Kshatriya Voice - क्षत्रियों की आवाज़
3.1K subscribers
About Kshatriya Voice - क्षत्रियों की आवाज़
क्षत्रिय सामाजिक, राजनैतिक, चेतना मंच ।। Research & Social Awareness II Political Watchdog || Whiste-blower क्षत्रियों के वर्तमान, सामाजिक एवं राजनीतिक मुद्दों पर केंद्रित Social Justice। Jai Gogaji Chauhan।Jai Ramdevji Tanwar। Jai Jamboji Panwar। Constitutionalist। Giving voice to the Mainstream System's Biggest pariah - The Kshatriyas
Similar Channels
Swipe to see more
Posts
मैंने देखा है कि मराठा लोग अपने पूर्वजो का नाम हमेशा अद्भुत श्रद्धा और सम्मान के साथ लेते हैं। उनके लिए वे केवल राजा नहीं बल्कि ईश्वर से कम भी नहीं हैं। लेकिन हम? हम अपने पूर्वजों के नाम ऐसे लेते हैं जैसे वे बस इतिहास के कुछ पन्नों में दर्ज साधारण व्यक्ति हों। क्या यही हमारा सम्मान है? हम अक्सर कहते हैं कि हमारे इतिहास को तोड़ा-मरोड़ा गया, हमारे पूर्वजों को बदनाम किया गया। लेकिन जब हम खुद उनका नाम लेते हैं, तो क्या हम उन्हें वह सम्मान देते हैं जिसके वे हकदार हैं? महाराणा प्रताप, पृथ्वीराज चौहान, अनंगपाल तोमर, राजा भोज, मान सिंह, जयचंद व अन्य राजपूत महापुरुषो का नाम लेते समय क्या हम एहसास करते हैं कि ये केवल राजा नहीं, बल्कि हमारी विरासत की रीढ़ थे? हम दूसरों से अपने इतिहास का सम्मान करने की उम्मीद करते हैं लेकिन क्या हम खुद ऐसा करते हैं? हम अपने ही पूर्वजों के नाम बिना किसी सम्मानसूचक शब्द के लेते हैं, बिना श्रद्धा के, मानो वे हमारे युग के कोई साधारण व्यक्ति हों। अगर हम खुद उनके नाम को गर्व से नहीं ले सकते, तो फिर दुनिया से सम्मान की उम्मीद कैसे कर सकते हैं? सम्मान केवल याद करने में नहीं बल्कि कैसे याद करते हैं उसमें भी है। ~आकांक्षा रघुवंशी
मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्त की नियुक्ति करनी थी, बहुत होनहार लोगों को ढूंढा गया. पूरे देश से दो हीरे मिले, मोदी और भागवत ने बहुत राय मशविरा किया और अंततः ज्ञानेश कुमार गुप्ता (मोदी के जाति के) को मुख्य चुनाव आयुक्त और विवेक जोशी (भागवत के जाति के) को चुनाव आयुक्त बना दिया. ख़बरदार जो कोई भी बीजेपी आरएसएस को ब्राह्मण बनिया पार्टी / संगठन कहा तो. क्षत्रियों को हिन्दुत्व के लिए दरी बिछाने की जिम्मेदारी मिली है. सुप्रीम कोर्ट, उच्च न्यायालय के बाद सरकार को क्षत्रिय आईएएस आईपीएस भी नहीं मिल रहे उच्च पद के लिए. खैर क्षत्रिय अधिकारी भी कौन सा सामाज का कार्य करवाते हैं या किसी क्षत्रिय को आगे बढ़ाते हैं. बाकी सब चंगा सी.
आज आरएसएस के द्वितीय संघचालक पेशवाई सदाशिवराव गोलवलकर की जयंती है, आज के दिन गोलवलकर जी के क्षत्रियों के प्रति विचार को देखना क्षत्रियों को इनका पुतला दहन करने की आवश्यकता है। आरएसएस के सेकण्ड सुप्रीमो के बंच ऑफ थॉटस में क्षत्रिय समुदाय और क्षात्र धर्म को लेकर भी गुरुजी के विवादस्पद विचार संयोजित हैं, उनको लगता है कि वे धर्म रक्षार्थ अपना धार्मिक और सामाजिक दायित्व निर्वहन करने के लिये कटिबद्ध हो कर काम कर रहे हैं.लेकिन क्षत्रियों के बलिदान और युद्धों में आत्मोत्सर्ग और निडर होकर मृत्यु को वरण कर लेने के क्षात्र धर्म को लेकर गुरू गोलवलकर विचार नवनीत में कुछ ऐसा लिखते हैं ,जो किसी को भी अखर सकता है. गुरुजी लिखते हैं –“राजपूतों ने पराक्रम और आत्म बलिदान के इन महान कार्यों के द्वारा हमारे इतिहास में चकाचौंध तथा विस्मयपूर्ण श्रद्धा उत्पन्न करने वाला एक पृष्ठ लिख दिया है,अनुपम वीरता के ऐसे ज्वलंतक्षण ,मृत्यु के खिलवाड़ करने की ऐसी उल्लासपूर्णवृति ,विश्व के इतिहास में दुर्लभ है ,यह ठीक ही है कि हम ऐसी आत्माओं के विषय में अभिमान और आदर की भावना रखें ,परन्तु यह सत्य है कि ये वीर रणक्षेत्र में मृत्यु का एक मात्र विचार लेकर घुसे थे ,विजय की इच्छा लेकर नहीं,वे केवल वीरतापूर्ण मृत्यु प्राप्त करने के विचार से प्रेरित थे.” ( विचार नवनीत, पृष्ठ -284,285 ) पता नहीं संघी गुरू इस निष्कर्ष पर किस आधार पर पहुंचे कि राजपूत वीर रणक्षेत्र में सिर्फ मृत्यु का एकमात्र विचार लेकर घुसे थे,विजय की इच्छा लेकर.यह कहना किसी की शहादत का कितना बड़ा अपमान है कि वे सिर्फ मरने के विचार से प्रेरित थे ? तब उस इतिहास का क्या मायने है जो उनको मातृभूमि की रक्षार्थ युद्ध में बलिदान दने वाले के रूप में हमारे सामने लाता है ? गुरू गोलवलकर क्षत्रियों पर यह टिप्पणी संयोगवश या भूल वश कर देते हैं ,ऐसा नहीं लगता ,क्योंकि वे लगभग ढाई पृष्ठों पर इस बात को बार बार दोहराते हैं कि राजपूत युद्धों में सिर्फ मृत्यु के लिये जाते थे,जीवन के प्रति ऐसी निराशा और मृत्यु को लेकर उल्लास किसी भी समुदाय का जीवन मूल्य तो नहीं हो सकता है ,लेकिन गुरुजी तो बार बार वही दोहराते जाते हैं. आगे वे लिखते है-“ जब युद्ध का आह्वान होता था ,तब राजपूत यौद्धा इसी विश्वास से अनुप्राणित हो प्रसन्नतापूर्वक मृत्यु की तनिक भी चिंता न करते हुये शत्रु दल पर धावा बोल देते थे.जैसी इच्छा ,वैसा ही परिणाम! यदि विजय की इच्छा सर्वोपरि है तो विजय प्राप्त होती है,जो केवल मृत्यु की कामना करता है ,उसे अवश्य मृत्यु मिलती है.जो केवल मृत्यु की आकांक्षा करता है,उसे यदि हम अमृत कुंड में भी डाल दें ,तो वह अवश्य ही डूब कर मर जायेगा.उसे कोई नहीं बचा सकता.” ( विचार नवनीत ,पृष्ठ – 285 ) गुरुजी यहीं नहीं रुकते ,वे तो क्षत्रियों के शोर्य की गौरव गाथाओं को दुखद अध्याय तक बता देते है –“ राजपूतों का बलिदान निसन्देह रीति से असाधारण पराक्रम और स्वाभिमानी तथा निडर वृति का परिचायक है ,परन्तु साथ ही साथ वह एक गलत और आत्मघाती आकांक्षा का प्रतीक है.वह हमारे भारतीय शौर्य की गाथाओं का एक स्मरणीय,परन्तु दुखद अध्याय है.” ( विचार नवनीत ,पृष्ठ – 285 ) संघी गुरुजी तो आत्म बलिदान के क्षात्र धर्म की धारणा को भी गलत कहने से नहीं चूकते और उसे एक प्रकार की दुर्बलता तक कह देते हैं और सामूहिक क्रोधावेश में भर जाना तथा उसके बोझ से नष्ट हप जाना जैसी तोहमतें भी मढ़ देते हैं और यह भी कह देते हैं कि यह हमारा आदर्श नहीं हो सकता है.और भी कईं ऐसी बातें हैं जो सम्मानजनक तो नहीं ही कही जा सकती है,बेहतर है कि गुरुजी के शब्दों में ही इन्हें पढ़ लिया जाये. संघ के द्वितीय सरसंघ चालक माधव सदाशिव गोलवलकर उपाख्य गुरुजी गोलवलकर अपनी बहुचर्चित किताब में लिखते है –“क्षात्र धर्म की एक गलत धारणा के ही कारण इन वीरों ने बलिदान की आकांक्षा लेकर स्वयं को नष्ट कर दिया.यह भी एक प्रकार की दुर्बलता है.परिस्थितियों की मार न सह सकने के कारण सामूहिक रूप से क्रोधावेश में भर जाना और उसके बोझ से नष्ट हो जाना हमारा आदर्शनहीं हो सकता,इस प्रकार के भावुकतापूर्ण स्वाभिमान धारण करने वाले वर्ग में वैसी शांति और स्थिर संकल्पशक्ति नहीं हो सकती,जो परिस्थितियों की किंकर्तव्यविमूढ़ करने वाली कशमकश में भी अनुदिग्न बनी रहे.” ( विचार नवनीत ,पृष्ठ – 285) गुरुजी के विचारों को थोडा और देखेते हैं ,वे आगे लिखते हैं –“ एक प्रतिक्रियात्मक मस्तिष्क,जो छोटा सा आघात होने पर भी संतुलन खो बैठता है ,निकृष्ट कोटि का होता है.एक पशु ,जिसमें तर्क करने की शक्ति नहीं है,केवल प्रतिक्रियात्मक जीवन व्यतीत करता है ,उसमें शांतिपूर्वक सोचने और कार्य करने की शक्ति नहीं होती....एक निर्बुद्धि प्राणी दुर्बल प्रतिक्रिया व्यक्त कर स्वयं को ही नष्ट कर लेता है.मरना और मारना समझदार व्यक्ति के लिये कभी भी आदर्श नहीं हो सकता है.” ( विचार नवनीत ,पृष्ठ -286 ) तो विचार नवनीत में गुरुजी गोलवलकर क्षत्रियों व उनके क्षात्र धर्म पर ऐसे विचार प्रकट करते हैं,बरसों से यह किताब पढ़ी पढाई जाती है,संघ के प्रकाशन इसे छापते हैं और संघ कार्यालयों में स्थित वस्तु भंडारों में यह सुशोभित रहती है ,संघ के सार्वजनिक कार्यक्रमों में और देश भर के पुस्तक मेलों के संघी स्टालों पर यह धडल्ले से बिकती है,क्या आरएसएस के क्षत्रिय स्वयंसेवक इस बारे में जानते हैं ? अगर नहीं जानते हैं तो उनको जरुर इसे जानना चाहिए। पुस्तक के पृष्ठ पोस्ट के नीचे
पेशवाई और RSS वादी मिथिहासकारों के हिसाब से मुगलों के सेनापति के तौर पर अफ़गानों को जीतने वाले मान सिंह गद्दार है लेकिन स्वयं अपने पिता शिवाजी के ख़िलाफ़ मुग़ल सेनापति दिलेर ख़ान के साथ मिलकर भूपालगढ़ के युद्ध में शिवाजी को हराने वाला सम्भाजी (5000 सवार के मुग़ल मनसबदार, जिनकी पुत्रियाँ मुग़लों में ब्याई थी ,औरंगज़ेब द्वारा 7000 जात के मनसबदार) महान हैं । । if doglapan had a face । #chhava
https://timesofindia.indiatimes.com/blogs/voices/busting-narratives-why-shivaji-rajput-dichotomy-is-false/
शिवाजी राजे भोंसले और महाराजा छत्रसाल बुंदेला दोनों ही समकालीन थे दोनों की लड़ाई औरंगजेब के विरुद्ध अपना स्वतंत्र राज्य बनाने की थी किंतु शिवाजी के लिए एक तरफ भौगोलिक परिस्थितियां अनुकूल थी तो दूसरी तरफ जयपुर के कुशवाह ठाकुरों का उन्हें अप्रत्यक्ष संरक्षण भी प्राप्त था। इसके विपरीत महाराजा छत्रसाल बुंदेला को न ही किसी का संरक्षण प्राप्त था न ही भौगोलिक परिस्थितियां उनके अनुकूल थी न मा की गोद थी न सिर पर पिता का साया फिर भी वो दस साल का निराश्रित वीर बालक केवल 25 पैदल सिपाहियों को लेकर मुग़ल साम्राज्य के सीने पर चढ़कर अपना राज्य छीन लेता है. और उस क्षेत्र में कला,संगीत, निर्माण का स्वर्णिम काल लाता है, प्रणामी जैसे संप्रदायों को संरक्षण देता है। लेकिन एक भी कथित हिंदुत्व का पुरोधा उन्हें स्मरण करना तो छोड़िए उनका नाम तक इस डर से नहीं लेता कि कहीं उनके प्रताप के आगे कहीं कुछ धूमिल नायकों की चमक न धूमिल पड़ जाए।
कांगड़ा कटोच क्षत्रियों का राज्य था, जो महाजनपद काल में त्रिगर्त के नाम से विख्यात था, 6वीं शताब्दी ईसा पूर्व के महाजनपद काल से आज तक कटोच क्षत्रियों की बसावट उसी क्षेत्र में पाई जाती है। आज उसी कटोच वंश के प्रज्वत्सल शासक महाराजा संसार चंद कटोच का जन्मदिवस है। राजा संसार चंद जालंधर-त्रिगर्त के पुराने साम्राज्य की स्थापना का सपना देखते थे , जिस पर उनके पूर्वजों का कभी कब्ज़ा था। महाराजा संसार चंद कटोच का जन्म 1765 ई. में बीजापुर तहसील के पूर्वी गांव जयसिंहपुर कांगड़ा में हुआ था। वे महाराजा टेकचंद कटोच के सबसे बड़े पुत्र थे। अपने सैन्य अभियानों के अलावा, महाराजा संसार चंद कला और संस्कृति के संरक्षण के लिए भी जाने जाते थे। वह एक महान कला प्रेमी थे और संगीत, नृत्य और साहित्य में उनकी गहरी रुचि थी। अपने शासनकाल के दौरान, उन्होंने कई मंदिर और महल बनवाए और अपने दरबार में एक चित्रकला विद्यालय भी स्थापित किया, जिसे कांगड़ा चित्रकला विद्यालय के नाम से जाना जाता है । कांगड़ा चित्रकला विद्यालय को अब भारतीय लघु चित्रकला के सबसे महत्वपूर्ण और प्रभावशाली विद्यालयों में से एक माना जाता है। इसी कारण महाराजा संसार चंद जी के शासनकाल को “कांगड़ा का स्वर्ण युग” कहा जाता है। संसार चंद को कांगड़ा चित्रकला शैली से बहुत लगाव था, जिसकी उत्पत्ति कटोच राजवंश की गुलेर शाखा से हुई थी। अपने शासनकाल के दौरान, उन्होंने कांगड़ा शैली के विकास को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया, जिससे यह क्षेत्र में चित्रकला की सबसे प्रमुख शैली बन गई। उन्होंने अपने शासनकाल के दौरान 40,000 से अधिक कांगड़ा पेंटिंग बनवाईं , जो आज भी अपनी सुंदरता और शालीनता के लिए प्रशंसित हैं। https://www.facebook.com/share/p/1ACK9xYRgk/