
Kitabganj / किताबगंज
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कहीं नहीं-तो कविताओं में ही सही- कुछ असंभव पर घटता रहे ।।
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तुमसे क्या पूछा जाए कि क्या तुम पूरी एक उम्र निकालोगे मेरे साथ? ये बात गलत है पूछना सूरज से भी और गुलाब से भी।। (फ़ोटो: @Boostuffy ) #proposeday

And someday remind me, to write a poem for those, who never received that letter of love. Remind me to be the poet, of the muses who they ignored. (फ़ोटो: तरुण चौहान)

तुम्हें प्रेम-पत्र लिखने से पहले, इतिहास पढा ताकि हमारे प्रेम में मानवीय आंखों से टपका कोई भी आँसू छूट जाएI ताकि मेरे द्वारा तुम्हें लिखा हर शब्द तानाशाहों की नींद खराब करता रहे।। (फ़ोटो: अज्ञात) #puraniकविता

हर रोज़ घर के बाहर कदम रखते ही बर्फ गिरती है मेरे हृदय में- तुम्हारी स्मृति को अपने ठण्डेपन से ये दुनिया ढकती जा रही है मेरे हृदय में। और कॉलेज के बाद से अभी तक मेरे हृदय ने कभी सूर्य नहीं देखा। दुनिया में सूरज का उगना हमारे स्कूलों में पढ़ाया गया एक झूठ है। मेरी चिता की लकड़ियां मेरी ऑफिस की मेज से तो आ जाएंगी पर ये दुनिया इतनी ठंडी हो चुकी है कि मेरे ठंडे हृदय के घात से ठण्डे पड़े शरीर को जलाने के लिए इसके पास आग नहीं बचेगी। सभ्यता कवि को घर और दफ्तर के बीच में मार तो देगी पर उससे पीछा नहीं छुड़ा पायेगी।। (फ़ोटो: किताबगंज)

हम उस काल में रहते हैं जब भाषा ज्ञान सबसे ज्यादा लोगों के पास है। चाहें लोगों की गिनती करें या साक्षरता दर देखें, इतने ज्यादा पढ़ सकने वाले लोग इतिहास में कभी नहीं थे। अव्वल तो पूरी दुनिया के इतिहास में रंग, जात, लिंग के आधार में पर सदियों तक अक्षर को आधी से ज्यादा आबादी से छुपाए रखा। इसी सदी में अक्षरों का पिटारा सबके लिए खुल पाया है। भारत में प्राइमरी स्कूल में 99% तक एडमिशन दर्ज किए जा रहे हैं। ऐसे युग में लाज़िम है कि लिखा जाए जाए। उन लोगों का तो लिखना और जरूरी हो जाता है जिनके हिस्सा का उनके पूर्वज लिख ही नहीं पाए। अच्छा-बुरा देखे जाने से ज्यादा जरूरी है बस लिख देना। क्योंकि तुम्हें अपने नहीं उनके हिस्से का भी लिखना है। जब भी किताब पढ़ना तो एक ज्यादा पढ़ना, अपनी माँ के हिस्से की किताब जो वो नहीं पढ़ पायी। रोज़ एक कविता ज्यादा लिखना, शायद उस व्यक्ति के लिए जो तड़प रहा था किसी सदी में लिखने के लिए, पर कलम न छू पाया। सदियों के बराबर का साहित्य बचा है करने को। 🌻 #सरस्वतीPooja

कल रात एक ख्याल आया था, सोच रही थी कि मैं क्या करुँगी अगर किसी दिन तुम मुझे भूल गए।सोचकर हँसी आयीं! और फिर पता नहीं क्यों मैं सोचने में जुट गयी। अगर किसी दिन तुम मुझे भूल गए, तो मैं पहाड़ो में एक घर लूँगी। जिस घर की लाइब्रेरी के एक खाने में तुम्हारे दी हुई किताबें रखी होंगी। लेकिन उनमें से दो किताबें जर्जर हो चुकी होंगी, एक होगी गुनाहों का देवता और दूसरी होगी ठीक तुम्हारे पीछे। शाम को मैं उस घर के बरामदे में।ओल्ड मोंक का एक पेग हाथ मैं लिए शॉल ओढ़कर बैठी हूँगी, लेकिन अब उस शॉल मैं जले हुए के छेद होंगे और कोने मैं चूहों ने कतरन कर झालर बना रखी होगी। मैं फ़ोन पर फ़रीदा ख़ानुम का गाना चला कर मेरे और तुम्हारे फेवरेट अन्तरे कि लाइनें गाऊंगी। रात को क़रीबन ढ़ाई बजे मैं अपनी स्टडी मैं बैठकर एक बार फिर से चन्दर और सुधा को पढूंगी। उस डेस्क के एक कोने मैं सिगरेट के बचे हुए टुकड़े होंगे और नीचे चाय के खाली कपों की बारात होगी। दूसरी तरफ एक पिले रंग का लैंप जल रहा होगा। फिर मैं तीन बजे चाय बनाने उठ जाऊंगी, इतनी रात को बर्तनों को आवाज हो रही है इस वजह से मुझे एंग्जायटी होगी और हाथ मैं पसीने आने लगेंगे। फिर मैं वापस डेस्क पर आ कर एक नया सिगरेट जलाऊंगी और हमारी इंडिया गेट वाली तस्वीर को लैंप के नीचे पकड़ कर देखूंगी। अब नज़रें कमजोर हो चुकी होंगी मेरी, इसलिए चश्मा होगा और बाल भी चाँदी होने लग चुके होंगे, लेकिन लंबे होंगे। चाय ख़त्म कर के मैं एक बार तुम्हे फिर से याद करुँगी, अपनी दिल्ली याद करुँगी और फिर उसी किताब पर आँखे मूंद सो जाया करूंगी। _____________ मैं अब पहाड़ों में रहती हूँ। यहाँ भी एक किताबों की शेल्फ हैं। यहाँ की किताबें मैं देख नहीं पाती। पढ़ने की आदत छूट रही है। मैंने शराब पीना छोड़ दिया है। अब सिगरेट खरीदने के पैसे नहीं होते। शॉल कही गुम हो गया। फ़रीदा ख़ानुम का गाना गाते हुए गला भर आता है। चाय पीने की आदत भी छूट रही है। मेरे बाल अब पहले से ज्यादा छोटे हैं और अबतक चाँदी नहीं हुए। हाँ लेकिन एक बात जो ठीक वैसी ही हुई जैसे अंदाजा लगाया था, तुम मुझे वाक़ई में भूल गए। 🔹श्रेया वानखेड़े (लेख और फ़ोटो)

वीआईपी दर्शन ●●● उन्हें लाइन में लगने की आदत नहीं थी। 27 साल की उम्र में यूपीएससी निकल जाने के बाद शायद ही कभी उन्हें किसी ने लाइन में लगने को कहा हो। भारतवर्ष के मंदिर-संगम-कुंभ, जहां जाते वहां प्रोटोकॉल तैयार रहता था। पुलिसवाले रस्ता खाली करवाते, पंडितजी खुद बाहर आकर उन्हें रिसीव करते। पर आज उन्हें लाइन में लगा दिया गया है। उन्हें उकताहट होने लगी, झल्लाहट में उन्होंने किसी को झिड़कना चाहा वाले की शर्ट सूंघ रहा था। कोई हवलदार-चौकीदार भी नज़र नहीं आ रहा था जो उन्हें अलग कर वीआईपी लाइन में लगवा दे। उन्हें ठीक-ठीक तो याद नहीं था पर काफी देर तो उन्हें हो चुकी थी। इतनी देर तो जरूर हो चुकी थी कि वो ये याद नहीं कर पा रहे थे कि आखिर इस लाइन में वो लगे क्यों। दूर में एक मंदिर तो नज़र आ रहा था पर उन्होंने इस मंदिर को देखने का कब सोचा था ये याद नहीं आ रहा था। बहुत जोर लगाया पर कुछ याद नहीं आ रहा। पता नहीं कितना वक्त गुज़रा कभी रात नहीं हो रही थी। उन्होंने सूरज को नाप कर घंटे जोड़ने की कोशिश की, करने को कुछ था भी नहीं। फ़ोन शायद चोरी हो गया था। जोड़ते हुए वो एक कागज पर घंटे लिखते गए। जोड़ बढ़ता गया, अब उस कॉपी पर 876600 घंटे हो गए थे, पूरे सौ साल। उन्होंने तय किया कि वो लौट जाएंगे, पर लौटने को सड़क पार किया तो दुगनी लाइन दिखी। वापिस पहली लाइन में लगना चाहा तो लोगों ने खदेड़ दिया। अब वो सौ साल पहले जहां लाइन लगे थे वहीं वापिस पाया खुद को। उस कोलाहल के बीच में वो बताना चाह रहे थे, कि वो बड़े अफ़सर हैं, पर अब वो अपना नाम भी भूल चुके थे। वो जीवन में इतने अफ़सर हो गए थे कि स्मृति लोप हुई तो अफ़सर बचा नाम नहीं। कहते हैं कि एक रोज़ आखिर आया जब वो सब भूल गए। अफ़सर होना भी। ये भूलते ही लाइन छंट गयी, वो एक दरवाजे के आगे खड़े थे, मंदिर के पास। गेट पर एक पुलिस वाला खड़ा था, उसने पूछा "जय हिंद सर। तो आ गए आखिर आप सर?" "कौन और कहाँ आया" "यही मंदिर, यहीं आना चाहते थे न आप" "हाँ। ईश्वर यहीं रहते हैं?मैं जाने कब तक खड़ा रहा" "जी जनाब। पर प्रोटोकॉल है न। जीवन में जितने मंदिरों में दर्शन करने को आपने लोगों को खड़ा रखा था, उन सबके बराबर का वक़्त काटे बैगर आना मना है।" #कहानीKitabganj