दैनिक सुविचार 🌺🏵️😊🙋‍♂️
February 14, 2025 at 01:55 AM
14.2.2025 *"वेदों में मनुष्य जीवन को अच्छे ढंग से जीने के लिए और जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए चार आश्रमों का विधान किया गया है। ब्रह्मचर्य गृहस्थ वानप्रस्थ और संन्यास।"* सब आश्रमों के अपने-अपने कर्तव्य ईश्वर ने वेदों में बताए हैं। *"ऋषियों ने वेदों को बहुत गंभीरता से पढ़कर सब आश्रमों के कर्तव्य विस्तार से अपने ग्रंथों में प्रस्तुत किए हैं। महर्षि दयानन्द सरस्वती जी द्वारा लिखित सत्यार्थ प्रकाश में देखना चाहें, तो हिंदी भाषा में भी आपको पढ़ने को मिलेंगे।"* *"प्राचीन काल में जब वैदिक व्यवस्था थी, राजा प्रजा आदि सब लोग वेदों के अनुसार ही सब कार्य करते थे। तब बहुत से लोग इन चारों आश्रमों के कर्तव्यों का पालन करते थे। और बहुत सुखपूर्वक जीवन जीते थे।"* *"अब महाभारत का युद्ध होने के पश्चात वैसी व्यवस्था नहीं रही। वेदों का पठन-पाठन छूट गया। राजा और प्रजा प्रायः वेदों से विमुख हो गए। अनेक प्रकार के संप्रदाय अंधविश्वास और पाखंड प्रचलित हो गए। इसलिए आज मनुष्य जाति भटक रही है। उसे सही लक्ष्य का पता नहीं। सही मार्ग का भी पता नहीं।"* *"यदि वेदों को फिर से पठन-पाठन में लाया जावे, राजा और प्रजा वेदों के अनुसार अपना जीवन आचरण बनाएं, तो वही प्राचीन व्यवस्था फिर से बनाई जा सकती है। इसके बिना सुख प्राप्ति का कोई उपाय नहीं है।"* *"प्राचीन काल में ब्रह्मचर्य आश्रम में विद्यार्थी गुरुकुल में जाकर विद्या पढ़ता था, तपस्या करता था। गुरुकुल से लौटकर फिर विधिवत गुण कर्म स्वभाव मिलाकर योग्य विदुषी गुणवती कन्या के साथ उसका विवाह होता था। और तब गृहस्थ आश्रम आरंभ होता था।"* *"आजकल विद्यार्थी स्कूल कॉलेज में पढ़ते हैं। पढ़कर विवाह के समय अब गुण कर्म स्वभाव प्रायः नहीं मिलाए जाते। और जो मन में आता है, सो ही उल्टा सीधा आचरण गृहस्थ आश्रम में लोग करते हैं।"* उन्हें पता ही नहीं है, कि *"गृहस्थ आश्रम का उद्देश्य क्या है? उसमें क्या-क्या काम करने आवश्यक होते हैं?"* इसी प्रकार से जीवन का तीसरा और चौथा भाग वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रम तो लगभग लुप्त ही हो चुका है। कोई कोई व्यक्ति वानप्रस्थी बनता है, और उनमें से भी कोई-कोई संन्यासी बनता है। *"अब तो चारों आश्रम ही अपने कर्तव्य से विमुख हैं। कोई कोई अपवाद रूप व्यक्ति ही मिलते हैं, जो अपने-अपने आश्रमों के नियमों का पूरी श्रद्धा और निष्ठा से पालन करते हैं।"* *"तो गृहस्थ आश्रम में जो माता-पिता बच्चों को उत्तम संस्कार देकर एक आदर्श ईश्वरभक्त देशभक्त नागरिक और उत्तम संतान बनाते हैं, उनका गृहस्थ जीवन सफल हो जाता है। वह संतान भी माता-पिता और गुरुजनों के आदेश निर्देश का पालन करता है, तब वह स्वयं भी सुखी होता है और दूसरों को भी सुख देता है।"* ऐसी स्थिति में वे गृहस्थ लोग कहते हैं, कि *"हे ईश्वर! आपका बहुत धन्यवाद और आभार है, कि आपने हमें एक उत्तम सुसंस्कारी संतान दी। आप ऐसी ही संतान सबको देवें।" "जो गृहस्थ व्यक्ति भगवान से इस प्रकार से प्रार्थना करता है, तो समझ लीजिए कि उसी का गृहस्थ जीवन सफल है।"* इसके विपरीत जो लोग ऐसा कहते हैं, कि *"हे भगवान्! न जाने कौन से जन्म के पापों का दंड भोगने के लिए हमें ऐसी निकम्मी संतान प्राप्त हुई है।"* तो समझ लीजिए, कि *"उनका गृहस्थ जीवन असफल है। उनके पूर्व कर्म भी खराब रहे हैं और वर्तमान के भी। इसलिए ईश्वर ने उन्हें अच्छी संतान नहीं दी। और अब वह संतान और उसके माता-पिता तीनों मिलकर दुख भोग रहे हैं।"* *"इसलिए यदि आप गृहस्थ आश्रम में हों, तो अपने कर्तव्य का पालन करें। पंचमहायज्ञों का अनुष्ठान करें। अपनी संतानों को उत्तम संस्कार देकर एक अच्छा ईश्वरभक्त देशभक्त नागरिक तैयार करें, जो अपने लिए और सबके लिए सुखदायक हो। तभी आपका गृहस्थ जीवन सफल माना जाएगा, अन्यथा नहीं।"* ---- *"स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक, निदेशक - दर्शन योग महाविद्यालय, रोजड़, गुजरात."*
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