
नीरज कौशिक स्वयंसेवक
February 19, 2025 at 06:01 AM
'हिंदी हैं हम' शब्द शृंखला में आज का शब्द है प्रतिरूप, जिसका अर्थ है- प्रतिमा, मूर्ति, चित्र, नमूना। प्रस्तुत है मैथिलीशरण गुप्त की कविता- नक़ली क़िला
आज भी चित्तौर का सुन नाम कुछ जादू भरा,
चमक जाती चंचला-सी चित्त में करके त्वरा।
जिस समय लाखा नृपति सिंहासनस्थि थे वहाँ,
उस समय की यह विकट घटना प्रकट देखो यहाँ॥
एक बार अमर्ष पूर्वक तप्त होकर त्वेष से,—
प्रण किया ऐसा उन्होंने एक हेतु विशेष से—
“दुर्ग बूँदी का स्वयं तोड़े बिना ही अब कहीं—
ग्रहण जो मैं अन्न या जल करूँ तो क्षत्रिय नहीं॥”
कर दिया प्रण तो उन्होंने क्रोध में ऐसा कड़ा,
किंतु बूँदी-दुर्ग का था तोड़ना दुष्कर बड़ा।
इसलिए उनके शुभैषी सचिव चिंता में पड़े,
रह गए चित्रस्थ-से वे चकित ज्यों के त्यों खड़े॥
सोच एक उपाय फिर वे निज विवेक विचार से,
विनय राना से लगे करने अनेक प्रकार से।
देख सकते हैं अशुभ क्या स्वामि का सेवक कभी?
हों न हों कृत-कार्य तो भी यत्न करते हैं सभी॥
“वीरवर्योचित हुआ यह प्रण यदपि श्रीमान का,
काम है यह योग्य ही श्रीराम की संतान का।
वैर-शुद्धि किए बिना वर वीर रह सकते नहीं,
स्वाभिमानी जन कभी अपमान सह सकते नहीं॥
दुर्ग-बूँदी का यदपि हमको प्रथम है तोड़ना,
किंतु कैसे हो सकेगा अन्न-जल का छोड़ना?
खान-पान बिना किसी के प्राण रह सकते नहीं,
प्राण जाने पर भला प्रण पूर्ण हो सकता नहीं?
प्रेरणा करती प्रकृति जिस कार्य के व्यापार में,
त्राण हो सकता नहीं उसके बिना संसार में।
नित्य-कृत्य न छोड़ कर आज्ञा हमें दीजे अत:,
भृत्य ही हैं किसलिए जो श्रम करे स्वामी स्वत:॥
इष्ट-सिद्धि कहाँ रही फिर जब न साधन ही रहा,
कार्य करना भूप का आदेश देना ही कहा।
हो गया पूरा उसी क्षण आपका यह प्रण नया,
कह दिया जो सज्जनों ने जान लो वह हो गया॥
हो प्रथम प्रस्तुत हमें चलना यहाँ से दूर है,
पहुँच कर बूँदी पुन: करना समर भरपूर है।
तब कहीं अवसर क़िले के तोड़ने का आएगा,
काम क्या तब तक भला भोजन बिना चल जाएगा?
दिन लगेंगे क्या न कुछ भी इस कठिनतर काम में?
कौन जाने काल कितना नष्ट हो संग्राम में?
तोड़ने देंगे हमें क्या दुर्ग शत्रु बिना लड़े?
देख सकता कौन अपना सर्वनाश खड़े-खड़े?
अस्तु, कृत्रिम दुर्ग तब तक तोड़ बूँदी का यहीं,
कीजिए निज नियम रक्षा, छोड़िए भोजन नहीं।
देह रक्षा योग्य है निज इष्ट-साधन के लिए,
है असंभव कार्य सब तन की बिना रक्षा किए॥
दुर्ग को जो तोड़ने का आपने प्रण है किया,
हो सकेगी क्या कभी तनु के बिना उसकी क्रिया?
इसलिए तब तक उचित है नियम पालन विधि यही,
तनु रहे, साधन सफल हो, विज्ञता बस है वही॥
अन्न जल को छोड़ने की आपकी सुन कर कथा,
तज न देंगे अन्न जल क्या अन्य जन भी सर्वथा?
यह महान अनिष्ट होगा जानिए निश्चय इसे,
त्याग दें जो आप तो फिर ग्राह्य हो भोजन किसे?”
युक्ति से समझा बुझा कर मंत्रियों ने भूप को,
तोड़ना निश्चित किया उस दुर्ग के प्रतिरूप को।
अस्तु बूँदी दुर्ग कृत्रिम शीघ्र बनवाया गया,
मच गया चित्तौर में तब एक आंदोलन नया॥
उस समय बूँदी-निवासी भृत्य राना का भला,
वीर हाड़ा कुंभ था आखेट से आता चला।
साथियों के सहित जब आया वहाँ पर वह कृती,
देख उसको भी पड़ी उस दुर्ग की वह प्रतिकृती॥
तब कुतूहल-वश लगा वह पूछने कारण सही,
किंतु उसके जानने पर पूर्व-सी न दशा रही।
हो गया गंभीर मुख, संपूर्ण आतुरता गई,
भृकुटि-कुंचित भाल पर प्रकटी प्रभा तेजोमयी॥
वीर कुंभ न सह सका यह मातृभूमि-तिरस्क्रिया,
क्षत्रियोचित धर्म ने उसको विमोहित कर दिया।
यदपि कृत्रिम किंतु वह भव-भूमि ही तो थी अहो!
स्वाभिमानी जन उसे फिर भूलता कैसे अहो?
त्याग पादत्राण, रख मारे हुए मृग को वहीं,
सुध रही उस वीर को उस काल अपनी भी नहीं।
वंदना उस दुर्ग की करने लगा वह भाव से,
शीश पर उसने वहाँ की रज चढ़ाई चाव से॥
शीघ्र रक्त-प्रवाह उसकी देह में होने लगा,
बीज विद्युद्वेग से वीरत्व का बोने लगा।
मातृभूमि-स्नेह-जल निश्चल हृदय धोने लगा,
मान मन को मत्त करके मृत्यु-भय खोने लगा॥
यदपि सर्व शरीर उसका जल रहा था त्वेष से,
किंतु मौन न रह सका वह भक्ति के उन्मेष से।
उस समय उद्गार सहसा जो निकल उसके पड़े,
अर्थ-पूरित रत्न हैं वे शुचि सुवर्णों में, जड़े॥
“पुष्ट हो जिसके अलौकिक अन्न-नीर समीर से,
मैं समर्थ हुआ सभी विध रह विरोग शरीर से।
यदपि कृत्रिम रूप में वह मातृभूमि समक्ष है,
किंतु लेना योग्य क्या उसका न मुझको पक्ष है?
जन्मदात्री, धात्रि! तुझसे उऋण अब होना मुझे,
कौन मरे प्राण रहते देख सकता है तुझे?
मैं रहूँ चाहे जहाँ, हूँ किंतु तेरा ही सदा,
फिर भला कैसे न रक्खूँ ध्यान तेरा सर्वदा?
यदपि मेरा काल अब मेरे निकट आता चला,
किंतु जीने की अपेक्षा मान पर मरना भला।
जब कि एक न एक दिन मरना सभी को है यहाँ,
फिर मुझे अवसर मिलेगा आज के जैसा कहाँ?”
जानुओं को टेक तब वह प्रेम अद्भुत में पगा,
देव-सम उस दुर्ग की रक्षा वहाँ करने लगा।
देख कर उस काल उसको जान पड़ता था यही—
मूर्तिमान महत्व से मंडित हुई मानों मही॥
वध किया मृग पास रक्खे, धनुष धारे धीर ज्यों,
दुर्ग के द्वारे सजग, शोभित हुआ वह वीर यों—
लौट कर आखेट से निज मान मद में मोहता—
गिरि-गुहा-द्वारस्थ ज्यों निर्भय मृगाधिप सोहता॥
वीर कुंभ इसी तरह निश्चय वहाँ बैठा रहा,
शुद्ध साधन सिद्धि की संप्राप्ति में पैठा रहा।
तब प्रतिज्ञा पालने को शस्त्र लेकर हाथ में,
आ गए राना वहाँ कुछ सैनिकों के साथ में॥
देखते ही कुंभ उनको, धनुष पर रख शर कड़ा,
सहचरों के सहित उठकर हो गया रण को खड़ा।
उस समय उसकी रुचिरता देखने के योग्य थी,
शील-युत हठ-पूर्ण थिरता देखने ही योग्य थी॥
दुर्ग के नाशार्थ ज्यों-ज्यों वे निकट आने लगे,
भाव त्यों-त्यों कुंभ के अत्युग्रता पाने लगे।
क्रोध से उसके वदन पर स्वेद-जल बहने लगा,
पोंछ कर उसको अत: यों वचन कहने लगा—
“सावधान! यहाँ न आना, दूर ही रहना वहीं,
देखना, निज बाण मुझको छोड़ना न पड़े कहीं।
भृत्य होने से तुम्हारा मैं जताने को रहा,
अन्यथा कब का यहाँ पर दीखता शोणित बहा!
प्राण बेचे हैं तुम्हें बेचा न मैंने मान है,
धर्म के संबंध में नृप और रंक समान है।
बंधु भी अवहेलना करने तुम्हारी जो चले,
क्षोभ से तो क्या तुम्हारा उर न उस पर भी जले?
स्वर्ग से भी श्रेष्ठ जननी जन्म-भूमि कही गई,
सेवनीया है सभी की वह महा महिमामयी।
फिर अनादर क्या उसी का मैं खड़ा देखा करूँ?
भीरु हूँ क्या मैं अहो! जो मृत्यु से मन में डरूँ?
तोड़ने दूँ क्या इसे नक़ली क़िला मैं मान के,
पूजते हैं भक्त क्या प्रभु-मूर्ति को जड़ जान के?
भ्रांत जन उसको भले ही जड़ कहें अज्ञान से,
देखते भगवान को धीमान उसमें ध्यान से॥
है न कुछ चित्तौर यह, बूँदी इसे अब मानिए,
मातृभूमि पवित्र मेरी पूजनीया जानिए।
कौन मेरे देखते फिर नष्ट कर सकता इसे?
मृत्यु माता की जगत में सह्य हो सकती किसे?
योग्य क्या सीसोदियों को इस तरह प्रण-पालना?
है भला क्या सत्य का संहार यों कर डालना!
सरल इससे तो यही थी साध लेनी साधना,
तोड़ लेते चित्त ही में दुर्ग बूँदी का बना!
अंत में फिर मैं यही कहता तुम्हें प्रभु जान के,
लौट जाओ तुम यहाँ से बात मेरी मान के।
अन्यथा फिर मैं न जानूँ, दोष मत देना मुझे,
प्राण-नाशक बाण मेरे हैं विषम विष में बुझे॥”
यों वचन सुन कुंभ के विस्मित हुए राना बड़े,
बढ़ सके आगे न सहसा रह गए रुक कर खड़े।
ग्लानि, लज्जा, क्रोध आदिक भाव बहु मन में जगे,
किंतु वे इस भाँति फिर उत्तर उसे देने लगे—
“वीर कुंभ! विचार ऊँचे हैं तुम्हारे सर्वथा,
किंतु दोषारोप अब मुझ पर तुम्हारा है वृथा!
वीर बूँदी के स्वयं मौजूद हो जब तुम यहाँ,
फिर कहो, प्रण-पालना झूठा रहा मेरा कहाँ?”
क्रुद्ध हो तब कुंभ ने शर से उन्हें उत्तर दिया,
किंतु राना ने उसे झट ढाल पर ही ले लिया।
फिर वहाँ कुछ देर को पूरी लड़ाई मच गई,
वध किये उस वीर ने मरते हुए भी रिपु कई॥
उष्ण शोणित-धार से धरणी वहाँ की धो गई,
कुंभ के इस कृत्य से कृतकृत्य बूँदी हो गई।
इस तरह उस वीर ने प्रस्थान सुरपुर को किया,
राजपूतों की धरा को कीर्तिधवलित कर दिया॥