awgpofficial
February 21, 2025 at 11:44 PM
*🥀 २२ फरवरी २०२५ शनिवार 🥀*
*//फाल्गुन कृष्णपक्ष नवमी २०८१//*
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*‼ऋषि चिंतन‼*
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*सुख और दुःख का दृष्टिकोण*
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👉 *भूलोक के परलोक में "सुख" को "स्वर्ग" और "दुःख" को "नरक" कहते हैं।* जिन्हें इस लोक में सुख प्राप्त है, वे स्वर्ग भोग रहे हैं और जिन्हें दुःख प्राप्त हो रहा है, वे बेचारे नरक भोग रहे हैं। यह एक मोटी परिभाषा है। *इतना कह देने से ही काम न चलेगा।* अब हमें नरक की बारीकी में जाना होगा। *कितने ही व्यक्ति ऐसे हैं, जिन्हें रुपया-पैसा, धन-दौलत, सोना-चाँदी की किसी प्रकार की कमी नहीं। नौकर-चाकर, महल, मोटर सब कुछ है। ऐश आराम के तरह-तरह के साधन मौजूद हैं। इतना सब होते हुए भी उन्हें चैन नहीं, दिन-रात अशांति की ज्याला में जलते रहते हैं, रात को नींद नहीं आती, सारी सुख-सामग्री फीकी मालूम होती है।* हमें ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं कि अमुक राजकुमार या धनी व्यक्ति ने अपने ऐश आराम के जीवन को लात मार दी और अमुक त्यागपूर्ण रास्ता ग्रहण कर लिया, *इससे प्रतीत होता है कि उन्हें उस सुख-सामग्री में वास्तविक "सुख"नहीं मिला।*
👉 हमारा व्यक्तिगत रूप से अनेक धनी-मानी और समृद्ध व्यक्तियों से संपर्क रहता है। वे अपने हृदय की व्यथा खोलकर हमारे सामने अपने मन का भार हल्का करते हैं। *लंबे समय के अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर कह सकते हैं कि सुख-सामग्री होते हुए भी बहुत ही कम लोग ऐसे हैं जो सुखी कहे जा सकते हैं।* अधिकांश में तो वे गरीब और अभावग्रस्त लोगों से भी अधिक दु:खी पाए जाते हैं।
👉 अब दूसरी ओर देखिए। *इस दुनिया में ऐसे लोग भी हैं जिनके पास धन-संपत्ति नहीं है। साथ ही कष्ट भी उठाते हैं, फिर भी वे "स्वर्गवासी" कहे जाते हैं।* साधु, संत, महात्माओं के पास धन-संपत्ति नहीं होती, उनके पास जीवन निर्वाह को अन्न-वस्त्र जैसी साधारण वस्तुएँ भी पर्याप्त मात्रा में नहीं होतीं, धन के अभाव में प्रायः कुछ-न-कुछ वस्तुओं का अभाव उनके सामने खड़ा ही रहता है। *कितने ही परोपकारी मनुष्य संसार के हित के लिए कष्ट सहते हैं।* दधीचि ने अपनी हड्डियाँ दीं, हरिश्चंद्र ने अपने को तथा स्त्री-पुत्रों को बेचा, मोरध्वज ने अपने पुत्र को दे डाला, शिवि ने नाना विधि कष्ट उठाए, मीरा और दयानंद ने विष के प्याले पिए, प्रह्लाद ने पिता के अत्याचार सहे, *भारत के स्वाधीनता संग्राम में लाखों व्यक्तियों ने जेल, लाठी-गोली तथा फाँसी सही, यह कष्ट सहना "दुःख" या "नरक" भोगना नहीं कहा जा सकता। ऐसे कष्टों में भी "स्वर्ग" का "सुख" छिपा होता है।* *स्वेच्छा से स्वीकार किया हुआ कष्ट "तप" कहलाता है।* वह बाहर से कष्ट जैसा दिखाई पड़ता है, पर वास्तव में वह दु:ख नहीं है।
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*अध्यात्म विद्या का प्रवेश द्वार पृष्ठ-२५*
*🪴पं. श्रीराम शर्मा आचार्य 🪴*
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https://youtu.be/BcLQObhfv_g?si=ymJ86R7nYHaC9W33
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