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पढ़ने की आदत डालिये लिखे हुए से संवाद करना सबसे बेहतरीन संवाद होता है। यहाँ आपको केवल और केवल पढ़ने और समझने की सीख के लिए साहित्य का परिचय दिया जाएगा। हिंदी, अंग्रेज़ी मैथिली में। शेष आगे देखते हैं क्या हो पाएगा उद्देश्य केवल विवेक और विज्ञान सम्मत चेतना का निर्माण है।

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5/22/2025, 12:24:16 AM

“बुकर पुरस्कार और भारतीय भाषाएँ: अनुवाद के माध्यम से वैश्विक मंच पर साहित्यिक पुनर्जागरण” 2025 में कन्नड़ लेखिका बानू मुश्ताक की लघुकथा-संग्रह Heart Lamp को इंटरनेशनल बुकर पुरस्कार से सम्मानित किया जाना केवल एक साहित्यिक उपलब्धि नहीं है, बल्कि यह भारतीय भाषाओं, विशेषकर कन्नड़ जैसी क्षेत्रीय भाषाओं के लिए एक सांस्कृतिक और भाषायी पुनर्जागरण की शुरुआत का प्रतीक है। पहले जब अनुवाद के माध्यम से हिंदी की रेत समाधि को यह पुरस्कार मिला तो यह घटना न केवल भारतीय साहित्य के लिए गौरव की बात रही, बल्कि वैश्विक साहित्यिक परिदृश्य में भाषायी विविधता के महत्व को रेखांकित करती हुई घटना साबित हुई। अब जब हर्ट लैंप को यह पुरस्करा मिला है तो हमें इसके अनुवादक को जानना चाहिए। हर्ट लैंप की अंग्रेज़ी अनुवादिका दीपा भास्थी ने मूल रचनाओं की आत्मा को न केवल भाषा में, बल्कि भाव, संवेदना और सामाजिक यथार्थ में भी ईमानदारी से रूपांतरित किया। यह उदाहरण दिखाता है कि अनुवाद केवल भाषाई हस्तांतरण नहीं है, बल्कि यह एक संस्कृति का एक दूसरी संस्कृति से संवाद है। अनुवाद के माध्यम से हाशिए की आवाज़ें, जो मुख्यधारा के विमर्श से अक्सर बाहर रह जाती हैं, अब वैश्विक पाठकों के समक्ष प्रस्तुत हो पा रही हैं। भारतीय भाषाओं की पुनराविष्कृति बहुभाषी भारत में साहित्य लंबे समय से क्षेत्रीय स्तर पर समृद्ध रहा है, लेकिन राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अंग्रेज़ी भाषा ने साहित्यिक प्रतिनिधित्व में प्रमुख स्थान घेर रखा था। हर्ट लैंप जैसी कृतियाँ और उनका सम्मान यह संकेत देते हैं कि अब हिंदी, कन्नड़, बंगाली, तमिल, मलयालम आदि भाषाओं का साहित्य भी वैश्विक मूल्यांकन और पाठकीयता का हिस्सा बन रहा है। इस नए युग में, भारतीय भाषाओं का साहित्य अब केवल “लोकल” नहीं रहा, वह “ग्लोबल” हो रहा है — पर शर्त यही है कि अनुवादक मूल रचना की चेतना को विश्व के संवेदनशील पाठकों तक पहुंचा सकें। साहित्यिक न्याय और प्रतिनिधित्व बानू मुश्ताक की कहानियाँ दलित, मुस्लिम, औरतों और गरीब तबके के जीवन की उन सच्चाइयों को उघाड़ती हैं, जिन्हें आमतौर पर साहित्य के सौंदर्यशास्त्र में ‘अप्रिय’ या ‘अनदेखा’ कहा जाता है। बुकर जैसी वैश्विक मान्यता यह दर्शाती है कि अब साहित्य में राजनीतिक चेतना, सामाजिक यथार्थ और भाषायी विविधता को नकारा नहीं जा सकता। यह एक साहित्यिक न्याय है — वह न्याय जो कहानियों, कविताओं और अनसुनी आवाज़ों को बराबरी का स्थान देता है। बुकर पुरस्कार का कन्नड़ साहित्य को मिलना, और उसके अनुवाद के माध्यम से विश्व-पटल पर पहुंचना, एक संकेत है कि यह भारतीय भाषाओं के लिए एक नया युग है — जहाँ वे न केवल अपनी सांस्कृतिक पहचान बनाए रखेंगी, बल्कि विश्व-साहित्य में निर्णायक हस्तक्षेप भी करेंगी। अब ज़रूरत है कि मराठी, उड़िया, असमिया और अन्य भाषाओं के सशक्त साहित्य को भी योजनाबद्ध तरीके से विश्वस्तरीय अनुवाद मिले, ताकि हर्ट लैंप की तरह अनेक “छिपे हुए दीपक” वैश्विक साहित्यिक आकाश में चमक सकें।

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5/21/2025, 5:44:23 AM

फिल्म समीक्षा: ‘द डिप्लोमैट’ — नैतिक कूटनीति और भारत की वैश्विक छवि का सजीव चित्रण नेटफ्लिक्स पर हाल ही में आई फिल्म द डिप्लोमैट वास्तविक घटना पर आधारित केवल एक राजनीतिक थ्रिलर नहीं है, बल्कि यह एक दुर्लभ सिनेमाई प्रस्तुति है जो भारत की नैतिक, व्यावहारिक और करुणा-आधारित विदेश नीति को ईमानदारी से प्रस्तुत करती है। ऐसे समय में जब सिनेमा अक्सर राजनीतिक लाभ या वैचारिक ध्रुवीकरण का माध्यम बन जाता है, द डिप्लोमैट एक संतुलित, संवेदनशील और ज़िम्मेदार कहानी के रूप में सामने आती है, जो स्वर्गीय सुषमा स्वराज जैसी नेतृत्वकर्ती की छवि को उजागर करती है। नैतिक कूटनीति: सुषमा स्वराज की विरासत इस फिल्म की सबसे सशक्त बात यह है कि यह दिखाती है कि कूटनीति केवल शक्ति नहीं, बल्कि सेवा और संवेदना का माध्यम भी है। स्वर्गीय श्रीमती सुषमा स्वराज ने अपने कार्यकाल में इसी सिद्धांत को अपनाया था — चाहे वो विदेशों में फंसे भारतीयों को बचाने की बात हो, या सोशल मीडिया के ज़रिए सीधे नागरिकों से संवाद। द डिप्लोमैट इसी मानवीय दृष्टिकोण को सामने लाती है, यह दर्शाती है कि विदेश नीति केवल रणनीति नहीं, बल्कि एक नैतिक ज़िम्मेदारी है। यह भारतीय कूटनीति के उस पक्ष को उजागर करती है जिसे अक्सर नजरअंदाज किया जाता है — मूल्यों, संस्कृति और मानवीय गरिमा की रक्षा। सवाल उठाना, नफ़रत नहीं आप बिना नफरत फैलाये भी सही सवाल पूछ सकते हैं। जहां एक ओर केरला स्टोरी जैसी फिल्में राजनीतिक ध्रुवीकरण और सामाजिक विभाजन को बढ़ावा देने के लिए सायास प्रयास करती है और समाज को अतिरंजित पक्ष दिखाने के लिए आलोचवा का शिकार होती हैं, वहीं द डिप्लोमैट न केवल प्रणालीगत खामियों और नीति विफलताओं पर प्रश्न उठाती है, बल्कि ऐसा करते हुए किसी समुदाय, धर्म या देश को बदनाम नहीं करती। यह फिल्म तनाव नहीं, सोच उत्पन्न करती है। सिनेमा का असली उद्देश्य सवाल पूछना होता है, कटघरे में खड़ा करना नहीं। द डिप्लोमैट इसी संवेदनशीलता के साथ एक गंभीर संवाद की शुरुआत करती फिल्म है — सच के साथ, लेकिन संतुलन के साथ। भारत की असली छवि का प्रतिबिंब द डिप्लोमैट की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि यह भारत को किसी अतिरंजनात्मक दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि एक यथार्थवादी, आलोचनात्मक और फिर भी राष्ट्रवादी नजरिए से दिखाती है। यह एक ऐसे भारत को दिखाती है जो लोकतांत्रिक मूल्यों, वैश्विक संवाद और ज़िम्मेदार निर्णयों में विश्वास करता है। यह फिल्म उस ‘सॉफ्ट पावर इंडिया’ की छवि को मजबूत करती है जो हिंसा या प्रचार से नहीं, बल्कि संवेदनशीलता, विवेक और नैतिक नेतृत्व से दुनिया को प्रभावित करता है। : सिनेमा और विदेश नीति में एक नई दिशा द डिप्लोमैट, भारतीय सिनेमा के लिए एक नई दिशा तय करती है — जहां विदेश नीति केवल सत्ता का खेल नहीं, बल्कि एक नैतिक दायित्व के रूप में प्रस्तुत होती है। यह दिखाती है कि राष्ट्रहित और मानवाधिकार एक-दूसरे के विरोधी नहीं, बल्कि पूरक हो सकते हैं। सुषमा स्वराज जैसी नेत्री की तरह यह फिल्म भी एक ऐसी राह दिखाती है, जिसमें संविधान, करुणा और साहस तीनों का समावेश हो। आज के समय में, जब सिनेमा अक्सर विभाजन की दीवारें खड़ी करता है, द डिप्लोमैट संवाद की पुल बनाता है — और यही इसकी सबसे बड़ी सफलता है।

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5/31/2025, 4:58:46 PM

भारत में भाषाई व्यवहार और हिंदी की संपर्क भाषा के रूप में भूमिका: एक अनुभवजन्य विश्लेषण भारत की भाषिक संरचना विविध, बहुस्तरीय और ऐतिहासिक रूप से जटिल है। इस लेख में लेखक द्वारा भारत के विभिन्न क्षेत्रों—उत्तर, दक्षिण, पूरब और पश्चिम—में निवास के दौरान देखे गए भाषाई व्यवहार के आधार पर यह प्रतिपादित किया गया है कि यद्यपि संविधानिक संरक्षण के तहत स्थानीय भाषाओं की प्रतिष्ठा बनी हुई है, परंतु प्रशासनिक और न्यायिक व्यवहार में अंग्रेज़ी का बढ़ता वर्चस्व क्षेत्रीय भाषाओं की प्रभावशीलता को सीमित कर रहा है। इस संदर्भ में हिंदी को एक संपर्क भाषा के रूप में—not as a national language but as a democratic link—विचार करने की आवश्यकता है। पंजाब राज्य का व्यवहारिक उदाहरण यह दर्शाता है कि स्थानीय भाषा संरक्षण और हिंदी के साथ संवाद, दोनों समानांतर रूप से संभव हैं। भाषिक विविधता और प्रशासनिक व्यवहार भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में सूचीबद्ध 22 भाषाओं के अतिरिक्त देश में हजारों बोलियाँ प्रचलित हैं। यद्यपि यह विविधता सांस्कृतिक दृष्टि से समृद्ध करती है, परंतु प्रशासनिक, न्यायिक और अंतर-राज्यीय संवाद की दृष्टि से यह कभी-कभी बाधक भी बन जाती है। विशेष रूप से यह समस्या तब उभरती है जब स्थानीय भाषा न तो राज्य शासन के दस्तावेजों की भाषा बन पाती है, न ही उसे केंद्र के साथ संवाद का माध्यम बनने का अवसर मिलता है। इस स्थिति में दो मार्ग सामने आते हैं: या तो अंग्रेज़ी को सर्वमान्य संपर्क भाषा के रूप में स्वीकार किया जाए, या फिर किसी भारतीय भाषा—जैसे हिंदी—को व्यवहारिक संपर्क भाषा के रूप में मान्यता दी जाए। यह लेख दूसरे विकल्प की व्यवहारिकता और औचित्य पर आधारित है। भारत के विभिन्न राज्यों में भाषाई व्यवहार: अनुभव आधारित अध्ययन दक्षिण भारत: हिंदी विरोध, परंतु अंग्रेज़ी पर निर्भरता तमिलनाडु और कर्नाटक जैसे राज्यों में हिंदी के प्रति ऐतिहासिक राजनीतिक प्रतिरोध व्याप्त है। यह प्रतिरोध कभी-कभी सांस्कृतिक संरक्षण के नाम पर सामने आता है, किंतु व्यवहारिक रूप में न्यायिक और प्रशासनिक दस्तावेज़ अंग्रेज़ी में ही बनाए जाते हैं। किरायानामे, अनुबंध-पत्र, शपथपत्र, आवासीय प्रमाण आदि अंग्रेज़ी में होते हैं, जबकि स्थानीय भाषाओं का उपयोग केवल सीमित रह जाता है। यह विरोधाभास इस तथ्य को उजागर करता है कि स्थानीय भाषाओं के पक्ष में प्रतिरोध हिंदी के विरुद्ध होता है, परंतु परिणामतः अंग्रेज़ी को स्थायी स्थान प्राप्त होता है। उत्तर भारत: हिंदीभाषी क्षेत्र में भी अंग्रेज़ी की वर्चस्वता उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और हरियाणा जैसे राज्यों में हिंदी व्यापक रूप से बोली और समझी जाती है। किंतु न्यायिक क्षेत्र में उच्च न्यायालयों और ज़िला न्यायालयों में अंग्रेज़ी का ही प्रयोग होता है। अधिवक्ता और न्यायाधीश प्रायः दस्तावेज़ों को अंग्रेज़ी में तैयार करते हैं, जिससे आम जनता न्याय प्रक्रिया को समझने से वंचित रह जाती है। यह स्थिति दर्शाती है कि केवल हिंदीभाषी होना भी हिंदी के उपयोग की गारंटी नहीं है, और अंग्रेज़ी का औपचारिक वर्चस्व समान रूप से इन राज्यों में भी व्याप्त है। पंजाब: स्थानीय भाषा का व्यवहारिक प्रयोग और हिंदी के साथ सहअस्तित्व पंजाब में गुरुमुखी लिपि में पंजाबी भाषा का व्यापक और औपचारिक उपयोग होता है—चाहे वह किरायानामा हो या अदालत का दस्तावेज़। वहीं, हिंदी को सहज संपर्क भाषा के रूप में अपनाया गया है, विशेषतः केंद्र सरकार से संवाद के स्तर पर। पंजाब का यह मॉडल दर्शाता है कि स्थानीय भाषा के सम्मान और हिंदी के संवादात्मक प्रयोग के बीच कोई विरोध नहीं है। अंग्रेज़ी की आवश्यकता सीमित रह जाती है, और भाषाई संतुलन बनाए रखने की एक व्यवहारिक संभावना साकार होती है। हिंदी को संपर्क भाषा मानने के पक्ष में तर्क जनसांख्यिकीय विस्तार 2011 की जनगणना के अनुसार भारत की 43% जनसंख्या हिंदी या उसकी उपभाषाओं को मातृभाषा के रूप में बोलती है। इस प्रकार हिंदी देश की सर्वाधिक व्यापक रूप से बोली जाने वाली भारतीय भाषा है। 2. भाषाई सुलभता और पारस्परिक समझ हिंदी एक ऐसी भाषा है जिसे उत्तर, मध्य और पश्चिम भारत में सहजता से समझा जाता है। दक्षिण और उत्तर-पूर्व भारत में भी यह दूसरी भाषा के रूप में लोकप्रिय हो रही है, विशेषकर शहरी युवाओं और प्रवासी मज़दूरों के बीच। 3. अंग्रेज़ी पर निर्भरता: भाषाई विषमता का स्रोत अंग्रेज़ी का बढ़ता प्रयोग न केवल भाषाई असमानता उत्पन्न करता है, बल्कि स्थानीय भाषाओं के ह्रास का कारक भी बनता है। अंग्रेज़ी एक “आधिकारिक भाषा” बनकर जन-सामान्य को निर्णय-प्रक्रिया से दूर कर देती है। 4. प्रशासनिक समन्वय की आवश्यकता एक संघीय राष्ट्र में संपर्क भाषा की आवश्यकता प्रशासनिक समन्वय और नीति-निर्माण के लिए अपरिहार्य है। यदि यह भाषा हिंदी हो, तो संवाद अधिक सांस्कृतिक रूप से सन्निहित, सुलभ और सशक्त हो सकता है। ‘राष्ट्रीय भाषा’ नहीं, ‘संपर्क भाषा’ का विमर्श भारतीय संविधान ने किसी भी भाषा को ‘राष्ट्रीय भाषा’ घोषित नहीं किया है। अनुच्छेद 343 में हिंदी को राजभाषा का दर्जा अवश्य दिया गया है, किंतु यह पद केंद्रीय प्रशासन तक सीमित है। ‘राष्ट्रीय भाषा’ की अवधारणा सांस्कृतिक असहमति को जन्म देती है, परंतु ‘संपर्क भाषा’ का प्रस्ताव प्रशासनिक और संवादात्मक आवश्यकता के रूप में सामने आता है। नीतिगत सुझाव 1. हर राज्य में स्थानीय भाषा को प्राथमिक प्रशासनिक और न्यायिक भाषा बनाया जाए, जैसा कि पंजाब में लागू है। 2. हिंदी को केंद्र-राज्य संवाद और अंतरराज्यीय संवाद के लिए संपर्क भाषा के रूप में उपयोग किया जाए, ताकि अंग्रेज़ी पर निर्भरता कम हो। 3. तीन-भाषा नीति को प्रभावी रूप से लागू किया जाए—मातृभाषा, हिंदी (या कोई अन्य भारतीय संपर्क भाषा) और अंग्रेज़ी, सभी को संतुलित रूप से सिखाया जाए। 4. स्थानीय भाषाओं में कानूनी साक्षरता अभियान चलाए जाएं, जिससे जन-सामान्य अपने अधिकारों को बेहतर समझ सके। भाषाओं का सहअस्तित्व भारत की लोकतांत्रिक शक्ति है, परंतु संवाद का साधन सभी के लिए समान और सुलभ होना चाहिए। हिंदी को संपर्क भाषा के रूप में अपनाना, यदि राजनीतिक रूप से संवेदनशील रूप में नहीं बल्कि व्यवहारिक नीति के रूप में किया जाए, तो यह न केवल अंग्रेज़ी के एकाधिकार को चुनौती देगा, बल्कि भारत की विविध भाषाओं को संरक्षण और प्रोत्साहन देने का मार्ग भी प्रशस्त करेगा। पंजाब इसका जीवंत उदाहरण है, जहाँ भाषिक अस्मिता और संवादात्मक व्यावहारिकता साथ-साथ चलती हैं। दक्षिण भारत के लिए यह एक नीतिगत प्रेरणा बन सकता है कि हिंदी को अस्वीकार कर अंग्रेज़ी को अपनाने से अच्छा है कि स्थानीय भाषा के साथ-साथ हिंदी को भी सम्मानपूर्वक अपनाया जाए, ताकि भारतीय भाषाओं का भविष्य सशक्त, स्वाभाविक और स्वतंत्र हो। संदर्भ 1. भारत सरकार (1963), राजभाषा अधिनियम 2. जनगणना 2011, भारत सरकार 3. पटनायक, डी. पी. (1990), Multilingualism in India, Multilingual Matters 4. अन्नामलाई, ई. (2001), Managing Multilingualism in India, Sage Publications 5. EPW Archives (1995–2020): भाषा नीति एवं प्रशासन पर लेख

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5/26/2025, 12:08:21 AM

भारत की 4 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था — उपलब्धि की आधी कहानी भारत ने हाल ही में 4 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने की ऐतिहासिक उपलब्धि हासिल की है। यह आंकड़ा न केवल भारत की वैश्विक आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि देश निवेश, उत्पादन और व्यापार के क्षेत्र में लगातार प्रगति कर रहा है। इस उपलब्धि को जापान को पीछे छोड़ने के रूप में प्रचारित किया गया, जिसने प्रतीकात्मक रूप से भारत को एशिया की प्रमुख आर्थिक शक्ति के रूप में स्थापित कर दिया है। लेकिन जब इस आर्थिक सफलता की पड़ताल हम सामाजिक व मानवीय विकास के मानकों के आधार पर करते हैं, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि यह सफलता अधूरी है। आर्थिक विकास बनाम मानवीय विकास भारत की अर्थव्यवस्था का आकार बड़ा हुआ है, परंतु यदि हम इसे प्रति व्यक्ति आय और मानव विकास सूचकांक (HDI) के संदर्भ में देखें, तो तस्वीर पूरी तरह से अलग है। जापान को पीछे छोड़ देने के बावजूद, भारत जापान से जीवन गुणवत्ता के कई मामलों में दशकों पीछे है। प्रति व्यक्ति आय की विसंगति भारत की कुल GDP भले ही 4 ट्रिलियन डॉलर तक पहुँच गई हो, परंतु प्रति व्यक्ति आय अभी भी बहुत कम है — लगभग $2,500 प्रतिवर्ष। इसके मुकाबले जापान की प्रति व्यक्ति आय $40,000 से अधिक है। इसका अर्थ यह है कि भारत में आर्थिक विकास का लाभ बहुत सीमित वर्ग तक केंद्रित है। एक बड़े तबके के लिए यह ‘विकास’ केवल एक आंकड़ा मात्र है, जिसका उनके जीवन से कोई सीधा संबंध नहीं है। मानव विकास सूचकांक (HDI) की वास्तविकता मानव विकास सूचकांक तीन मुख्य क्षेत्रों को मापता है — जीवन प्रत्याशा, शिक्षा और जीवन स्तर। • जीवन प्रत्याशा: जापान की औसत जीवन प्रत्याशा लगभग 84 वर्ष है, जबकि भारत की केवल 70 वर्ष के आसपास है। • शिक्षा: भारत में प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा की गुणवत्ता और पहुँच अभी भी असमान है, और उच्च शिक्षा में भी संसाधनों की भारी कमी है। • स्वास्थ्य सेवाएँ: भारत की सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली संसाधनों की कमी और कुप्रबंधन से ग्रस्त है, जिससे गरीब और ग्रामीण जनता बुरी तरह प्रभावित होती है। नीतिगत प्राथमिकताओं की खामी भारत की आर्थिक नीतियाँ मुख्यतः सकल घरेलू उत्पाद(GDP) वृद्धि पर केंद्रित रही हैं। स्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा जैसे बुनियादी क्षेत्रों में अपेक्षित निवेश नहीं हो सका है। इस एकांगी सोच का परिणाम यह है कि देश की समृद्धि केवल कुछ शहरों और औद्योगिक केंद्रों तक सीमित रह गई है, जबकि ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्रों में विकास की रोशनी अभी तक नहीं पहुँची। भारत में सामाजिक असमानता, बेरोजगारी, और खाद्य सुरक्षा जैसे मुद्दे अब भी गंभीर चुनौती बने हुए हैं। नीतिगत रूप से समावेशी विकास को प्राथमिकता न देने के कारण ही भारत आर्थिक आकड़ों में आगे होते हुए भी मानवीय विकास में पिछड़ रहा है। भारत का 4 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनना निश्चित रूप से एक बड़ी उपलब्धि है, लेकिन यह सफलता की आधी कहानी है। जब तक यह आर्थिक प्रगति आम नागरिक के जीवन स्तर को बेहतर बनाने में योगदान नहीं देती, और जब तक देश मानव विकास सूचकांक जैसे सूचकों पर वैश्विक मानकों के करीब नहीं पहुँचता, तब तक यह विकास अधूरा रहेगा। भारत को अब आवश्यकता है एक ऐसे दृष्टिकोण की, जो केवल आर्थिक वृद्धि पर नहीं, बल्कि समावेशी, न्यायसंगत और स्थायी विकास पर केंद्रित हो — जहाँ न केवल देश का आकार बड़ा हो, बल्कि हर नागरिक का जीवन भी बेहतर हो।

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5/17/2025, 8:29:38 AM

Behind the Words: Translating The Making of a Campus – IIM Bangalore Over the past few months, I had the opportunity to work on the translation of The Making of a Campus – IIM Bangalore. What started as a language project soon became a deeply engaging experience—intellectually rich, emotionally resonant, and professionally fulfilling. This book is far more than an institutional history. It is a layered narrative of how a campus—both physical and philosophical—was envisioned, built, and lived in. From Dr. B.V. Doshi’s iconic architecture to the voices of students, professors, and administrators, the book captures the soul of IIMB through stories of challenge, vision, and community. As a translator, the challenge was not just about linguistic accuracy—it was about preserving tone, emotion, and nuance. Whether it was recounting a professor’s commitment to pedagogy or a student’s memory of late-night library sessions, each story required a sensitive rendering that stayed true to its spirit. While the translation is still a work in progress, the journey so far has reminded me why documentation like this matters. Institutions are not built in a day—they evolve through shared aspirations, honest dialogue, and quiet perseverance. Books like these offer future generations not just information, but inspiration. Grateful to have contributed, in a small way, to this story of vision and legacy. #Translation #HigherEducation #IIMBangalore #CampusStories #InstitutionBuilding #ProfessionalReflection #AcademicTranslation

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5/26/2025, 10:30:33 AM

वट सावित्री व्रत: अध्यात्मिकता बनाम लोकबुझौन प्रियता – वट सावित्री व्रत, सावित्री-सत्यवान की पौराणिक कथा पर आधारित एक लोक परंपरा है, जो स्त्री के पति-परायण धर्म, त्याग और आत्मबल को महिमामंडित करती है। यह पर्व स्त्री के उस संघर्षशील चरित्र का प्रतीक है, जिसमें वह पति की मृत्यु तक से संघर्ष करती है। किन्तु जब हम आज से लगभग 2500 से तीन हजार वर्ष पुराने इस आख्यान को वर्तमान समाज की कसौटी पर कसते हैं, तो कई प्रश्न उभरते हैं – क्या अब भी पति की सुरक्षा का उपाय उपवास और पूजन ही है? क्या यह व्रत आज भी उसी अर्थ में प्रासंगिक है, या यह अब केवल लोकबुझौन (लोकप्रियता के लिए किया जाने वाला सामाजिक आडंबर) बनकर रह गया है? ⸻ अध्यात्मिकता बनाम लोकबुझौन प्रियता व्रत-उपवास की परंपरा भारतीय संस्कृति में आत्मनियंत्रण और साधना का प्रतीक रही है। सावित्री की कथा में नारी का धैर्य, तप और विवेक एक अध्यात्मिक चरम की ओर संकेत करता है – जहाँ वह अपने ‘धर्म’ के बल पर मृत्यु जैसे प्राकृतिक नियम को भी चुनौती देती है। यह किसी स्त्री की भौतिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक शक्ति की कथा है। परंतु आज का सामाजिक परिप्रेक्ष्य इस आध्यात्मिकता से बहुत हद तक विचलित हो चुका है। व्रत की आंतरिक साधना की जगह बाह्य प्रदर्शन, वस्त्र-आभूषण, सोशल मीडिया पर तस्वीरें और सामूहिक आयोजनों ने ले ली है। यह रूप अधिकतर ‘लोकबुझौन प्रियता’ का परिचायक है – जहाँ परंपरा का पालन आत्मिक श्रद्धा से अधिक सामाजिक मान्यता और ‘कृत्रिम संस्कारबोध’ के तहत किया जाता है। ⸻ समाज में परिवर्तन और स्त्री की भूमिका 2500 वर्षों में भारतीय समाज में गहरे सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिवर्तन आए हैं। आज की स्त्री शिक्षा प्राप्त है, आत्मनिर्भर है, और पारिवारिक के साथ-साथ सामाजिक-राजनीतिक जीवन में भी सक्रिय है। अब वह केवल ‘पति की छाया’ में रहने वाली पत्नी नहीं, बल्कि परिवार की समान भागीदार है। ऐसे में यह प्रश्न उठता है कि क्या आज भी पति की दीर्घायु और सुरक्षा का उपाय केवल स्त्री के व्रत और पूजा में निहित होना चाहिए? या फिर अब पारिवारिक सुरक्षा, स्वास्थ्य, संवाद, सहयोग और समानता पर आधारित संबंध अधिक प्रासंगिक हैं? सावित्री के युग में स्त्री के पास शायद विकल्प सीमित थे; उसका साधन आस्था था। पर आज की स्त्री के पास विकल्प और स्वतंत्रता दोनों हैं। इसलिए अब केवल पूजा-पाठ से अधिक आवश्यक है कि पति-पत्नी दोनों एक-दूसरे के मानसिक, शारीरिक और सामाजिक स्वास्थ्य की जिम्मेदारी बराबरी से उठाएं। व्रत का सामाजिक पुनर्पाठ यह आवश्यक नहीं कि वट सावित्री व्रत को त्याग दिया जाए, पर यह आवश्यक है कि हम इसके अर्थ को पुनर्परिभाषित करें। सावित्री केवल एक पतिव्रता स्त्री नहीं, वह न्याय के लिए लड़ने वाली, मृत्यु से डर न खाने वाली, और तार्किक संवाद करने वाली स्त्री है। यदि हम इस व्रत को केवल उपवास तक सीमित कर देते हैं, तो हम सावित्री की आत्मा से ही वंचित रह जाते हैं। आज का समाज तकनीकी, चिकित्सकीय और सामाजिक रूप से विकसित हो चुका है। पति की दीर्घायु अब आस्था और उपवास से अधिक, जीवनशैली, भावनात्मक संवाद, और समान सहभागिता से जुड़ी है। अस्पताल के खर्च, बीमा के प्रति जानकार होना, शिक्षा के माध्यम से जीवन रक्षा के उपायों के प्रति सजगता। आर्थिक रूप से सशक्त होने के उपाय करना। वट सावित्री व्रत का मूल्य अपडेट कर सकते हैं आज से यह तभी जुड़ेगा जब यह केवल एक रस्म नहीं, बल्कि स्त्री की चेतना, आत्मबल और विवेक का उत्सव बने। विवेकहीन होकर पेड काट कर उसकी डाल के सहारे रस्म अदायगी कितनी अध्यातमिकता है ? यह तभी अध्यात्मिकता के स्तर पर भी सजीव रहेगा जब आप आज की चुनोतियौं को समझेंगे।

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सुलेखसंवाद
6/6/2025, 7:01:44 AM

“मैसूरपाक” नहीं, अब कहिए “मैसूरश्री” — मिठास का शुद्धिकरण अभियान! सावधान रहिए, आपकी मिठाई “देशद्रोही” हो सकती है! जी हाँ, आपने अब तक जिस मिठाई को बड़े प्रेम से खाया—जिसका घी आपको डॉक्टर के पास ले गया, और जिसकी सुगंध ने पूरे मोहल्ले को दादी के घर की याद दिला दी—वह “मैसूरपाक”, अब शुद्ध भाषा प्रेमियों के रडार पर है। क्योंकि… उसमें “पाक” है। और “पाक” मतलब… पाकिस्तान? नहीं नहीं, इसका संस्कृत से कोई लेना-देना मत खोजिए! आजकल व्युत्पत्ति से ज्यादा वायरलता चलती है। कौन कहे कि “पाक” का संबंध “पक्व” या “पाकशास्त्र” से है, जब आप व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी से सीख सकते हैं कि “पाक” बस एक दुश्मन देश है। अतः “पाक” शब्द भी “गद्दार” घोषित! इसलिए कुछ नवभाषाई राष्ट्रवादी राष्ट्र प्रेमी जिनके प्रेम और विमर्श में अपने देश की भाषा और पंरपरा समझने का कोई अंश नहीं ऐसे तथाकथित शुद्धतावादी सज्जनों ने प्रस्ताव रखा है कि अब से हम इसे “मैसूरश्री” कहें। आखिर “श्री” सुनने में कितना संस्कारी लगता है! अब चाहे व्याकरण बेहोश हो जाए या मिठाई का मूल अर्थ ही गल जाए, नाम तो वंदनीय हो गया न? यह परिवर्तन क्यों ज़रूरी है? क्योंकि अब भाषा वह नहीं जो हम बोलते हैं, भाषा अब वह है जो हमें कृत्रिम रूप से पवित्र लगे। अगर “पाक” कहने से कोई याद दिला दे कि संस्कृत में इसका मतलब ‘पकाना’ होता है, तो जवाब होगा: “हमें मतलब नहीं, हम भावना में जीते हैं।” पाककला विभाग अब से होगा “श्रीकला विभाग”। पाकशास्त्र अब “श्रीभोजन विज्ञान”। और ध्यान रहे, रसोईघर में अगर कोई ‘पाक’ बोलेगा, तो उसे देशभक्त चाय पर बुलाया जाएगा – बिना शक्कर, सिर्फ बुलडोज़र के स्वाद के साथ। भाषा का यह अल्पज्ञान कहाँ तक जाएगा? • पाकिट → अब से “जेबश्री” • पाकिस्तान → “अवांछनीय भूमि” • पाक कला → “आध्यात्मिक अग्नि संस्कार” भाषा केवल संप्रेषण का माध्यम नहीं, वह एक सांस्कृतिक दस्तावेज होती है। शब्दों के अर्थ, उनका व्युत्पत्तिगत आधार और ऐतिहासिक संदर्भ, समाज की चेतना और सांस्कृतिक समझ को प्रकट करते हैं। इसी संदर्भ में जब हम “पाक” शब्द की बात करते हैं, तो यह महज किसी व्यंजन का पर्याय नहीं, बल्कि एक समृद्ध सांस्कृतिक अवधारणा है। संस्कृत से निकला “पाक” शब्द मूलतः “पच्” धातु से बना है, जिसका अर्थ है पकाना या भोजन तैयार करना। “पाकशास्त्र”, “पाककला”, “पाकगृह”, “पाकविद्या” जैसे शब्दों में यह व्याप्त है। यही “पाक” शब्द दक्षिण भारत में एक प्रसिद्ध मिठाई के नाम – “मैसूरपाक” – में दिखाई देता है। खैर आने वाले समय में हो सकता है “गुलाबजामुन” पर भी गाज गिरे, क्योंकि “गुलाब” फारसी शब्द है। उसके लिए भी नया नाम सोचिए – “देशभक्त रसगोल्ला वर. 2.0”। भाषाई दुराग्रह अर्थ को नहीं, ध्वनि को देखकर शब्दों का बहिष्कार करता है। जिसे संस्कृत की ध्वनि प्यारी है पर उसका व्याकरण समझने की फुर्सत नहीं। जो “कला” को “कली” समझ बैठते हैं और “संस्कृति” को “सनातनी ड्रेसकोड”। “मैसूरपाक” का “श्रीकरण” भाषा का नहीं, मानसिकता का हास्य है।

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सुलेखसंवाद
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6/5/2025, 10:42:00 AM

देवियो और सज्जनो! अमिताभ बच्चन को इस बात के करोड़ों रुपए दिए जा रहे हैं कि वह लोगों को यह बताएं कि उनसे जो साइबर ठगी हो रही है इसकी वजह उनका अपना लालच और गलती है। वीडियो कॉल पर नकली पुलिस को न पहचान पाना भी लोगों की गलती है। लोगों को गलती का यह झूठा अहसास और अपराधबोध इसलिए कराया जा रहा है ताकि वे पलट कर मोबाइल कंपनियों और ट्राई से ये न पूछें कि अपराधियों को ग्राहकों का पूरा डाटा क्यों बेचा जा रहा है? अपराधियों को सर्वर एक्सेस पैसा लेकर क्यों दिया जा रहा है? और इस सारे खेल को ट्राई चुपचाप क्यों देख रहा है? तकनीकी का इतना सशक्त होना फिर भी समान रूप से पिछले कई साल से ऐसा लगना जैसे डाटा कंपनियों की नियामक संस्था ट्राई पूरी तरह मर चुकी है। साथ साथ चल रही घटना है। इसके अधिकारी और कर्मचारी गरीब जनता को निचोड़कर वसूले जा रहे जीएसटी और अन्य करों से मोटा वेतन पाते हैं मगर काम जनता के हित में नहीं, कुछ चुनिंदा निजी डाटा कंपनियों के हित में करते हैं।

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5/19/2025, 4:11:44 AM

क्या आप जानते हैं कल 18 मई को अंतरराष्ट्रीय संग्राहलय दिवस था? जब दुनिया हर क्षण रीलों, ट्रेंडों और स्क्रोलिंग के माध्यम से अनुभव की जा रही हो, तब यह प्रश्न स्वाभाविक है: संग्रहालय का स्थान आज कहाँ है? हम, जो डिजिटल तात्कालिकता और शाश्वत विरासत के बीच झूल रहे हैं, अंतरराष्ट्रीय संग्रहालय दिवस को कैसे सार्थक रूप से मना सकते थे या हैं? हर वर्ष 18 मई को मनाया जाने वाला संग्रहालय दिवस (म्यूज़ियम डे) केवल अतीत को श्रद्धांजलि देने का दिन नहीं है — यह हमें याद करने और पुनः जुड़ने का आमंत्रण है। संग्रहालय केवल स्मृतियों के मक़बरे नहीं हैं; वे मानव चेतना के जीवित मंदिर हैं। वे खिड़कियाँ हैं इतिहास की ओर और आईने हैं हमारी आत्मा के। तो इस युग में, म्यूज़ियम डे का दर्शन कैसे समझना चाहिए? संग्रहालय: विस्मृति का प्रतिकार दार्शनिक सैंटायाना ने कहा था, “जो लोग अतीत को याद नहीं रखते, वे उसे दोहराने को अभिशप्त हैं।” संग्रहालय हमारे सामूहिक स्मृति-कोश हैं — वे न केवल हमारी महानता बल्कि हमारी भूलों को भी संजोते हैं। रील्स की दुनिया तेज़ है, सतही है। संग्रहालय हमें धीरे चलना सिखाते हैं। वहाँ विचार होता है, संवाद होता है, आत्मनिरीक्षण होता है। एक चित्र या मूर्ति को देखकर हम आगे नहीं बढ़ सकते; हम ठहरते हैं, सोचते हैं, महसूस करते हैं। यही एक गूढ़, लगभग आध्यात्मिक अनुभव है — जिसे आज के युग में फिर से पाना क्रांतिकारी कृत्य है। रील्स की दुनिया की आदि यह वर्तमान सभ्यता क्षणिकता के पशोपेश में है — ट्रेंड्स की हफ्तों में बदल जाने वाली त्वरितता संग्रहालय के शाश्वत को देखने की मंद गति का विरोध है — मिट्टी का हज़ारों साल पुराना बर्तन, एक लुप्त सभ्यता का अवशेष, एक प्राचीन पांडुलिपि। तो म्यूज़ियम डे का उत्सव केवल अतीत की ओर लौटना नहीं, बल्कि विरासत और नवीनता का मिलन है। हर व्यक्ति एक संरक्षक हम अक्सर संग्रहालयों को ‘दूसरा’ मानते हैं — पर्यटन का एक पड़ाव। लेकिन म्यूज़ियम डे का सच्चा उत्सव तब होगा जब हम स्वयं को एक संरक्षक (custodian) समझें। हम सब के पास कुछ संजोने लायक है — कोई कहानी, कोई भाषा, कोई परंपरा। जहां इंस्टाग्राम जैसे डिजिटल माध्यम अपनी वृत्ति में दिखाता है क्या है, वहीं संग्रहालय का चरित्र सिखाता है कुछ भी ऐसा क्यों है। इस दिन, सबसे बड़ा दर्शन शायद यह प्रश्न है: “मैं क्या संजो रहा हूँ?”, “मैं क्या आगे पहुँचा रहा हूँ?” संग्रहालय दिवस को केवल स्मरण का नहीं, बल्कि संस्कृति की रक्षा का एक सचेतन कार्य बना सकते हैं। रीलों में केवल सेल्फ़ी नहीं, कहानियाँ हों — उन वस्तुओं की, उन लोगों की, जिनकी वजह से हम यहाँ हैं। रील्स को विरासत का वाहक बनाएँ। हैशटैग से आगे जाकर धीमी गति के सभ्यता मूलक तत्वों की बात करें। क्योंकि अंततः संग्रहालय कोई भवन नहीं, बल्कि एक विश्वास है — कि हमारा अतीत, हमारे भविष्य को आकार देता है। इस तेज़ बदलती दुनिया में, शायद यही सबसे क्रांतिकारी उत्सव है।

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सुलेखसंवाद
सुलेखसंवाद
5/17/2025, 8:29:33 AM
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