नीरज कौशिक-एक साधारण स्वयंसेवक
नीरज कौशिक-एक साधारण स्वयंसेवक
February 25, 2025 at 07:10 AM
'हिंदी हैं हम' शब्द शृंखला में आज का शब्द है- अगिन, जिसका अर्थ है- अग्नि, आग, अगणित, बेशुमार। प्रस्तुत है राघवेन्द्र शुक्ल की कविता- क्यों पराजय गुनगुनाऊँ? शब्द की नव-सर्जना की शक्ति को मैं क्यों लजाऊं? क्यों पराजय गुनगुनाऊँ? पृष्ठ भावों के भरे हैं अगिन रंगों के सृजन से। पर न जाने क्यों न जाती एक काली टीस मन से। वायु के विजयी स्वरों ने राख में फिर अग्नि डाली। सूर्य के रथ चढ़ नियति में लौट आयी रात काली। अब करूं क्या! फिर सुलगने की कहाँ से शक्ति पाऊँ। क्यों पराजय गुनगुनाऊँ! जानते हैं सब, यहाँ जो कुछ मिले संजोग है। हां, मगर यह जानकर भी कब रुका उद्योग है। उद्योग, जिसकी परिणति में है न केवल जीत ही। उद्योग लिखता जीत की प्रस्तावना भी, गीत भी। प्रस्तावना को हार कह संभावनाएं क्यों बुझाऊँ! क्यों पराजय गुनगुनाऊँ? हमने चाहा है जिसे छीना गया वो हाथ से। हम वो पारस स्वर्ण, होवे मृदा, जिसके साथ से। नियति का यह रंग है फिर भी भुवन पर चढ़ रहे, कुछ चित्र जीवन पृष्ठ पर बिन रंग ही के गढ़ रहे। अब बस कभी रंगों के जंजालों में ना जीवन फंसाऊं। क्यों पराजय गुनगुनाऊं। हम चले थे कुछ अंधेरों की पहनकर बेंड़ियां। उन पगों ने अब उजालों की रची हैं श्रेणियां। थमना नहीं, बुझना नहीं यह विश्व चाहे वाम है- मद्धम सही, पर सतत जलना ही दिए का काम है। सोचता हूं क्यों न मद्धम दीप-सा ही झिलमिलाऊं? क्यों पराजय गुनगुनाऊँ?
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