⛳सनातन धर्मरक्षक समिति⛳
February 9, 2025 at 02:41 AM
*┈┉सनातन धर्म की जय,हिंदू ही सनातनी है┉┈*
*लेख क्र.-सधस/२०८१/माघ/शु./१२-१६९६१*
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⛳🚩🚩🛕 *जय श्रीराम* 🛕🚩🚩⛳
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🙏 *श्रीराम – जय राम – जय जय राम* 🙏
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🌞 *श्रीरामचरितमानस* 🌞
🕉️ *षष्ठ सोपान* 🕉️
☸️ *लङ्काकाण्ड*☸️
⛳ *चौपाई १ से ६, दोहा ७१*⛳
*सभय देव करुनानिधि जान्यो ।*
*श्रवन प्रजंत सरासनु तान्यो ॥*
*बिसिख निकर निसिचर मुख भरेऊ ।*
*तदपि महाबल भूमि न परेऊ ॥*
करुणानिधान भगवान् ने देवताओं को भयभीत जाना। तब उन्होंने धनुष को कान तक तानकर राक्षस के मुख को बाणों के समूह से भर दिया। तो भी वह महाबली पृथ्वी पर न गिरा ॥ १ ॥
*सरन्हि भरा मुख सन्मुख धावा ।*
*काल त्रोन सजीव जनु आवा ॥*
*तब प्रभु कोपि तीब्र सर लीन्हा।*
*धर ते भिन्न तासु सिर कीन्हा ॥*
मुख में बाण भरे हुए वह [प्रभु के] सामने दौड़ा। मानो कालरूपी सजीव तरकस ही आ रहा हो। तब प्रभु ने क्रोध करके तीक्ष्ण बाण लिया और उसके सिर को धड़ से अलग कर दिया ॥ २ ॥
*सो सिर परेउ दसानन आगें।*
*बिकल भयउ जिमि फनि मनि त्यागें ॥*
*धरनि धसइ धर धाव प्रचंडा ।*
*तब प्रभु काटि कीन्ह दुइ खंडा ॥*
वह सिर रावण के आगे जा गिरा। उसे देखकर रावण ऐसा व्याकुल हुआ जैसे मणि के छूट जाने पर सर्प। कुम्भकर्ण का प्रचण्ड धड़ दौड़ा, जिससे पृथ्वी धँसी जाती थी। तब प्रभु ने काटकर उसके दो टुकड़े कर दिये ॥ ३ ॥
*परे भूमि जिमि नभ तें भूधर ।*
*हेठ दाबि कपि भालु निसाचर ॥*
*तासु तेज प्रभु बदन समाना।*
*सुर मुनि सबहिं अचंभव माना ॥*
वानर-भालू और निशाचरों को अपने नीचे दबाते हुए वे दोनों टुकड़े पृथ्वी पर ऐसे पड़े जैसे आकाश से दो पहाड़ गिरे हों। उसका तेज प्रभु श्रीरामचन्द्रजी के मुख में समा गया। [यह देखकर] देवता और मुनि सभी ने आश्चर्य माना ॥ ४ ॥
*सुर दुंदुभीं बजावहिं हरषहिं ।*
*अस्तुति करहिं सुमन बहु बरषहिं ॥*
*करि बिनती सुर सकल सिधाए ।*
*तेही समय देवरिषि आए ॥*
देवता नगाड़े बजाते, हर्षित होते और स्तुति करते हुए बहुत से फूल बरसा रहे हैं। विनती करके सब देवता चले गये। उसी समय देवर्षि नारद आये ॥ ५ ॥
*गगनोपरि हरि गुन गन गाए।*
*रुचिर बीररस प्रभु मन भाए ॥*
*बेगि हतहु खल कहि मुनि गए।*
*राम समर महि सोभत भए॥*
आकाश के ऊपर से उन्होंने श्रीहरि के सुन्दर वीररसयुक्त गुणसमूह का गान किया, जो प्रभु के मन को बहुत ही भाया। मुनि यह कहकर चले गये कि अब दुष्ट रावण को शीघ्र मारिये। [उस समय] श्रीरामचन्द्रजी रणभूमि में आकर [अत्यन्त] सुशोभित हुए ॥ ६ ॥
*छंद -*
*संग्राम भूमि बिराज रघुपति अतुल बल कोसल धनी ।*
*श्रम बिंदु मुख राजीव लोचन अरुन तन सोनित कनी ॥*
*भुज जुगल फेरत सर सरासन भालु कपि चहु दिसि बने।*
*कह दास तुलसी कहि न सक छबि सेष जेहि आनन घने ।।*
अतुलनीय बल वाले कोसलपति श्रीरघुनाथजी रणभूमि में सुशोभित हैं। मुख पर पसीने की बूँदें हैं, कमल के समान नेत्र कुछ लाल हो रहे हैं। शरीर पर रक्त के कण हैं, दोनों हाथोंसे धनुष-बाण फिरा रहे हैं। चारों ओर रीछ वानर सुशोभित हैं। तुलसीदासजी कहते हैं कि प्रभु की इस छबि का वर्णन शेष जी भी नहीं कर सकते जिनके बहुत से (हजार) मुख हैं।
*दोहा -७१*
*निसिचर अधम मलाकर ताहि दीन्ह निज धाम ।*
*गिरिजा ते नर मंदमति जे न भजहिं श्रीराम ॥ ७१ ॥*
[शिवजी कहते हैं- ] हे गिरिजे ! कुम्भकर्ण, जो नीच राक्षस और पाप की खान था, उसे भी श्रीरामजी ने अपना परमधाम दे दिया ! अतः वे मनुष्य [निश्चय ही] मन्दबुद्धि हैं जो उन श्रीरामजी को नहीं भजते ॥ ७१ ॥
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बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥
*सूर्यदेव भगवान जी की जय*
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