Dr.Arvind Pandey
Dr.Arvind Pandey
January 31, 2025 at 03:42 AM
*समाज की प्रगति के मूल आधार* *ईमानदारी, सच्चाई, प्रामाणिकता* 🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻 〰️〰️〰️➖🌹➖〰️〰️〰️ 👉 *"बेईमानी" कुछ स्थायी लाभ दे सकती है. यह संदिग्ध है।* सफलता भी नहीं मिलती है जहाँ उसे ईमानदारी का जामा पहना दिया जाता है। *दूध में पानी और घी में वेजीटेबिल मिलाने वाला तभी तक सफल है जब तक वह कसम खा-खाकर अपनी ईमानदारी और चीज के असलीपन का विश्वास दिलाता रहे। यह वस्तुतः "प्रामाणिकता" और "विश्वास" की उपलब्धि है।* ऐसे दुकानदार व्यवसायी अपने वस्तु दोषों को प्रकट कर दें तो पता चलेगा कि बेईमानी अपने विशुद्ध रूप में कुछ कमा सकने में सर्वथा असमर्थ है। एच० एम० टी० फॉवरल्युवा, सीको कंपनी की घड़ियों, फोर्ड की मोटरें, बाटा के जूते, पार्कर के पेन महँगे होते हुए भी लोग उन्हें प्रसन्नतापूर्वक खरीदते हैं। कारण कि इन कंपनियों में बनी वस्तुओं पर हर कोई भरोसा करता है. इनके व्यापार का दिन-प्रतिदिन विस्तार होता जा रहा है। जापानी व स्विस घड़ियाँ, ट्रांजिस्टर, मोटर पार्टस्, कलात्मक वस्तुएँ आज विश्व भर में लोकप्रिय हैं। इन चीजों की सर्वाधिक मांग संसार भर में है। इसके विपरीत आए दिन नकली, कमजोर और घटिया वस्तुएँ बनाने वाली कंपनियों का दिवाला निकलता रहता है। पूँजी नष्ट होती है तथा निर्माता बदनामी के कारण नया काम कर सकने में भी सफल नहीं हो पाते। 👉 *व्यापार ही नहीं जीवन के हर क्षेत्र की "सफलता" का स्थायित्व "कठोर श्रम", "ईमानदारी", "सच्चाई" एवं "प्रामाणिकता" पर निर्भर है।* चालाकी से ठगकर कुछ अर्जित भी कर लिया जाए तो भी वह स्थिर नहीं रह पाता। या ऐसा उपार्जन अपने साथ अनेक प्रकार के संकट लेकर प्रकारांतर से भविष्य में प्रस्तुत होता है। चोर उठाईगीरे, डाकू, जुआरी, गिरहकट अल्प अवधि में पैसा तो बहुत कमा लेते हैं, पर उस कमाई का सदुपयोग नहीं बन पड़ता। *अनीति युक्त उपार्जन अपव्यय, दुर्व्यसन की दुष्प्रवृत्तियों को ही अंततः बढ़ावा देता है। ऐसी कमाई जिस भी घर में आती है सदस्यों को दुर्गुणी, कुसंस्कारी और दुर्व्यसनी बनाती है।* मेहनत से जी चुराने तथा अनीति का अवलंबन लेकर अधिक कमाई करने वालों के बच्चे भी आलसी, प्रमादी और निठल्ले बनते हैं। श्रम का महत्त्व न समझने के कारण वे प्रायः जीवन में कोई महत्त्वपूर्ण काम नहीं कर पाते। 👉 *थोडी देर के लिए यह मान भी लिया जाए कि ईमानदारी से बेईमानी की तुलना में कमाई कम होती है तो भी अपनी चिरस्थायी विशेषताओं के कारण आर्थिक दृष्टिकोण से भी ईमानदारी का अवलंबन ही श्रेयस्कर है।* पसीने की कमाई ही फलती फूलती है, हराम का पैसा पानी के बबूले की तरह नष्ट हो जाता है। अपने साथ पश्चाताप, संताप और अपयश छोड़ जाता है। यदि बेईमानी से अधिक उपार्जन होता भी हो तो आवश्यक नहीं कि धनवान सेठ बन जाए। *"धन" की तुलना में "सद्‌गुणों" की पूँजी कहीं अधिक मूल्यवान है।* धन ही सब कुछ होता तो महापुरुष सद्‌गुणों की संपदा एकत्रित करने में अपने जीवन को क्यों खपाते ? त्याग बलिदान का आदर्श क्यों प्रस्तुत करते ? अपनी प्रामाणिकता अक्षुण्ण रखने के लिए बड़ी से बड़ी कुर्बानी क्यों देते। *स्पष्ट है कि नीति पर चलने से मिलने वाला आंतरिक संतोष, लोक श्रद्धा एवं सम्मान धन की तुलना में कहीं अधिक कीमती और स्थायी है। जिसे पाने के लिए विपुल संपदा को भी न्यौछावर किया जा सकता है।* 👉 *बेईमानी को उन्नति के आदर्श के रूप में स्वीकार कर लेने से न तो व्यक्ति की प्रगति संभव है और न ही समाज की।* इस प्रचलित भ्रांत धारणा को कि *"ईमानदारी" "घाटे" का सौदा है तथा "बेईमानी" "लाभ" का-जितना शीघ्र निरस्त किया जा सके, उतना ही श्रेयस्कर है।* ➖➖➖➖🪴➖➖➖➖ *बड़ा आदमी नहीं, महामानव बनें पृष्ठ-१६* 🪴पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

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