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February 1, 2025 at 04:50 AM
कांशी_का_रहस्य
कांशी को महादेव की नगरी माना जाता है यह भी भी प्रचलित है कि जो कांशी मे मृत्यु को प्राप्त होता है वह स्वर्ग मे वास करता है ।
तंत्र मे कांशी का अर्थ यह कि रात रेखा ही है नाक के बिन्दू से चन्द्रमा तक जाने वाली मध्य रेखा ।यह शिव के त्रिशुल का मध्य शुल्क है । इसलिए कहते है कि प्रलय से समय कांशी को महादेव अपने त्रिशुल पर उठा लेते है।
तंत्र मे इसी कांशी मे ध्यान को लगाकर आरे की तरह चला कर यह साधना की जाती है जब चन्द्रमा से दोनो ओर नीचे तक नासिका गर्दन की हड्डी का उपरी बिन्दु पर पूर्ण मानसिक घर्षण से खुल जाता है यह कुण्ड का अर्थ चन्द्रमा का गडढा है
इससे जो चमत्कारिक शक्तियाँ प्राप्त होती है यह अवर्णनीय है इसके साथ ही अन्तर्दृष्टि बढ़ती है अन्तर्गतज्ञान बढता है परमात्मा की अनुभूति होती है जिससे परमानन्द की प्राप्ति होती है यही कि रात साधना कहलाती है ।
यह भी तंत्र विधा की एक अत्यन्त गोपनीय सिद्धि है इसकी महिमा भी ब्रह्म एवं मुक्ति की प्राप्ति से सन्दर्भ मे है । वैसे इससे अतीन्द्रीय अनुभूतिया भविष्य दर्शन सम्मोहन तेज प्रभा औरा वृद्धि भाव फलित आदि चमत्कारिक शक्तियाँ प्राप्त होती है ।
जीवन शक्ति बढ़ जाती है । सम्भवतः नवयौवन और कायाकल्प की विधियों मे भी इनका महत्व है। परन्तु जिस अमृत तत्त्व, मूल तत्त्व, परमात्मा तत्त्व, की प्राप्ति इससे होती है। उससे सभी कुछ सम्भव है, असम्भव भी सम्भव हो सकता है कारण यह है कि इस ब्रह्माण्ड मे जितने गुणों का प्रत्यक्ष हो रहा है भूतकाल मे हो रहा था या भविष्य मे होने वाला होगा सब इसी तत्त्व से उत्पन्न होता है। यह विलक्षण तत्त्व स्वयं ही परिपथ बनाता है स्वयं ही उसके मध्य नाभिक उत्पन्न करता है और इस प्रज्वलित परमाणु को पम्प करता हुआ ब्रह्माण्ड बना देता है। एक रात साधना भी इसी तत्त्व की साधना है और इसका ध्यान बिन्दू वही है जो कपाल सिद्धि का है कपाल सिद्धि भी इसी को प्राप्त करने की साधना है
मन ईश्वर की एक ऐसी विशिष्ट रचना है जिसका प्रभुत्व इस सृष्टि मे सर्वाधिक है। समष्टि मन का संकल्प ही समस्त सृष्टि की रचना करता है तथा व्यष्टि मन मनुष्य की समस्त गतिविधियों का संचालक बन जाता है । मनुष्य इसका सदुपयोग करके उसे ईश्वर प्राप्ति व मोक्ष का साधन भी बना सकता है तथा दुरूपयोग कर वह नरकगामी भावना सकता है । मन ही जन्म एवं पुनर्जन्म का कारण बनता है। इसका विकास ही मनुष्य ही मनुष्य का विकास है तथा इसका पतन ही मनुष्य का पतन है मनुष्य जीवन की समस्त समस्याएँ मन की उपज है तथा इनका समाधान भी वही कर सकता है मन ही संसार का अनुभव करता है तथा ईश्वर की अनुभूति भी इसी को होत है। यही अच्छे बुरे मे भेद करता है संसार व ईश्वर मे भेद करता है जीव जीव मे भेद करता है आत्मा आत्मा मे भेद करता है मनुष्य मनुष्य मे भेद करता है ।जाति, धर्म, सम्प्रदाय, भाषा, आदि के कारण मनुष्य मे भेद उत्पन्न करता है। विभेद उत्पन्न करना इसी का कार्य एवं सभाव है संकल्प विकल्प इसी की उपज है। यह किसी एक विचार पर दृढ़ रहता ही नही। निरंतर एक डाली से दुसरी डाली पर बन्दर की तरह छलागें लगाता रहता है। जिससे मनुष्य का कोई भी कार्य व्यवस्थित रूप से नही हो पाता ।
यह आत्मा और शरीर के मध्य का एक ऐसी सेतु है जिसको पार किये बिना मनुष्य को शाश्वत सुख नही मिल सकता परमानन्द की अनुभूति नही हो सकती। यह यधपि आत्मा का सेवक है किन्तु शरीर का स्वामी । शरीर की समस्त क्रियाओं का संचालन इसी की आज्ञा से होता है। सुख दुख की अनुभूति भी इसी को होती है स्वर्ग नरक की अनुभूति भी इसी को होती है। मनुष्य के अधिकांश रोगों की उत्पति भी इसी से होती है शांति, संतोष, घृणा, वैमनस्य, युद्ध, ईर्ष्या, द्वेष, कलह, उपद्रव, वासना, इच्छाएं , आकांक्षाएँ , मुढताएँ, आदि इसी की उपज है यही पहले उपद्रव करता है और फिर शांति का सन्देश देने बैठता है मनुष्य के समस्त विकारो का कारणा केवन मन है यदि इसे नियंत्रण मे न रखा जाए तो यह पुरा शैतान बन जाता है हिटलर व चंगेज बन जाता है तथा इस पर नियंत्रण कर लेने पर यही बुद्ध, रामकृष्ण बन जाता है । इसका उपद्रव ही सृष्टि का उपद्रव है मन मे उपद्रव पैदा होने पर ही बहार उपद्रव करता है दुनिया मे मोह, माया, आशा, तृष्णा, निराशा, दुर्बलता, हीनता, महानता, सब इसी की है
नाभि का कम्पन उस समय बढ़ जाता है जिस समय मनुष्य भयभीत होता है, अचानक डर जाता है, अचानक कोई संकट सामने आ जाता है, अचानक मृत्यु की आशंका उपस्थिति हो जाती है, किसी दुर्घटना का आभास लग जाता है। उस समय सबसे पहले नाभि के स्थान पर 'धक्' की ध्वनि के साथ कम्पन बढ़ जाता है। मनुष्य के डर का, भय का, वासना का स्थान नाभि ही है। अतः नाभि के कम्पन बढ़ जाने से हृदय का भी संचालन तेज होने लगता है। दिल धक्- धक् कर तेज-तेज धड़कने लगता है और उसी के साथ मनुष्य का मस्तिष्क भी प्रभावित हो जाता है। कभी-कभी तो मस्तिष्क का सन्तुलन भी बिगड़ जाता है। यदि वह इस समय किसी वाहन को चला रहा है तो दुर्घटना की आशंका बढ़ जायेगी। इसके कारण के पीछे है नाभि का अधिक कम्पन। जैसे मस्तिष्क और हृदय को स्वच्छ, निर्मल और विकसित करने के लिए ध्यान आवश्यक है, इसी प्रकार नाभि को विकसित करने के लिए और उसके द्वारा अधिक से अधिक आत्मचेतना ग्रहण करने के लिए भी साधन है और वह साधन है सभी प्रकार के भय से मुक्ति अर्थात् अभय की साधना। मनुष्य जितनी अभय की साधना करेगा, उतना ही वह भय से मुक्त होता जायेगा, और उतनी ही उसकी नाभि विकसित होती जायेगी। जितनी उसकी नाभि विकसित होगी, उतना ही वह गहराई में प्रवेश करता जायेगा और उतना ही वह आत्मचेतना को भी होगा उपलब्ध।
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