Abu Muhammad ابو محمد
February 3, 2025 at 08:31 AM
*"इंसाफ़ की तलाश में गुज़रती ज़िंदगियाँ"*
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कितने ही लोग इस दुनिया में दशकों तक इंसाफ़ की आस में भागदौड़ करते रहते हैं, लेकिन न्याय उनके हिस्से नहीं आता। कभी अदालतों के दरवाज़े खटखटाते हैं, कभी गुहार लगाते हैं, तो कभी व्यवस्था से उम्मीद बांधते हैं।
*मगर सच यह है कि यहाँ न्याय ताक़त, दौलत और रसूख़ के पैमाने से मापा जाता है। प्रायः न्याय सत्ता की कुर्सी की नीचे दबा होता है, कितने बेगुनाह जेल में बंद न्याय का उम्र भर इन्तिजार करते ही रहते हैं।*
एक व्यक्ति किसी आरोप में नौजवानी में जेल जाता है, और फिर बीस या तीस साल बाद उसे न्याय मिलता है, और अदालत कहती हैं कि सारे आरोप बेबुनियाद थें ??
*क्या यह न्याय है ???*
*अगर यह न्याय है तो फिर अन्याय क्या है ???*
एक व्यक्ति का कैरियर, उसकी उम्र के खूबसूरत दिन, उसकी इज़्ज़त सबकुछ बर्बाद हो गया, और वह वृद्धावस्था में जेल से बाहर आया और अदालत ने बेकसूर कहा, *तो उसको कौन सा न्याय मिला ?*
दुनियां में कमजोरों की आवाज़ या तो दबा दी जाती है या फिर इतनी धीमी कर दी जाती है कि किसी को सुनाई ही न दे।
*इस दुनिया में इंसाफ़ मांगते-मांगते लोगों की उम्र बीत जाती है। उनके बाल सफ़ेद हो जाते हैं, आँखों की रौशनी धुंधली पड़ जाती है, जिस्म कमज़ोर हो जाता है, लेकिन न्याय नहीं मिलता।*
*फिर एक दिन उनकी सांसें भी जवाब दे देती हैं, और वे इस दुनिया से चले जाते हैं* —इस उम्मीद के साथ कि शायद इंसाफ़ उस अदालत में मिले, जहाँ कोई पक्षपात नहीं, जहाँ दौलत और ताक़त की कोई कीमत नहीं, और जहाँ हर चीज़ का हिसाब होगा।
*"وَلاَ تَحْسَبَنَّ اللّهَ غَافِلاً عَمَّا يَعْمَلُ الظَّالِمُونَ إِنَّمَا يُؤَخِّرُهُمْ لِيَوْمٍ تَشْخَصُ فِيهِ الأَبْصَارُ"*
*"और तुम यह हरगिज़ न समझो कि अल्लाह ज़ालिमों के कामों से ग़ाफ़िल है, वह तो बस उन्हें एक दिन तक मोहलत दे रहा है, जिस दिन आँखें फटी रह जाएंगी।"*
(सूरह इब्राहीम: 42)
यहां इंसाफ़ वही करते हैं, जिन्हें अपनी आख़िरत की परवाह होती है। जिन्हें यह यकीन होता है कि इस दुनिया की अदालत से बच भी गए, तो उस अदालत में नहीं बच सकते, जहाँ हर एक अमल का हिसाब होगा। जहाँ कोई गवाह झूठ नहीं बोलेगा, कोई सबूत गायब नहीं होगा, और कोई फैसला ताक़त के दबाव में नहीं आएगा।
*"إِنَّ اللَّهَ يَأْمُرُكُمْ أَنْ تُؤَدُّوا الْأَمَانَاتِ إِلَى أَهْلِهَا وَإِذَا حَكَمْتُمْ بَيْنَ النَّاسِ أَنْ تَحْكُمُوا بِالْعَدْلِ"*
*"निस्संदेह, अल्लाह तुम्हें हुक्म देता है कि अमानतें उनके हक़दारों को लौटाओ और जब लोगों के बीच फैसला करो तो इंसाफ़ के साथ करो।"*
(सूरह निसा: 58)
*मगर कितने हैं जो इस हुक्म को मानते हैं?*
दुनिया में इंसाफ़ की डगर मुश्किल है, और यह सच है कि कई लोग इसे पाने से पहले ही दुनिया छोड़ देते हैं। लेकिन उनकी दुआएं, उनके आँसू, उनके दर्द, कहीं ज़ाया नहीं जाते। हर ज़ालिम का हिसाब होगा, हर हक़ मारा गया इंसान अपने इंसाफ़ को पाएगा। क्योंकि दुनिया की अदालतों में भले ही देर हो, आख़िरत की अदालत में कोई देर नहीं होगी।
*"وَنَضَعُ الْمَوَازِينَ الْقِسْطَ لِيَوْمِ الْقِيَامَةِ فَلَا تُظْلَمُ نَفْسٌ شَيْئًا"*
*"और क़ियामत के दिन हम इंसाफ़ की तराज़ू क़ायम करेंगे, और किसी पर ज़रा भी ज़ुल्म नहीं होगा..."*
(सूरह अंबिया: 47)
इंसाफ़ अगर इस दुनिया में नहीं मिला, तो उस दुनिया में ज़रूर मिलेगा— *जहाँ सबसे बड़ा और सबसे बेहतरीन न्यायधीश खुद इंसाफ़ करेगा।*
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