूप में वे अपने अनुयायियों के लिए विश्वास के धनी हैं।" जय भीम जय संविधान 💐💐🙏🙏
Image from Bahujan Hitaya Book Store.link: क्या कारण है कि जो लोग संविधान के निमार्ण के समय से लेकर आज तक संविधान...
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