Kshatriya Voice - क्षत्रियों की आवाज़
February 19, 2025 at 07:50 AM
आज आरएसएस के द्वितीय संघचालक पेशवाई सदाशिवराव गोलवलकर की जयंती है, आज के दिन गोलवलकर जी के क्षत्रियों के प्रति विचार को देखना क्षत्रियों को इनका पुतला दहन करने की आवश्यकता है।
आरएसएस के सेकण्ड सुप्रीमो के बंच ऑफ थॉटस में क्षत्रिय समुदाय और क्षात्र धर्म को लेकर भी गुरुजी के विवादस्पद विचार संयोजित हैं, उनको लगता है कि वे धर्म रक्षार्थ अपना धार्मिक और सामाजिक दायित्व निर्वहन करने के लिये कटिबद्ध हो कर काम कर रहे हैं.लेकिन क्षत्रियों के बलिदान और युद्धों में आत्मोत्सर्ग और निडर होकर मृत्यु को वरण कर लेने के क्षात्र धर्म को लेकर गुरू गोलवलकर विचार नवनीत में कुछ ऐसा लिखते हैं ,जो किसी को भी अखर सकता है.
गुरुजी लिखते हैं –“राजपूतों ने पराक्रम और आत्म बलिदान के इन महान कार्यों के द्वारा हमारे इतिहास में चकाचौंध तथा विस्मयपूर्ण श्रद्धा उत्पन्न करने वाला एक पृष्ठ लिख दिया है,अनुपम वीरता के ऐसे ज्वलंतक्षण ,मृत्यु के खिलवाड़ करने की ऐसी उल्लासपूर्णवृति ,विश्व के इतिहास में दुर्लभ है ,यह ठीक ही है कि हम ऐसी आत्माओं के विषय में अभिमान और आदर की भावना रखें ,परन्तु यह सत्य है कि ये वीर रणक्षेत्र में मृत्यु का एक मात्र विचार लेकर घुसे थे ,विजय की इच्छा लेकर नहीं,वे केवल वीरतापूर्ण मृत्यु प्राप्त करने के विचार से प्रेरित थे.” ( विचार नवनीत, पृष्ठ -284,285 )
पता नहीं संघी गुरू इस निष्कर्ष पर किस आधार पर पहुंचे कि राजपूत वीर रणक्षेत्र में सिर्फ मृत्यु का एकमात्र विचार लेकर घुसे थे,विजय की इच्छा लेकर.यह कहना किसी की शहादत का कितना बड़ा अपमान है कि वे सिर्फ मरने के विचार से प्रेरित थे ? तब उस इतिहास का क्या मायने है जो उनको मातृभूमि की रक्षार्थ युद्ध में बलिदान दने वाले के रूप में हमारे सामने लाता है ?
गुरू गोलवलकर क्षत्रियों पर यह टिप्पणी संयोगवश या भूल वश कर देते हैं ,ऐसा नहीं लगता ,क्योंकि वे लगभग ढाई पृष्ठों पर इस बात को बार बार दोहराते हैं कि राजपूत युद्धों में सिर्फ मृत्यु के लिये जाते थे,जीवन के प्रति ऐसी निराशा और मृत्यु को लेकर उल्लास किसी भी समुदाय का जीवन मूल्य तो नहीं हो सकता है ,लेकिन गुरुजी तो बार बार वही दोहराते जाते हैं.
आगे वे लिखते है-“ जब युद्ध का आह्वान होता था ,तब राजपूत यौद्धा इसी विश्वास से अनुप्राणित हो प्रसन्नतापूर्वक मृत्यु की तनिक भी चिंता न करते हुये शत्रु दल पर धावा बोल देते थे.जैसी इच्छा ,वैसा ही परिणाम! यदि विजय की इच्छा सर्वोपरि है तो विजय प्राप्त होती है,जो केवल मृत्यु की कामना करता है ,उसे अवश्य मृत्यु मिलती है.जो केवल मृत्यु की आकांक्षा करता है,उसे यदि हम अमृत कुंड में भी डाल दें ,तो वह अवश्य ही डूब कर मर जायेगा.उसे कोई नहीं बचा सकता.” ( विचार नवनीत ,पृष्ठ – 285 )
गुरुजी यहीं नहीं रुकते ,वे तो क्षत्रियों के शोर्य की गौरव गाथाओं को दुखद अध्याय तक बता देते है –“ राजपूतों का बलिदान निसन्देह रीति से असाधारण पराक्रम और स्वाभिमानी तथा निडर वृति का परिचायक है ,परन्तु साथ ही साथ वह एक गलत और आत्मघाती आकांक्षा का प्रतीक है.वह हमारे भारतीय शौर्य की गाथाओं का एक स्मरणीय,परन्तु दुखद अध्याय है.” ( विचार नवनीत ,पृष्ठ – 285 )
संघी गुरुजी तो आत्म बलिदान के क्षात्र धर्म की धारणा को भी गलत कहने से नहीं चूकते और उसे एक प्रकार की दुर्बलता तक कह देते हैं और सामूहिक क्रोधावेश में भर जाना तथा उसके बोझ से नष्ट हप जाना जैसी तोहमतें भी मढ़ देते हैं और यह भी कह देते हैं कि यह हमारा आदर्श नहीं हो सकता है.और भी कईं ऐसी बातें हैं जो सम्मानजनक तो नहीं ही कही जा सकती है,बेहतर है कि गुरुजी के शब्दों में ही इन्हें पढ़ लिया जाये.
संघ के द्वितीय सरसंघ चालक माधव सदाशिव गोलवलकर उपाख्य गुरुजी गोलवलकर अपनी बहुचर्चित किताब में लिखते है –“क्षात्र धर्म की एक गलत धारणा के ही कारण इन वीरों ने बलिदान की आकांक्षा लेकर स्वयं को नष्ट कर दिया.यह भी एक प्रकार की दुर्बलता है.परिस्थितियों की मार न सह सकने के कारण सामूहिक रूप से क्रोधावेश में भर जाना और उसके बोझ से नष्ट हो जाना हमारा आदर्शनहीं हो सकता,इस प्रकार के भावुकतापूर्ण स्वाभिमान धारण करने वाले वर्ग में वैसी शांति और स्थिर संकल्पशक्ति नहीं हो सकती,जो परिस्थितियों की किंकर्तव्यविमूढ़ करने वाली कशमकश में भी अनुदिग्न बनी रहे.” ( विचार नवनीत ,पृष्ठ – 285)
गुरुजी के विचारों को थोडा और देखेते हैं ,वे आगे लिखते हैं –“ एक प्रतिक्रियात्मक मस्तिष्क,जो छोटा सा आघात होने पर भी संतुलन खो बैठता है ,निकृष्ट कोटि का होता है.एक पशु ,जिसमें तर्क करने की शक्ति नहीं है,केवल प्रतिक्रियात्मक जीवन व्यतीत करता है ,उसमें शांतिपूर्वक सोचने और कार्य करने की शक्ति नहीं होती....एक निर्बुद्धि प्राणी दुर्बल प्रतिक्रिया व्यक्त कर स्वयं को ही नष्ट कर लेता है.मरना और मारना समझदार व्यक्ति के लिये कभी भी आदर्श नहीं हो सकता है.” ( विचार नवनीत ,पृष्ठ -286 )
तो विचार नवनीत में गुरुजी गोलवलकर क्षत्रियों व उनके क्षात्र धर्म पर ऐसे विचार प्रकट करते हैं,बरसों से यह किताब पढ़ी पढाई जाती है,संघ के प्रकाशन इसे छापते हैं और संघ कार्यालयों में स्थित वस्तु भंडारों में यह सुशोभित रहती है ,संघ के सार्वजनिक कार्यक्रमों में और देश भर के पुस्तक मेलों के संघी स्टालों पर यह धडल्ले से बिकती है,क्या आरएसएस के क्षत्रिय स्वयंसेवक इस बारे में जानते हैं ? अगर नहीं जानते हैं तो उनको जरुर इसे जानना चाहिए।
पुस्तक के पृष्ठ पोस्ट के नीचे
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