
Abu Muhammad ابو محمد
February 27, 2025 at 11:12 AM
*"हम और हमारा दीन"*
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अल्लाह ने हमें समझ और बेहतरीन अक़्ल दी है ताकि हम सही-गलत में फर्क कर सकें। और इसी के साथ एक ऐसी किताब अता की है जो सही और ग़लत को बिल्कुल अलग अलग करके रख देती है।
*❝रमज़ान का महीना वह है, जिसमें क़ुरआन नाज़िल किया गया, जो लोगों के लिए हिदायत है और जिसमें हिदायत है और हक़ व बातिल में फ़र्क करने वाली स्पष्ट निशानियाँ हैं।❞*
(सूरह अल-बक़रा 2:185)
लेकिन हमने क़ुरआन को तो छोड़ ही रखा है, और अक्ल से भी काम नहीं लेते हैं। कभी गौर तक नहीं करते कि आखिर कल किस तरह अल्लाह के सामने हाजिर होगें ?
*"इस्लाम अपने असल मायने में एक सोच और समझ का नाम है।"*
आज जरूरत है कि हम अपने नौजवानों को जागरूक करें।
दिखावे की दीनदारी छोड़कर सच्चे दीन को अपनाएं।
फिजूलखर्ची और बेकार रस्मों को छोड़कर तालीम और तरक्की की तरफ बढ़ें।
अपने हमसाए (पड़ोसियों) की तकलीफों को समझें और उन्हें सुकून दें।
इस्लाम हमें यह नहीं सिखाता कि हम अपनी इबादत के नाम पर दूसरों को तकलीफ दें। हमें चाहिए कि हम शोर के बजाय सुकून से, रस्मों के बजाय असल अमल से, और दिखावे के बजाय दीन की हकीकत से अपने आपको बदलें।
अल्लाह ने चेतावनी दी है...
*"अल्लाह किसी क़ौम की हालत को नहीं बदलता, जब तक कि वह खुद अपनी हालत को न बदले।"*
(सूरह अर-रअद 13:11)
अब फैसला हमें करना है—हम वाकई इस्लाम के सच्चे पैरोकार बनना चाहते हैं या सिर्फ रस्मों में उलझकर दूसरों को तकलीफ पहुंचाने वाले बनकर रहना चाहते हैं ?
हम सबके प्यारे अल्लाह फरमाते हैं...
*❝और जो चीज़ नफ़ा बख़्श होती है वह ज़मीन में ठहर जाती है, और जो बेकार होती है वह बेकार होकर बह जाती है। इस तरह अल्लाह मिसालें बयान करता है।❞*
(सूरह अर-रअद 13:17)
इसलिए लोगों के लिए नफ़ा बख़्स बनिये, उनकी परेशानी का जरिया तो हरगिज न बनिये।

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