⛳सनातन धर्मरक्षक समिति⛳
February 16, 2025 at 02:22 AM
*┈┉सनातन धर्म की जय,हिंदू ही सनातनी है┉┈*
*लेख क्र.-सधस/२०८१/फाल्गुन/कृ./४.-१७०३१*
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⛳🚩🚩🛕 *जय श्रीराम* 🛕🚩🚩⛳
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🙏 *श्रीराम – जय राम – जय जय राम* 🙏
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🌞 *श्रीरामचरितमानस* 🌞
🕉️ *षष्ठ सोपान* 🕉️
☸️ *लङ्काकाण्ड*☸️
⛳ *चौपाई १ से ५, दोहा ७८*⛳
*तिन्हहि ग्यान उपदेसा रावन।*
*आपुन मंद कथा सुभ पावन ॥*
*पर उपदेस कुसल बहुतेरे ।*
*जे आचरहिं ते नर न घनेरे ।।*
रावण ने उनको ज्ञान का उपदेश किया। वह स्वयं तो नीच है, पर उसकी कथा (बातें) शुभ और पवित्र है। दूसरों को उपदेश देने में तो बहुत लोग निपुण होते हैं। पर ऐसे लोग अधिक नहीं हैं जो उपदेश के अनुसार आचरण भी करते हैं ॥ १ ॥
*निसा सिरानि भयउ भिनुसारा।*
*लगे भालु कपि चारिहुँ द्वारा ॥*
*सुभट बोलाइ दसानन बोला ।*
*रन सन्मुख जा कर मन डोला ॥*
रात बीत गयी, सबेरा हुआ। रीछ वानर [फिर] चारों दरवाजों पर जा डटे। योद्धाओं को बुलाकर दशमुख रावण ने कहा- लड़ाई में शत्रु के सम्मुख जिसका मन डाँवाडोल हो, ॥ २ ॥
*सो अबहीं बरु जाउ पराई।*
*संजुग बिमुख भएँ न भलाई ॥*
*निज भुज बल मैं बयरु बढ़ावा ।*
*देहउँ उतरु जो रिपु चढ़ि आवा ॥*
अच्छा है वह अभी भाग जाय। युद्ध में जाकर विमुख होने (भागने) में भलाई नहीं है। मैंने अपनी भुजाओं के बल पर वैर बढ़ाया है। जो शत्रु चढ़ आया है, उसको मैं [अपने ही] उत्तर दे लूँगा ॥ ३ ॥
*अस कहि मरुत बेग रथ साजा ।*
*बाजे सकल जुझाऊ बाजा ॥*
*चले बीर सब अतुलित बली ।*
*जनु कज्जल कै आँधी चली ॥*
ऐसा कहकर उसने पवन के समान तेज चलने वाला रथ सजाया। सारे जुझाऊ (लड़ाई के) बाजे बजने लगे। सब अतुलनीय बलवान् वीर ऐसे चले मानो काजल की आँधी चली हो ॥४॥
*असगुन अमित होहिं तेहि काला ।*
*गनइ न भुज बल गर्ब बिसाला ॥*
उस समय असंख्य अशकुन होने लगे। पर अपनी भुजाओं के बल का बड़ा गर्व होने से रावण उन्हें गिनता नहीं है ॥ ५ ॥
*छंद*
*अति गर्ब गनइ न सगुन असगुन स्त्रवहिं आयुध हाथ ते।*
*भट गिरत रथ ते बाजि गज चिक्करत भाजहिं साथ ते ॥*
*गोमाय गीध कराल खर रव स्वान बोलहिं अति घने।*
*जनु कालदूत उलूक बोलहिं बचन परम भयावने ॥*
अत्यन्त गर्व के कारण वह शकुन-अशकुन का विचार नहीं करता। हथियार हाथों से गिर रहे हैं। योद्धा रथ से गिर पड़ते हैं। घोड़े, हाथी साथ छोड़कर चिग्घाड़ते हुए भाग जाते हैं। स्यार, गीध, कौए और गदहे शब्द कर रहे हैं। बहुत अधिक कुत्ते बोल रहे हैं। उल्लू ऐसे अत्यन्त भयानक शब्द कर रहे हैं, मानो काल के दूत हों (मृत्यु का संदेशा सुना रहे हों)।
*दोहा- ७८*
*ताहि कि संपति सगुन सुभ सपनेहुँ मन बिश्राम।*
*भूत द्रोह रत मोहबस राम बिमुख रति काम ॥ ७८ ॥*
जो जीवों के द्रोह में रत है, मोह के वश हो रहा है, रामविमुख है और कामासक्त है, उसको क्या कभी स्वप्न में भी सम्पत्ति, शुभ शकुन और चित्त की शान्ति हो सकती है ? ॥ ७८ ॥
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काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धि यजन्त इह देवताः ।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ॥
*भगवान सूर्यदेव जी की जय*
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