
Kitabganj / किताबगंज
January 31, 2025 at 04:29 PM
वीआईपी दर्शन
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उन्हें लाइन में लगने की आदत नहीं थी। 27 साल की उम्र में यूपीएससी निकल जाने के बाद शायद ही कभी उन्हें किसी ने लाइन में लगने को कहा हो।
भारतवर्ष के मंदिर-संगम-कुंभ, जहां जाते वहां प्रोटोकॉल तैयार रहता था। पुलिसवाले रस्ता खाली करवाते, पंडितजी खुद बाहर आकर उन्हें रिसीव करते।
पर आज उन्हें लाइन में लगा दिया गया है। उन्हें उकताहट होने लगी, झल्लाहट में उन्होंने किसी को झिड़कना चाहा वाले की शर्ट सूंघ रहा था। कोई हवलदार-चौकीदार भी नज़र नहीं आ रहा था जो उन्हें अलग कर वीआईपी लाइन में लगवा दे।
उन्हें ठीक-ठीक तो याद नहीं था पर काफी देर तो उन्हें हो चुकी थी। इतनी देर तो जरूर हो चुकी थी कि वो ये याद नहीं कर पा रहे थे कि आखिर इस लाइन में वो लगे क्यों। दूर में एक मंदिर तो नज़र आ रहा था पर उन्होंने इस मंदिर को देखने का कब सोचा था ये याद नहीं आ रहा था। बहुत जोर लगाया पर कुछ याद नहीं आ रहा।
पता नहीं कितना वक्त गुज़रा कभी रात नहीं हो रही थी। उन्होंने सूरज को नाप कर घंटे जोड़ने की कोशिश की, करने को कुछ था भी नहीं। फ़ोन शायद चोरी हो गया था। जोड़ते हुए वो एक कागज पर घंटे लिखते गए।
जोड़ बढ़ता गया, अब उस कॉपी पर 876600 घंटे हो गए थे, पूरे सौ साल। उन्होंने तय किया कि वो लौट जाएंगे, पर लौटने को सड़क पार किया तो दुगनी लाइन दिखी। वापिस पहली लाइन में लगना चाहा तो लोगों ने खदेड़ दिया। अब वो सौ साल पहले जहां लाइन लगे थे वहीं वापिस पाया खुद को।
उस कोलाहल के बीच में वो बताना चाह रहे थे, कि वो बड़े अफ़सर हैं, पर अब वो अपना नाम भी भूल चुके थे। वो जीवन में इतने अफ़सर हो गए थे कि स्मृति लोप हुई तो अफ़सर बचा नाम नहीं।
कहते हैं कि एक रोज़ आखिर आया जब वो सब भूल गए। अफ़सर होना भी। ये भूलते ही लाइन छंट गयी, वो एक दरवाजे के आगे खड़े थे, मंदिर के पास।
गेट पर एक पुलिस वाला खड़ा था, उसने पूछा "जय हिंद सर। तो आ गए आखिर आप सर?"
"कौन और कहाँ आया"
"यही मंदिर, यहीं आना चाहते थे न आप"
"हाँ। ईश्वर यहीं रहते हैं?मैं जाने कब तक खड़ा रहा"
"जी जनाब। पर प्रोटोकॉल है न। जीवन में जितने मंदिरों में दर्शन करने को आपने लोगों को खड़ा रखा था, उन सबके बराबर का वक़्त काटे बैगर आना मना है।"
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