रंगोली (Rangoli) 🌈
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January 31, 2025 at 11:40 PM
समस्त सिद्धि, स्त्री, गृह, पुत्र, धन-धान्य की प्राप्ति के लिए करें ढुण्ढिविनायक स्तोत्र का पाठ श्रीस्कन्दपुराण के काशीखण्ड के अन्तर्गत् भगवान् शिव के द्वारा की गयी यह स्तुति है । इस स्तोत्र में ४१ श्लोक हैं जिनमें भगवान् गणेश की ढुण्ढिविनायक के स्वरुप में स्तुति की गयी है । भगवान् गणेश के इस स्तोत्र का पाठ करने से साधक को अज्ञानवश हुए पापों से मुक्ति मिलती है तथा पुत्र, स्त्री, घर, धन और ऐश्वर्य को प्राप्त करता है । ।। सर्वसम्पत्कर ढुण्ढिविनायक स्तोत्रम् ।। श्रीकण्ठ उवाच जय विघ्नकृतामाद् भक्तनिर्विघ्नकारक । अविघ्न विघ्नशमन महाविघ्नैकविघ्नकृत् ॥१॥ श्रीकण्ठ [ शिवजी ] बोले- हे विघ्नकर्ताओं के कारण ! है भक्तों के निर्विघ्न-कारक, विघ्नहीन, विघ्नविनाशन, महाविघ्नों के मुख्य विघ्न करने वाले ! आपकी जय हो । जय सर्वगणाधीश जय सर्वगणाग्रणीः । गणप्रणतपादाब्ज गणनातीतसद्‌गुण ॥२॥ हे सर्वगणाधीश, सर्वगणाग्रणी ! आपकी जय हो। हे गणों से प्रणाम किये हुए पदकमल वाले, गणनातीतसद्गुण ! आपकी जय हो । जय सर्वग सर्वेश सर्वबुद्ध्येकशेवधे । सर्वमायाप्रपञ्चज्ञ सर्वकर्माग्रपूजित ॥३॥ हे सर्वगत, सर्वेश, सब बुद्धियों के मुख्य निधान, सब मायाप्रपञ्च के जानने वाले, सब कर्मों में अग्रपूजित ! आपकी जय हो । सर्वमङ्गलमाङ्गल्य जय त्वं सर्वमङ्गल । अमङ्गलोपशमन महामङ्गलहेतुक ।।४।। हे सब मंगलों के मंगलस्वरूप, सब मंगल वाले, अमंगलनाशक, महामंगलकारण ! आपकी जय हो । जय सृष्टिकृतां वन्द्य जय स्थितिकृता नत । जय संहृतिकृत्स्तुत्य जय सत्कर्मसिद्धिद ।।५।। हे सृष्टिकर्ताओं के वंदनीय ! आपकी जय हो । हे पालनकर्ता विष्णु से नमस्कृत ! आपकी जय हो । हे संहारकारक ! हे स्तुति के योग्य ! आपकी जय हो । हे अच्छे कर्मों के सिद्धिदायक ! आपकी जय हो । सिद्धवन्द्यपदाम्भोज जय सिद्धिविधायक । सर्वसिद्ध्येकनिलय महासिद्ध्यृद्धिसूचक ।।६।। हे सिद्धों से वंदनीय पदकमल वाले, सिद्धिकारक, सब सिद्धियों के मुख्य स्थान, मुक्तिसमृद्धिसूचक ! आपकी जय हो । अशेषगुणनिर्माण गुणातीत गुणाग्रणीः । परिपूर्णचरित्रार्थ जय त्वं गुणवर्णित ॥७॥ हे सम्पूर्ण गुणों के निर्माण करने वाले, गुणों‌ से परे, गुणाग्रणी, परिपूर्णचरित्रार्थ, गुणों से वर्णित ! आपकी जय हो । जय सर्वबलाधीश बलारातिबलप्रद । बलाकोज्ज्वलदन्ताग्र बालाबालपराक्रम ॥८॥ हे सब बलों के अधीश्वर इन्द्र के बलदायक, बकपंक्ति के समान श्वेत दंताग्रवाले, बालक, अबालपराक्रम ! आपकी जय हो । अनन्तमहिमाधार धराधरविदारण । दन्ताग्रप्रोतदिङ्नाग जय नागविभूषण ॥९॥ हे अनन्त महिमा के आधार, पर्वतविदारण, दन्त के अग्रभाग से ग्रथित दिग्गज वाले, सर्पालंकार ! से विभूषित आपकी जय हो । ये त्वां नमन्ति करुणामय दिव्यमूर्ते सर्वैनसामपि भुवो भुवि मुक्तिभाजः । तेषां सदैव हरसीह महोपसर्गान् स्वर्गापवर्गमपि सम्प्रददासि तेभ्यः ॥१०॥ हे दयामय, दिव्यमूर्ते ! सब पापों के आश्रय हुए भी जो जन आपको नमस्कार करते हैं, वे पृथ्वी पर मुक्ति के भागी होते हैं एवं आप यहाँ उनके बड़े उपद्रवों को हर लेते हैं, एवं उनको स्वर्ग और मुक्ति भी देते हैं । ये विघ्नराज भवता करुणाकटाक्षैः सम्प्रेक्षिताः क्षितितले क्षणमात्रमत्र । तेषां क्षयन्ति सकलान्यपि किल्बिषाणि लक्ष्मीः कटाक्षयति तान् पुरुषोत्तमान् हि ॥११॥ हे विघ्नराज ! जो इस भूतल में क्षणमात्र आपसे करुणा-कटाक्षों के द्वारा देखे गये हैं, उनके सब पाप भी नष्ट हो जाते हैं और उन पुरुषोत्तमोंको ही लक्ष्मीजी करुणा-कटाक्ष से देखती हैं । ये त्वां स्तुवन्ति नतविघ्नविघातदक्ष दाक्षायणीहृदयपङ्कजतिग्मरश्मे । श्रूयन्त एव त इह प्रथिता न चित्रं चित्रं तदत्र गणपा यदहो त एव ॥१२॥ हे भक्तविघ्नविघातदक्ष, दक्षपुत्री के हृदयकमल के सूर्य ! जो आपकी स्तुति करते हैं । वे यहां प्रसिद्ध सुने जाते हैं- यह आश्चर्य नहीं है, अपितु जो वे ही लोग यहाँ गणों के स्वामी होते हैं, वह विचित्र हैं । ये शीलयन्ति सततं भवतोऽङ्घ्रियुग्मं ते पुत्रपौत्रधनधान्यसमृद्धिभाजः । संशीलितांघ्रिकमलाबहुभृत्यवर्गै: भूपालभोग्यकमलां विमलां लभन्ते ॥१३॥ जो आपके दोनों पदारविन्दों का निरन्तर ध्यान करते हैं, वे धन-धान्य, पुत्र और पौत्रों से युक्त होते हैं एवं बहुत भृत्यवर्गों से सेवित पद-कमल वाले होकर विमल एवं राजाओं से भोगने योग्य सम्पत्ति को पाते हैं । त्वं कारणं परमकारणकारणानां वेद्योऽसि वेदविदुषां सततं त्वमेकः। त्वं मार्गणीयमसि किञ्चनमूलवाचां वाचामगोचर चराचर दिव्यमूर्ते ॥१४॥ हे परमकारण, निजकारण, वाणी के अविषय, दिव्यमूर्ते ! आप कारणों के कारण हैं एवं वेदों के पण्डितों से एकमात्र निरन्तर जानने योग्य हैं और जो कुछ खोजने योग्य है, वह आप ही हैं । वेदा विदन्ति न यथार्थतया भवन्तं ब्रह्मादयोऽपि न चराचरसूत्रधार । त्वं हंसि पासि विदधासि समस्तमेकः कस्ते स्तुतिव्यतिकरो मनसाप्यगम्य ॥१५॥ हे मन से भी अगम्य, चराचरसूत्रधार ! वेद आपको यथार्थ रूप में नहीं जानते हैं एवं ब्रह्मादि देव भी नहीं जानते हैं? एकमात्र आप ही संसार का सृजन, पालन एवं संहार करते हैं। इससे आपकी स्तुति करने का माध्यम कौन है अर्थात् कोई भी नहीं है । त्वद्दुष्टदृष्टिविशिखैर्निहतान्निहन्मि दैत्यान्पुरान्धकजलन्धरमुख्यकांश्च । कस्यास्ति शक्तिरिह यस्त्वदृतेऽपि तुच्छं वाञ्छेद्विधातुमिह सिद्धिद कार्यजातम् ॥१६॥ हे सिद्धिदायक ! मैं आपके क्रोधदर्शनरूप बाणों से मारे हुए अन्धक तथा जलन्धर आदि प्रधान दैत्यों को मारता हूँ एवं यहाँ किसकी शक्ति है जो आपके बिना यहाँ छोटे भी कार्य-समूहक विधान करने के लिये इच्छा करे । अन्वेषणे दुढिरयं प्रथितोऽस्ति धातुः सर्वार्थदुण्ढिततया तव दुण्ढि नाम । काशीप्रवेशमपि को लभतेऽत्र देही तोषं विना तव विनायक ढुण्डिराज ॥१७॥ हे ढुंढिराज, विनायक ! यह 'दुढि' धातु 'खोजने' अर्थ में प्रसिद्ध है, इसलिये सर्वार्थ ढूँढ़ने से आपका ढुण्ढि नाम है और इस लोक में कौन देहधारी आपके सन्तुष्ट हुए बिना काशी प्रवेश को पा सकता है ? ढुण्डे प्रणम्य पुरतस्तव पादपद्मं यो मां नमस्यति पुमानिह काशिवासी । तत्कर्णमूलमधिगम्य पुरादिशामि तत्किञ्चिदत्र न पुनर्भवतास्ति येन ॥१८॥ हे ढुंढे ! जो काशीवासी पुरुष यहाँ पहले आपके पदकमल को प्रणामकर मुझे नमस्कार करते हैं उसके कान के समीप प्राप्त होकर मैं उस ब्रह्मज्ञान को देता हूँ, जिससे वह इस जगत् में पुनः उत्पन्न नहीं होता है । स्नात्वा नरः प्रथमतो मणिकर्णिकाया- मुद्धूलिताङ्घ्रियुगलस्तु सचैलमाशु । देवर्षिमानवपितॄनपि तर्पयित्वा ज्ञानोदतीर्थमभिलभ्य भजेत्ततस्त्वाम् ॥१९॥ धूल से धूसरित दोनों पाँवों वाला पुरुष पहले वस्त्र-समेत शीघ्र ही माणिकर्णिका में स्नानकर देव, ऋषि, मनुष्य और पितरों का तर्पणकर फिर ज्ञानोदतीर्थ को सामने पाकर तदनन्तर आपकी सेवा करे । सामोदमोदकभरैर्वरधूपदीपै: माल्यै: सुगन्धबहुलैरनुलेपनैश्च । सम्प्रीण्य काशिनगरीफलदानदक्षं प्रोक्त्त्वाथ मां क इह सिध्यति नैव ढुण्ढे ॥२०॥ हे ढुंढे ! सुगन्धित लड्डूसमूह, श्रेष्ठ धूप, दीप, माल्य और सुगन्धसमूह समेत अनुलेपनों से काशीपुरी के फल देने में दक्ष हुए आपको भलीभाँति तृप्त करने के अनन्तर मेरी स्तुति करके कौन यहाँ नहीं सिद्ध होता है अर्थात् सब कोई सिद्ध हो जाता है । तीर्थान्तराणि च ततः क्रमवर्जितोऽपि, संसाधयन्निह भवत्करुणाकटाक्षैः। दूरीकृतस्वहितघात्युपसर्गवर्गो, ढुण्ढे लभेदविकलं फलमत्र काश्याम् ॥२१॥ हे ढुंढे ! तदनन्तर क्रम से रहित भी होकर आपके करुणा-कटाक्षों से अन्य तीर्थों का भी यहाँ भली-भाँति साधन करता हुआ एवं दूर किये अपने हितघाती उत्पात-समूहों वाला होता हुआ इस काशीपुरी में सम्पूर्ण फल को प्राप्त कर लेता है । यः प्रत्यहं नमति ढुण्ढिविनायकं त्वां, काश्यां प्रगे प्रतिहताखिलविघ्नसङ्घः। नो तस्य जातु जगतीतलवर्तिवस्तु, दुष्प्रापमत्र च परत्र च किञ्चनापि ॥२२॥ जो प्रातःकाल काशी में प्रतिदिन आप ढुंढि विनायक को नमस्कार करता है, वह विघ्नसमूह का विनाशक होता है एवं उसको पृथ्वीतल में वर्तमान कोई भी वस्तु इस और उस लोक में भी कभी दुर्लभ नहीं है । यो नाम ते जपति ढुण्ढिविनायकस्य, तं वै जपन्त्यनुदिनं हृदि सिद्धयोऽष्टौ । भोगान्विभुज्य विविधान्विबुधोपभोग्यान्, निर्वाणया कमलया व्रियते स चान्ते ॥२३॥ जो आप ढुंढिविनायक का नाम जपता है, उसके प्रतिदिन हृदय में आठों सिद्धियाँ स्मरण करती हैं, और वह देवों के भोगने योग्य अनेक भाँति के भोगों को भोगकर अन्त में मोक्षलक्ष्मी द्वारा अंगीकार किया जाता है । दूरे स्थितोऽप्यहरहस्तव पादपीठं, यः संस्मरेत्सकलसिद्धिद ढुण्डिराज । काशीस्थितेरविकलं स फलं लभेत, नैवान्यथा न वितथा मम वाक्कदाचित् ॥२४॥ हे सकलसिद्धिद ढुंढिराज ! दूर देश में स्थित भी जो दिनों-दिन आपके पद-पीठ का स्मरण करता है, वह काशीवास का सम्पूर्ण फल प्राप्त करता है- यह मेरा वचन कभी अन्यथा नहीं एवं असत्य नहीं है । जाने विघ्नानसङ्ख्यातान्विनिहन्तुमनेकधा । क्षेत्रस्यास्य महाभाग नानारूपैरिह स्थितः ॥२५॥ हे महाभाग ! मैं जानता हूँ कि आप इस क्षेत्र के असंख्य विघ्नों को बहुत भाँति से नष्ट करने के लिये अनेक रूपों से यहाँ स्थित हैं । यानि यानि च रूपाणि यत्र यत्र च तेऽनघ । तानि तत्र प्रवक्ष्यामि शृण्वन्त्वेते दिवौकसः ॥२६॥ हे निष्पाप ! जहाँ-जहाँ आपके जो-जो रूप हैं, वहाँ-वहाँ उन- उनको कहूंगा; जिससे ये देवगण सुन लें । प्रथमं ढुण्डिराजोऽसि मम दक्षिणतो मनाक् । आढुण्ढ्य सर्वभक्तेभ्यः सर्वार्थान् सम्प्रयच्छसि ॥२७॥ पहले तो आप मुझसे कुछ दूर समीपक्ष में ही दक्षिण दिशा में ढुंढिराज नाम से स्थित हैं; आप सब अर्थों को सब ओर से ढूँढ़कर सब भक्तों को देते हैं । अङ्गारवासरवतीमिह यैश्चतुर्थीं, सम्प्राप्य मोदकभरैः परिमोदवद्भिः। पूजा व्यधायि विविधा तव गन्धमाल्यै: तानत्र पुत्र विदधामि गणान् गणेश ॥२८॥ हे गणेश ! यहाँ मंगलवार की चतुर्थी का योग प्राप्तकर जिन लोगों ने गन्ध, माल्य एवं सुगन्ध समेत मोदक (लड्डू)-समूहों से आपकी अनेक भाँति की पूजा की, उनको मैं गण बनाता हूँ । ये त्वामिह प्रतिचतुर्थि समर्चयन्ति, ढुण्डे विगाढमतयः कृतिनस्त एव । सर्वापदां शिरसि वामपदं निधाय, सम्यग्गजानन गजाननतां लभन्ते ॥२९॥ हे ढुंढे, गजमुख ! जो महान् बुद्धि वाले प्राणी यहाँ प्रत्येक चतुर्थी में आपकी पूजा करेंगे; वे ही पुण्यवान् हैं और वे सब विपत्तियों के सिर पर वामपद रखकर भलीभाँति गजमुख के भाव को पाते हैं । माघशुक्लचतुर्थ्यां तु नक्तव्रतपरायणाः। ये त्वां ढुण्डेऽर्चयिष्यन्ति तेऽर्च्या: स्युरसुरद्रुहाम् ॥३०॥ हे ढुंढे ! नक्तव्रत (रात्रिमें भोजन का नियम) में परायण जो लोग माघ शुक्ल चतुर्थी को आपकी पूजा करेंगे, वे देवों के पूज्य होंगे । विधाय वार्षिकीं यात्रां चतुर्थीं प्राप्य तापसीम् । शुक्लां शुक्लतिलैर्बद्ध्वा प्राश्नीयाल्लड्डुकान् व्रती ।।३१॥ इस व्रत वाला मनुष्य माघ की शुक्ल चतुर्थी को प्राप्तकर एवं वार्षिक यात्रा को सम्पन्न कर श्वेत तिलों से लड्डू बाँधकर भोजन करें । कार्या यात्रा प्रयत्नेन क्षेत्रसिद्धिमभीप्सुभिः। तस्यां चतुर्थ्यां त्वत्प्रीत्यै ढुण्ढे सर्वोपसर्गहृत् ॥३२॥ हे सर्वविघ्नविनाशक ढुंढे ! आपकी प्रीति के लिये चतुर्थी में क्षेत्र-सिद्धि को चाहते हुए लोगों को यत्नपूर्वक यात्रा करनी चाहिये । तां यात्रां नात्र यः कुर्यात् नैवेद्यं तिललड्डुकैः। उपसर्गसहस्त्रैस्तु स हन्तव्यो ममाज्ञया ॥३३॥ जो यहाँ उस यात्रा को नहीं करता एवं तिल के लड्डुओं से नैवेद्य नहीं लगाता, वह मेरी आज्ञा से हजारों विघ्नों के द्वारा पीड़ित होगा । होमं तिलाज्यद्रव्येण यः करिष्यति भक्तितः । तस्यां चतुर्थ्यां मन्त्रज्ञ: तस्य मन्त्रः प्रसेत्स्यति ॥३४॥ जो मंत्रज्ञ उस चतुर्थी में लावा आदि द्रव्यों से भक्तिपूर्वक हवन करेगा, उसका मन्त्र पूर्ण सिद्ध होगा । वैदिकोऽवैदिको वापि यो मन्त्रस्ते गजानन । जप्तस्त्वत्सन्निधौ ढुण्ढे सिद्धिं दास्यति वाञ्छिताम् ॥ ३५ ॥ हे गजानन ढुंढे ! आपके समीप में जपा हुआ वैदिक एवं तान्त्रिक मन्त्र भी वाञ्छित सिद्धि प्रदान करेगा । ईश्वर उवाच इमां स्तुतिं मम कृतिं यः पठिष्यति सन्मतिः । न जातु तं तु विघ्नौघाः पीडयिष्यन्ति निश्चितम् ॥३६॥ ईश्वर बोले- यह निश्चय किया गया है कि जो उत्तम बुद्धि वाले लोग मेरी की हुई इस स्तुति को पढ़ेंगे, उनको विघ्नसमूह कभी पीड़ित नहीं करेंगे । ढौण्ढीं स्तुतिमिमां पुण्यां यः पठेद् ढुण्ढिसन्निधौ । सान्निध्यं तस्य सततं भजेयुः सर्वसिद्धयः ॥३७॥ ढुंढिराज की इस पुण्यमयी स्तुति को जो उनके समीप पढ़ेगा, सब सिद्धियाँ उसके समीप सदा विराजमान रहेंगी । इमां स्तुतिं नरो जप्त्वा परं नियतमानसः । मानसैरपि पापैस्तै: नाभिभूयेत कर्हिचित् ॥३८॥ सावधान मन से मनुष्य इस स्तुति को पढ़कर मानसिक पापों से भी कभी तिरस्कृत नहीं होता । पुत्रान्कलत्रं क्षेत्राणि वराश्वान्वरमन्दिरम् । प्राप्नुयाच्च धनं धान्यं दुण्ढिस्तोत्रं जपन्नरः ॥३९॥ ढुंढिराज की स्तुति को जपता हुआ मनुष्य पुत्र, स्त्री, क्षेत्र, उत्तम घोड़ों, श्रेष्ठ घर, धन और धान्य को प्राप्त करता है । सर्वसम्पत्करं नाम स्तोत्रमेतन्मयेरितम् । प्रजप्तव्यं प्रयत्नेन मुक्तिकामेन सर्वदा ॥ ४० ॥ सर्वसंपत्कर नामक यह मेरा कहा हुआ स्तोत्र मुक्ति चाहने वाले मनुष्य को यत्नपूर्वक सदैव जपना चाहिए । जप्त्वा स्तोत्रमिदं पुण्यं क्वापि कार्ये गमिष्यतः । पुंसः पुरः समेष्यन्ति नियतं सर्वसिद्धयः ॥४१॥ इस पुण्यमय स्तोत्र को पढ़कर कहीं भी कार्य के लिये जाने वाले पुरुष के आगे सब सिद्धियाँ नियम से भलीभाँति आ जाती हैं । ॥ इति श्रीस्कन्दपुराणे काशीखण्डे शिवकृतं सर्वसम्पत्करढुण्ढिविनायकस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
🙏 2

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