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February 8, 2025 at 01:27 AM
#पुनर्जन्म सांसारिक भोगों की वासना ही जीव के पुनर्जन्म का मुख्य कारण है वासना रहित होने पर मन का पुनर्जन्म नही होता है, अतृप्त इच्छाएँ ही वासना का रूप लेती है।पुनर्जन्म का दुसरा कारण जीव की चेतना का विकास है, एक जन्म मे जीव चेतना का पूर्ण विकास संभव नही है ।जिसमे ईश्वरीय विधान के अनुसार सृष्टा ने कई जन्मों की व्सवस्था की है । जिस प्रकार एक ही वर्ष एक ही कक्षा मे पढ़ लेने मात्र से कोई उच्चकोटि का विद्वान नही बन जाता उस् कई कक्षाएँ उत्तीर्ण करनी पडती है । उसी प्रकार यह जीव चेतना भी कई जन्म धारण करके ही उनके संचित अनुभवों के आधार पर दिव्य जीवन एवं मोक्ष प्राप्त करती है। इसलिए ईश्वर ने ही इसकी व्यवस्था की है । बार बार जन्म लेने की प्रक्रिया उसके विकास के लिए अनिवार्य है उच्च स्तरीय चेतना ही वासना रहित होकर मुक्ति का अनुभव करती है । पुनर्जन्म का तीसरा कारण कर्मफल भोग भी है सृष्टि का ऐसा विधान है। कि सभी कर्मों का फल होता है जिनको भोगना आवश्यक है स्थूल कर्मों का भोग स्थूल शरीर से व स्थूल लोक मे ही भोगा जा सकता है इस भोग के लिए जीव चेतना का पुनर्जन्म होता है। कर्म का नियम ही ऐसा है कि वे बिना भोगे समाप्त नही होते न जीव चेतना का विकास ही होता है इसी के लिए बार बार जन्म लेना पडता है। #मन-मृत्यु के बाद मन स्थुल शरीर के कारण मन की शक्ति एवं उसकी कार्य क्षमता मे कमी आ जाती है। अनेक प्रकार की वासनाओं, कामनाओं, इच्छाओं, आदि से ग्रस्त होकर सांसारिं मोह, ममता ईर्ष्या द्वेष कलह लोभ लालच आसक्ति राग शरीर पोषण अहंकार तृप्ति आदि मे इतना उलझ जाता है । जिससे उसकी शक्ति कई मार्गों मे व्यय हो जाती है। किन्तु मृत्यु के बाद यह सारा अपक्षय बच जाता है जिससे वह अधिक शक्तिशाली हो जाया है तथा उसकी कार्य क्षमता कई गुना बढ जाती है, मृत्यु के बाद यह मन जीवित रहकर विभिन्न प्रकार के कार्यो का सम्पादन करता रहता है । तथा कई प्रकार के नये अनुभव भी प्राप्त करता रहता है जो सांसारिक अनुभवों से भिन्न प्रकार के होते है। यही मन अपने स्तर के अनुसार विभिन्न लोको का भ्रमण करता है सुख दुखों का अनुभव करता है स्वर्ग नकर की अनुभूति भी यही करता है सुक्ष्म जगत् के विभिन्न प्रकार के प्राणियो के संपर्क मे आता है उनसे अपने नये सम्बन्ध बनाता है कई पूराने साथी व प्रिय जनों के साथ भी उसका संपर्क हो जाता है। इस प्रकार यहॉ भी यह काफी व्यस्त रहता है । यदि कोई स्थूल लोकवासी इससे संपर्क कर वहां साधता है तो वह यहाँ भी उपस्थित होकर इनसे संपर्क कर वहां का विवरण देता है, तथा इनकी हर सहायता करने को तैयार रहता है किसी के द्वारा आह्वान किये जाने पर यह किसी माध्यम मे प्रविष्ट होकर प्रश्नो के उत्तर देता है किन्तु माध्यम ऐसा होना चाहिए जो मानसिक स्तर के अनुकूल हो अथवा उसका रक्त संबन्ध हो उच्चमानसिक स्तर की आत्माएँ निम्न मानसिक स्तर वाले व्यक्ति मे प्रविष्ट नही हो सकती न निकृष्ट स्तर की आत्माएँ उच्च मानसिक स्तर वाले व्यक्ति मे प्रविष्ट होती है। आह्वान के लिए तन्त्र व प्रार्थना एवं एकाग्रता का प्रयोग किया जाता है। जो आत्माएँ सांसारिक वासनाओं से अधिक ग्रस्त होती है उनका भौतिक शरीर न होने से वे उन वासनाओं की पूर्ति नही कर सकती इसलिए वे उनकी पूर्ति के लिए किसी उपयुक्त शरीर के माध्यम की तलाश मे भी रहती है। जिससे वह उस शरीर के द्वारा उनका भोग कर सकें ऐसी आत्माएँ किसी उपयुक्त शरीर पर जबरदस्ती अपना अधिकार जमा लेती है । तथा जब तक उन्हें संतुष्ट नही कर दिया जाता तब तक उनकी पीछा नही छोडती कुछ तांत्रिक साधनाएँ है। जिनसे किसी प्रेतात्मा को प्रलोभन आदि देकर उन्हे अपने वश मे किया जाता है तथा इनसे इच्छित कार्य भी कराया जा सकता है। कई तांत्रिक इन आत्माओं की सहायता से विभिन्न प्रकार के चमत्कार भी दिखाते रहते है मन का अर्थ है--मनन, चिन्तन, विचार जो दिखलायी दे। उसके साथ चिन्तन की धारा को जोड़ दे। इसे हम इस प्रकार से समझ सकते हैं। हम एक फूल देखते हैं। जब तक देखते हैं तब तक हमारे मन से फूल का सम्बन्ध नहीं है। लेकिन जैसे ही हम कहते हैं --फूल बहुत ही सुन्दर है, सुगंधमय है--उसी पल मन से फूल का सम्बन्ध जुड़ जाता है तथा हमारे और फूल के बीच अस्तित्व अनिवार्य हो जाता है। इसी प्रकार जब हम कहते हैं कि फूल बेकार है, उसमें सुगन्ध तो है ही नहीं--तब भी मन हमारे और फूल के बीच आ जाता है। कहने का मतलब यह है कि अच्छे और बुरे दोनों ही स्थितियों में मन की उपस्थिति अनिवार्य है। फूल के बारे में अच्छी और बुरी धारणा यदि कोई बनाता है तो वह है--मन। हम मन के अधीन हो जाते हैं। मन विचार, भाव, शब्द आदि को आविर्भूत करने वाला एक यंत्र है। वह इन सबका मूल स्रोत हैै मनुष्य अ-मन की अवस्था में दो प्रकार से हो सकता है। पहली है--गहन बेहोशी की अवस्था और दूसरी है--समाधि की अवस्था। पहली अवस्था में आत्मा के नीचे चला जाता है मन। समाधि की अवस्था में मन अपने केंद्र के अन्तराल में समाहित हो जाता है और आत्मा मन से रहित होकर सूक्ष्म जगत और लोक-लोकान्तरों में भ्रमण करने के लिए तत्पर हो जाती है। पहली बार आत्मा इस जीवन और जगत को बिना मन के माध्यम से देखती है और इसके वास्तविक स्वरूप का दिग्दर्शन करती है।
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