Shrinathji nitya darshan
Shrinathji nitya darshan
February 25, 2025 at 04:36 PM
व्रज - फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी Wednesday, 26 February 2025 महा शिवरात्रि पुष्टिमार्ग में भगवान श्री शंकरजी को सदा अन्याश्रय की दृष्टि से ही देखा जाता है. इस विषय पर मेरे लघु ज्ञान और पिछले दिनों पढ़े एक ज्ञानवर्धक लेख को थोडा परिवर्तन कर इस विषय पर वैष्णवों के संशय को कुछ दूर करने का प्रयास कर रहा हूँ. थोडा समय देकर पोस्ट को पूरा पढ़ें. प्रभु श्री गोवर्धनधरण ने सभी देवी-देवताओं को मान दिया है. श्री नाथद्वारा नगर की आठों दिशाओं में स्थित भगवान शंकर, हनुमानजी, दुर्गा माँ, कालिका माँ और भगवान भैरव के स्थानों (मंदिरों) पर समय-समय पर श्रीजी मंदिर से भोग सामग्री भेजी जाती है. ऐसा कहा जाता है कि ये चमत्कारी देवी-देवता श्रीजी के साथ व्रज से पधारे थे और इनके स्थानों (मंदिरों) की स्थापना दुरात्माओं से श्रीजी मंदिर की सुरक्षा के लिए की गयी थी. यह तो हुई बात अन्य देवी-देवताओं की... आज प्रसंग शिवरात्रि का है अतः आज भगवान शंकर की बात करें. पुष्टिमार्ग में भगवान शंकर को परम वैष्णव माना गया है. प्रभु श्रीकृष्ण के बाल्यकाल और किशोरावस्था के कई प्रसंगों में भगवान शंकर का उल्लेख होता है. कुशग्रहणी अमावस्या के दिन कई पुष्टिमार्गीय मंदिरों में 'जोगीलीला' होती है जो कि भगवान व भक्त को ही समर्पित होती है. भगवान शंकर प्रभु के परम भक्त और सदैव प्रभु दर्शन को लालायित रहते हैं तो हमारे लाला भी भगवान शंकर को दर्शन देकर प्रसन्न होते आये हैं. नाथद्वारा में श्रीजी मंदिर के उत्तरी द्वार प्रीतमपोल के बाहर वाले मार्ग पर थोड़ा आगे जाने पर पहले महादेवजी की घाटी एवं घाटी से नीचे उतरने पर छावनी दरवाज़ा आता है. उसी मार्ग पर बायीं ओर छावनी दरवाजा से लगा हुआ बूढ़ा महादेवजी का प्राचीन मंदिर है. प्राचीन परम्परानुसार प्रतिदिन जब प्रभु श्रीजी राजभोग आरोग लें तब माला बोलती है. माला बोलने का अर्थ यह है कि श्रीजी मंदिर का पातलमांज्या (एक सेवक) महादेवजी की घाटी के ऊपर खड़ा होकर उक्त मंदिर में विराजित बूढ़ा महादेवजी को जोर से आवाज लगाकर आमंत्रित करता है कि श्रीजी ने राजभोग आरोग लिए हैं और आप पधारकर प्रभु के दर्शन कर लें. महादेवजी पधारते हैं और कीर्तनिया गली में खड़े होकर प्रभु के अष्टसखा स्वरुप कीर्तनकारों से प्रभु सम्मुख गाये कीर्तनों के विषय में पूछते हैं. इसी भाव से प्रतिदिन श्रीजी के कीर्तनिया उस दिन राजभोग धरते समय गाये कीर्तन की दो-दो पंक्तियाँ बाहर आने के बाद कीर्तनिया गली में खड़े होकर गाते हैं. कीर्तन सुनने के पश्चात भगवान शंकर भीतर पधारते हैं और डोल-तिबारी के मणिकोठा वाले छोर पर गोल-डेली पर बैठकर प्रभु के दर्शन करते हैं. दर्शन कर भगवान शंकर श्रीजी के निज मंदिर में पधारते हैं और प्रभु से भेंटकर प्रभु स्वरुप के पीछे की कन्दरा में प्रवेश कर गौलोक में हो रही प्रभु की लीलाओं में सम्मिलित हो जाते हैं. आज शिवरात्रि के दिन राजभोग दर्शन में ‘राग काफ़ी’ का यह सुन्दर पद गाया जाता है. बाघंबर ओढें सांवरो हो यामें जोगी कोहुनरकोन ll ध्रु ll संखशब्द ध्वनि सुनजित तिततें घिरि आई व्रजनार l वदन विलोकि कुंवरि राधे को बैठे है आसन मार ll 1 ll हँसि बूझत वृषभान नंदिनी रावल उत्तर देह l कारन कों रूपतसीको वनतज ढूँढतगेह ll 2 ll कों देसते आए हो रावल कहां तेरी मनसाजाय l आपुन साधि मौन धरि बैठे दक्षन दिस बताय ll 3 ll सींगी पत्र विभुतिन बटुवा सिर चंदन की खोर l मेरे जिय ऐसी आवति हे संकर विसरी गोर ll 4 ll चुटकी विभूत दई राधाकों चले हें बाघंबर झारि l मनहरि लियो तनक चितवन में गोहन लागी सकुमारि ll 5 ll नगर नगर प्रति भवन भवन प्रति निशदिन फिरत उदास l नयन चकोर भये राधा के हरि दरसन की प्यास ll 6 ll जतन जतन कर मनमोह्यो हो निरख नयन की कोर l ‘जगन्नाथ’ जीवन धन माधो प्रीति लगी दुहुंओर ll 7 ll भगवान शंकरजी परम भगवदीय वैष्णव है, जो क्षणभर भी प्रभु के ध्यान स्मरण बिना रहते नहीं है इसी कारण उन्हें श्री महादेवजी कहा जाता है. श्रीमद्भागवत में भी लिखा है- “वैष्णवानाम् यथा शम्भू” अर्थात वैष्णव को शम्भू अर्थात शिवजी जैसा होना चाहिए कि सदा प्रभु की भक्ति में लीन रहे. कई वैष्णव अन्याश्रय के भय से महादेवजी की निंदा करते हैं और शिवालय नहीं जाते हैं और शिवरात्रि को व्रत नहीं करते है. कुछ वैष्णवों ने पूछा था कि वैष्णवों को शिवालय जाना चाहिए या नहीं और शिवरात्रि का व्रत करना चाहिए अथवा नहीं ? श्रीमद्वल्लभाचार्य जी आज्ञा करते हैं कि श्री महादेवजी की निंदा करना वैष्णव की निंदा करने के समान है और वैष्णव की निंदा से प्रभु अप्रसन्न होते हैं. भोरही आयो मेरे द्वार जोगिया अलख कहे कहे जाग । मोहन मूरति एनमेनसी नैन भरे अनुराग ।। अंग विभूतिगरें बिचसेली देखीयत विरह बिराग । तनमन वारुं धीरज के प्रभु पर राखूंगी बांध सुहाग ।। तुम कोनकेवस खेले हो रंगीले हो हो होरियां । अंजन अधरन पीक महावरि नेनरंगे रंगरोरियां ।। वारंवार जृंभात परस्पर निकसिआई सब चोरियां । 'नंददास' प्रभु उहांई वसोकिन जहां वसेवेगोरियां ।। ठाकुरजी न केवल जोगी का रुप धरते हैं अपितु वैष्णवों से शिव मैं ही हूँ ऐसा भी कहते हैं. इसका अर्थ है शिवजी नहीं हैं, स्वयं श्री ठाकुरजी हैं शिव के रुप में, फिर उनकी अवहेलना, निंदा कैसे की जा सकती है ? यह एक तथ्य है वहीँ दूसरा यह भी है जो श्रीवल्लभ ने अपने ग्रन्थ सिद्धांत मुक्तावली में कहा है –“अक्षरब्रह्म में स्थित श्रीकृष्ण ही ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि देवों का रुप होकर उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय आदि जगत् के कार्य करते हैं. इसके उपरांत भी कोई भेद माने तो शिवजी को भक्त रुप में देखना ही उचित है. पुष्टिमार्ग में शिवजी का दास रुप प्रसिद्ध नहीं है किंतु वही शिवजी मर्यादामार्ग में श्रीरामभक्त हनुमान रुप में प्रसिद्ध है. प्रभु को अपने भक्त इतने प्रिय हैं कि शिवजी को भी रासलीला में प्रवेश दिया है जो पुष्टिमार्ग का सर्वोच्च लक्ष्य है. रासलीलैकतात्पर्य: कृपयैतत्कथाप्रद:। अगर कोई शिव-कृष्ण के आपसी प्रेम के उदाहरण जुटाना चाहे तो विविध प्रसंगों, ग्रंथों में अनेक प्रमाण मिल जायेंगे. पुष्टि पुरुषोत्तम प्रभु के सभी प्रकार के भक्त हैं, केवल पुष्टिमार्गीय ही नहीं. प्रभु श्रीनाथजी के दर्शन करने सभी प्रकार के भक्त आते हैं और प्रभु श्रीजी सर्वोद्धारक रुप में सबका उद्धार करते हैं. जब प्रभु ने भेद नहीं किया तो हम भेद करने वाले कौन होते हैं. शिवजी श्रीनाथजी के अनन्य भक्त हैं और जैसा कि मैंने ऊपर बताया, प्रतिदिन राजभोग की माला बोलने पर महादेव घाटी के बूढा महादेवजी को आवाज दी जाती है और वे पधारकर मणिकोठा के बाहर गोल-डेली पर बैठकर श्रीजी के दर्शन करते हैं तो हमें क्या आपत्ति हो सकती है. हम आपत्ति अथवा निंदा करने वाले कौन हैं ? हमें वही करना चाहिए जिसकी आज्ञा महाप्रभुजी ने हमें की है. श्री महादेवजी हमारे विषय नहीं होने चाहिए.....न राग के, न द्वेष के शिवरात्रि का व्रत वैष्णवों को नहीं करना चाहिए परन्तु पुष्टि भक्त की निंदा तो कतई नहीं करनी चाहिए. यदि कभी शिवालय जाना हो तो उससे घ्रणा नहीं करें, वहां जाएँ, शिवजी के दर्शन करें, उनका सम्मान करें, एक वैष्णव के रूप में उनको ‘जय श्री कृष्ण’ कहें. कुछ वैष्णव शिव नाम भी नहीं लेते इसका एकमात्र कारण है - अन्याश्रय का भय. शिवजी ईश्वर कोटि के हैं, बराबरी के लगते हैं इसलिए भय लगता है कि कहीं अन्याश्रय न हो जाय पर अन्याश्रय ऐसे ही नहीं होता. इसके लिए अपनी सहमति चाहिए यदि यह सहमति नहीं है तथा काशी के शेठ पुरुषोत्तम दास की तरह शिवजी से भगवद् स्मरण का व्यवहार करते हैं तो उसमें अन्याश्रय का कोई भय नहीं है. दूसरी बात सांसारिक रुप से सक्षम लोग हमारी मदद करते हैं तब हम उसे अन्याश्रय क्यों नहीं मानते ? सभी देवता ईश्वर की बनायी व्यवस्था में अपने अपने कर्तव्य का पालन करते हैं. समझने की बात यह है कि लौकिक और वैदिक कार्यों में यथासमय देवताओं का पूजनादि होता है निषेध उसका नहीं होता, निषेध भगवदाश्रय के त्याग का है. फिर महादेवजी तो भक्त रुप में स्वीकार्य हैं और आश्रय भक्त का नहीं, भगवान का होता है अतः जरूरत संशय की नहीं अपितु विवेकसम्मत व्यवहार की ही है. मोहन मुनि हे आये हो। हो मेरे ललना सबको मनहरलीनों।। रसमसीचाल चले अलबेली अंग चढाय विभूत। कानन कुंडल मुकुट विराजत पीतांबर ओढे कटिपूत।। दंड कमंडल गहीजपमाला आसन लीनों बनाय। जब भेद खुला कि ये तो कृष्ण हैं जोगीरुप में तब एक गोपी ने उनके मुख पर गुलाल मल दी. जयजयकार होने लगी, सुरनरमुनि पुष्पों की वर्षा करने लगे कि कैसे अद्भुत लग रहे हैं श्रीकृष्ण, महादेव रुप में. इस शोभा का तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता. नवल किसोर कहां लो वरनो शोभा कही न जाय । ‘सूरदास’ वलि लाल छबीले निगम निरंतर गाय ।। सभी वैष्णवों को शिवरात्रि की ख़ूबख़ूब बधाई एवं जय श्री कृष्ण    
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