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February 4, 2025 at 06:39 AM
#पुर्णत्व_का_ज्ञान सुषुम्ना और कुण्डलिनी का निकट का सम्बन्ध होता है। एक अर्थ में इसे अभिन्न सम्बन्ध भी कह सकते हैं। इच्छा-ज्ञान-क्रिया--ये तीनों शक्तियां एकत्र होने पर "त्रिशक्तिता" या "त्रिधारा" कहलाती है। यही पराशक्ति है, यही महादेवी है। यह अनादिकाल से मूलाधार चक्र में स्वयंभू लिंग से लिपट कर सो रही है और जब यह जाग उठती है तो यही सहस्त्रार में पहुंचकर वहां स्थित दूसरे लिंग को अपने आलिंगन पाश में बांध लेती है। यही शिव-शक्ति का महामिलन है। जननेन्द्रिय के मूल में नाड़ियों का एक गुच्छा होता है जिसे योग में 'कंद' कहते हैं। इसी पर कुण्डलिनी अपनी सेज बिछाकर प्रगाढ़ निद्रा में युग-युगान्तर से सो रही है और अविद्या का मूल बनी रहती है। मूलाधार चक्र में चतुर्दल कमल है। इसके ऊपर स्वाधिष्ठान चक्र है। यह षटदल कमल है। मूलाधार चक्र में पृथ्वी तत्व तथा स्वाधिष्ठान चक्र में जल तत्व है। नाभि प्रदेश में मणिपूरक चक्र है। यहाँ दशदल कमल है। इसके ऊपर शब्दब्रह्म का अनाहत चक्र है। इसमें द्वादस दल कमल है। इसके ऊपर है--विशुद्ध चक्र। यह षोडस दल कमल है। मणिपूरक में अग्नितत्व, अनाहत में वायु तत्व तथा विशुद्ध चक्र में आकाश तत्व है। इसके परे आज्ञाचक्र है। आज्ञाचक्र में गुरु की आज्ञा से साधक घुस-पैठ कर सकता है। यह चक्र गुरुगम्य है। यह द्विदल कमल है। यहाँ वज्रकपाट लगे हुए हैं। यहाँ रोधिनी शक्ति एक दुर्गम दीवार की तरह खड़ी है। इसके ऊपर सहस्त्रार चक्र है। यह सहस्त्रदल कमल है। यहाँ पर ही ब्रह्मरंध्र है। युगों-युगों से सोई हुई कुण्डलिनी मूलाधार चक्र में अपान वायु से एक जबरदस्त टक्कर लेने के बाद कुपित होकर जाग जाती है और अपने मुख को ऊपर उठाती है जिससे सुषुम्ना के खुले हुए मुख में उसका प्रवेश हो जाता है। फिर वह एक एक कर् चक्र-भेदन करती हुई आज्ञाचक्र में पहुंचकर आगे बढ़ती है जहाँ उसे सहस्त्रार के द्वार खुले मिलते हैं। यहीं पराशक्ति कुण्डलिनी सदाशिव के साथ सामरस्य मिलन करती हैं और फिर तदाकार हो जाती है। यही अद्वैतावस्था है। इसी को जीव-ब्रह्म का मिलन भी कहते है। और ध्यान-साधना के बारे में व्यावहारिक जानकारी करने के लिए आग्रह करते हैं और इस दिशा में मार्गदर्शन भी मांगते रहते हैं। कभी-कभी तो वे पीछे पड़कर इतनी जिद करते हैं कि परेशान होकर मुझे face book बन्द कर् चुपचाप बैठ जाना पडता है क्योंकि लाख समझाने पर भी उन्हें समझाना मुश्किल हो जाता है। आज के समय में हर कोई कुण्डलिनी जागरण के पीछे ऐसे भागता फिर रहा है कि उसे तुरन्त कोई ऐसा नुस्खा दे देगा कि उसे शीघ्र ही कुछ ही दिनों में सफलता मिल जायेगी। उन्हें मालूम होना चाहिए कि लाखों-करोड़ों में कोई विरला साधक ही होता है जो कुंडलिनी जागृत करने में सफल हो पाता है। तो आइए हम लोग कुण्डलिनी के विषय में कुछ आधारभूत बातें जानें और उसके प्रयास में आसन, बन्ध और मुद्रा की उपयोगिता के बारे में चर्चा करें। वैसे उस पराशक्ति के प्रति पूर्ण समर्पित भाव से जो व्यक्ति अपने दृढ़ संकल्प के साथ जो साधना करना शुरू करता है, पुरुषार्थ करता है, उसकी सहायता स्वयम् पराशक्ति करती रहती है। परंतु एक बात जो सबसे महत्वपूर्ण और साधक के लिए जानने योग्य है, वह है--गुरु में सच्ची और पूर्ण श्रद्धा और आस्था। बिना इसके वह एक पग भी आगे नहीं बढ़ सकता। जैसे-जैसे साधना आगे बढ़ती है तो गुरु प्रदत्त मन्त्र जाग्रत होकर सब कुछ संचालित करने लग जाता है और सारे बन्ध और मुद्राएं खुद ब् खुद लगना आरम्भ हो जाते हैं। इस स्थिति में सद्गुरु का मार्गदर्शन और इष्ट का रक्षण ही साधना पथ को आगे बढ़ाता रहता है। केवल मन में यह भाव जगाना आवश्यक है कि मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूँ, जो कुछ हो रहा है सब गुरु और इष्ट की कृपा से ही हो रहा है।) कुण्डलिनी के जागरण के क्रम में आसन और मुद्राओं का अपना महत्व होता है। आसन और मुद्राओं के सहयोग से जहाँ एक ओर कुण्डलिनी जागरण ? के प्रयास में अपेक्षाकृत शीघ्र लाभ मिलता है, वहीँ दूसरी ओर प्राणायाम, ध्यान-साधना से शरीर में उत्पन्न विद्युत् ऊर्जा के व्यर्थ क्षय को रोका जा सकता है। हमारे शरीर की ऊर्जा के जितने भी केंद्र हैं, वे सब के सब रीढ़ के हड्डी से जुड़े हैं और ऊर्जाक्षय जो होता है वह पृथ्वी की ऊर्जा के कारण होता है। इसलिए ध्यान-साधना के समय उचित आसन और मुद्रा का विशेष् ध्यान रखा जाता है ताकि अधिक से अधिक रीढ़ की हड्डी सीधी रहे। इस स्थति में सबसे अधिक ऊर्जा-क्षय को रोका जा सकता है। आसनों में सबसे महत्वपूर्ण आसन है--वज्रासन। कुण्डलिनी जागरण में साधक की अपान वायु की सबसे अधिक भूमिका होती है। पिण्डली जांघ से मिलाकर पैर के तलवे इस प्रकार टेढ़े करने चाहिए कि वे ऊपर की ओर हो जाएं और दाएं पैर की एड़ी से गुदास्थान में सटा कर उसका दबाव गुदा और लिंगमूल के बीच के सीवन पर डालना चाहिए और उसे दबाए रखना चाहये। ध्यान रहे सारे शरीर का भार उसी एक एड़ी पर पड़ता रहे। फिर पीठ के नीचे वाला भाग ऐसे हल्केपन से उठाना चाहये जिसमें यह पता न चले कि ऊपर का शरीर उठाया गया है या नहीं। ऐसा करने से सारे शरीर का भार एड़ी पर आयेगा। इसी को 'मूलबन्ध' कहते हैं और इसी को कहते हैं--'वज्रासन'। इस आसन से जब हम मूलाधार पर सारे शरीर पर वजन डालते हैं तो नीचे का पूरा शरीर दबता है और तब आंतों में संचार करने वाली अपान वायु उलटे भीतर की ओर हटने लगती है। इस समय ऊपर की पलकें बन्द तथा नीचे की पलकें खुली रहती हैं। दृष्टि अर्धनिमीलित-सी नाक के अग्रभाग पर स्थिर हो जाती है। सिर दबकर नीचे बैठ जाता है और ठोड़ी गले के नीचे गड्ढे में बैठ जाती है और सिर अच्छी तरह छाती से सट जाता है। इस प्रकार के बन्ध को 'जालन्धर बन्ध' कहते हैं। नाभि ऊपर उठ जाती है और पेट अन्दर धंस कर सपाट हो जाता है। ह्रदयकोष विस्तृत हो जाता है। इस प्रकार की मुद्रा से वह आधार ही नष्ट हो जाता है जिसमें चित्तवृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं। कल्पना बेकाम हो जाती है और प्रवृत्ति शान्त हो जाती है। वज्रासन के कारण पूरी तरह बन्ध जाने के कारण अपान वायु नीचे और बाहर के वजाय भीतर और ऊपर की ओर चल पड़ती है। दबाव पड़ने के कारण अपान वायु फूलने लगती है। फिर वह कुपित फिर उन्मत्त होकर उसी बन्द जगह में गड़गड़ाने लगती है। और नाभिस्थित मणिपूरक चक्र को बीच-बीच में धक्के देने लगती है। इसके बाद जब इसका वेग शान्त होता तब वह सारा शरीर ढूंढ डालती है और बाल्यावस्था से लेकर जितना मल आँतों में जमा है, उसे बाहर निकालने का उद्यम करने लगती है। ऐसा लगता है कि अपान वायु की यह तीव्र लहर शरीर के भीतर तो समा ही नहीं सकती। इसलिए वह कोष्ठों में घुस कर कफ और पित्त को अपने आधार स्थल से निकाल देती है, रूधिर, मांस और हड्डी के भीतर मज्जा तक में हलचल मचा देती है और सारे शरीर को शिथिल कर डालती है। इस प्रकार यह अपान वायु नौसिखये साधक को भयभीत कर डालती है। बहुत से लोग अपान वायु के इसी उपद्रव को जाने क्या-क्या समझने लगते हैं। कहने लगते हैं कि मेरी कुण्डलिनी जाग गयी है। अब ऊपर को उठ रही है और मणिपुर में धक्के मार रही है। उन्हें क्या पता कि कुण्डलिनी जागरण इतना आसान और भौतिक प्रयासों से संभव नहीं। इसके लिए उन्हें अपने मन और आत्मा से शुद्ध होकर तैयार होना पड़ेगा और उस पराशक्ति के प्रति समर्पित होना होगा।
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