
सुलेखसंवाद
February 12, 2025 at 11:38 AM
भाषा न केवल संवाद का माध्यम है, बल्कि यह हमारे समाज, संस्कृति और मानसिकता का भी प्रतिबिंब होती है। प्राचीन काल में भाषा का उपयोग ज्ञान, दार्शनिक विचारों और समाज को जोड़ने के लिए किया जाता था, लेकिन आधुनिक डिजिटल युग में यह एक नया रूप ले चुकी है। सोशल मीडिया, ऑनलाइन फोरम और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर भाषा का उपयोग अब केवल विचार साझा करने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह प्रतिस्पर्धा, ट्रोलिंग, साइबर बुलिंग और मनोवैज्ञानिक प्रभावों से भी जुड़ गया है।
आज, डिजिटल संवाद केवल वाद-विवाद (debate) नहीं, बल्कि संघर्ष (conflict) का रूप ले चुका है। लेकिन क्या यह स्वाभाविक है? क्या यह केवल तकनीक का प्रभाव है, या इसके पीछे गहरे मनोवैज्ञानिक और सामाजिक कारण हैं? मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों और ऐतिहासिक संदर्भों के आधार पर इस विषय को विस्तार से समझने का प्रयास करेंगे।
सभ्यताओं में भाषा और संवाद की भूमिका
यूनानी सभ्यता और संवाद की कला
यूनानी सभ्यता में संवाद (Dialectic) और वाद-विवाद (Debate) को बौद्धिकता का प्रतीक माना जाता था। सुकरात, प्लेटो और अरस्तू जैसे विचारकों ने संवाद की एक विधि विकसित की, जिसे ‘सुकराती संवाद (Socratic Dialogue)’ कहा जाता है। इसमें किसी विषय पर प्रश्न पूछकर और उत्तर खोजकर ज्ञान प्राप्त किया जाता था। महात्मा गांधी का हिन्द स्वराज इसी शैली में लिखा गया है। डिजिटल युग में बहस का यह रूप बदल गया है। आज, अधिकांश ऑनलाइन बहसें लॉजिकल डिस्कशन से अधिक व्यक्तिगत हमलों में बदल जाती हैं। ट्विटर, फेसबुक और इंस्टाग्राम जैसे प्लेटफॉर्म्स पर तर्क कम और आक्रोश (anger) अधिक देखने को मिलता है।
भारतीय संस्कृति के दौर में भाषा और बोली के महात्म्य को लेकर कही गई पारंपरिक बातें भी दरकिनार कर दी जा रही है क्योंकि सामूहिक रूप से हम अपने कॉम्प्लेक्स को पहचान देने से भी डरते हैं। भारत सामाजिक तौर से एक (इन्फ़ेयोरिट कॉम्प्लेक्स) हीनता बोध की ग्रंथि से जूझता हुआ समाज है, जिसके ऐतिहासिक कारण हैं। जातिवाद, आर्थिक असमानता, क्षेत्रीय भेदभाव और उच्च महसूस करने के लिए किसी को निम्न साबित करने का आदिम लोलुप भरा मन एक ऐसे परिवेश को जन्म देता हैं जहाँ श्रेष्ठ होने के भाव के लिए अपनी संकुचित कुंठा को किसी और पर थोपे जाने का चलन सामान्य हो चुका है।
भारत में न्याय दर्शन और बौद्ध वाद-विवाद परंपरा यह सिखाती थी कि किसी तर्क को जीतने का उद्देश्य किसी को हराना नहीं, बल्कि सत्य को प्राप्त करना होना चाहिए। नालंदा और तक्षशिला विश्वविद्यालयों में शास्त्रार्थ (philosophical debates) होते थे, जहाँ विभिन्न मतों को सम्मान के साथ सुना जाता था।
आज के डिजिटल युग में, बहस का यह कहीं नहीं बचा है। सोशल मीडिया पर अक्सर देखा जाता है कि कोई व्यक्ति अगर किसी लोकप्रिय विचार से असहमत होता है, तो उसे ‘ट्रोलिंग’ का सामना करना पड़ता है। यह डिजिटल संवाद को स्वस्थ बहस से भावनात्मक संघर्ष (Emotional Conflict) में बदल देता है।
मिस्र की सभ्यता और शब्दों की शक्ति
प्राचीन मिस्र में यह माना जाता था कि शब्दों में जादू की शक्ति (Heka) होती है। वहाँ के लोग मानते थे कि शब्दों से ही ब्रह्मांड की रचना हुई और शब्दों से ही उसे नियंत्रित किया जा सकता है। यह विचार आधुनिक मनोविज्ञान से मेल खाता है, जहाँ यह सिद्ध हो चुका है कि भाषा हमारे मानसिक स्वास्थ्य और समाज की दिशा को प्रभावित करती है।
आज, डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर जिस प्रकार की भाषा प्रचलित है—चाहे वह नकारात्मक टिप्पणियाँ (Negative Comments) हों या साइबर बुलिंग,—अपनी कामुकता को प्रदर्शित करने की कोशिश हो लोगों के मानसिक स्वास्थ्य पर इसका गहरा प्रभाव हो रहा है।
मनोविज्ञान में ‘डोपामिन हाई (Dopamine High)’ एक महत्वपूर्ण अवधारणा है। जब हमें सोशल मीडिया पर लाइक्स, शेयर और कॉम्प्लिमेंट्स मिलते हैं, तो हमारा मस्तिष्क डोपामिन नामक न्यूरोट्रांसमीटर रिलीज़ करता है, जिससे हमें खुशी का अनुभव होता है।
लेकिन जब हमें ट्रोलिंग, नेगेटिव कमेंट्स, या हेट स्पीच का सामना करना पड़ता है, तो हमारे दिमाग में कॉर्टिसोल (Cortisol) रिलीज़ होता है, जो तनाव (Stress) बढ़ाता है। यही कारण है कि सोशल मीडिया का प्रभाव नशे की तरह होता है—जब हमें तारीफ मिलती है, तो हम और पोस्ट करने लगते हैं, लेकिन जब हमें आलोचना मिलती है, तो हम या तो गुस्से में आ जाते हैं या डिप्रेशन में चले जाते हैं।
सिगमंड फ्रायड (Sigmund Freud) के अनुसार, जब लोग अपनी आंतरिक असुरक्षाओं (Insecurities) को स्वीकार नहीं कर पाते, तो वे उसे दूसरों पर प्रोजेक्ट (Projection Mechanism) करने लगते हैं।ऑनलाइन कार्यक्रमों में इसी का बोलबाला होता है ट्रोलिंग इसी का एक उदाहरण है। जो लोग खुद भीतर से असुरक्षित होते हैं, वे दूसरों को नीचा दिखाकर अपने आत्मसम्मान (Self-Esteem) को बचाने की कोशिश करते हैं। यही कारण है कि डिजिटल दुनिया में कई लोग अनाम (Anonymous) रहकर दूसरों को अपमानित करते थे लेकिन अब इसे नॉर्मलाइज़ करके व्यू बटोरे जाते हैं। जबकि वास्तविक जीवन में वे जरूरी नहीं उतने आक्रामक या उन्मुक्ति से आलोचना फूहड़ता को नजरअंदाज करने में सक्षम हो।
आत्म-जागरूकता (Self-Awareness) विकसित करें
अगर हमें डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर होने वाली बहसों, ट्रोलिंग और नकारात्मकता से बचना है, तो हमें खुद को यह याद दिलाना होगा कि सोशल मीडिया वास्तविकता नहीं है। यह सिर्फ एक वर्चुअल स्पेस है, जहाँ हर कोई अपनी एक अलग छवि प्रस्तुत करता है।
डिजिटल संवाद की शालीनता
अगर प्राचीन सभ्यताएँ संवाद के माध्यम से महान बन सकती थीं, तो डिजिटल सभ्यता भी स्वस्थ संवाद के आधार पर आगे बढ़ सकती है। इसके लिए हमें यह करना होगा:
• सोशल मीडिया पर भाषा की मर्यादा बनाए रखें।
• वाद-विवाद को व्यक्तिगत हमलों में बदलने से बचें।
• समाज में सकारात्मक संवाद को बढ़ावा दें।
डिजिटल डिटॉक्स अपनाएँ
डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर बिताए गए समय को संतुलित करना बहुत जरूरी है। रोज़ कुछ घंटे बिना इंटरनेट के बिताना, ध्यान (Meditation) करना और वास्तविक जीवन में संवाद करना मानसिक शांति को बढ़ाता है।
डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर भाषा और व्यवहार का मनोवैज्ञानिक प्रभाव उतना ही गहरा है, जितना कि किसी भी ऐतिहासिक सभ्यता में भाषा का प्रभाव रहा है। फर्क सिर्फ इतना है कि पहले भाषा का उपयोग ज्ञान और विचार-विमर्श के लिए किया जाता था, जबकि आज यह आक्रोश, प्रतिस्पर्धा और आभासी श्रेष्ठता (Virtual Superiority) का माध्यम बन गई है।
लेकिन अगर हम अपनी सभ्यता की जड़ों से सीखें, मनोविज्ञान को समझें और संवाद की गुणवत्ता को सुधारें, तो डिजिटल दुनिया को भी एक स्वस्थ और सकारात्मक जगह बना सकते हैं।
सोचिए, समझिए और फिर साझा कीजिए!
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