Mufti Touqueer Badar Alqasmi Alazhari
                                
                            
                            
                    
                                
                                
                                February 20, 2025 at 05:46 PM
                               
                            
                        
                            https://whatsapp.com/channel/0029VanfrMPCcW4uesYGyc3N
_*शाबान महीने में प्रचलित क़ुरआन ख़्वानी, क़ुरआन मुकद्दस से लगाव या क़ुरआन मजीद के साथ खिलवाड़...?*_
**अस्सलामु अलैकुम व रहमतुल्लाह व बरकातुहु!**
मुफ्ती साहब!
आजकल माहे शाबान में विशेषकर और कुछ जगहों पर पूरे साल आमतौर पर मदरसों और मकतबों में पढ़ने वाले छोटे-छोटे बच्चे-बच्चियां और बड़े तालिबे इल्म सभी क़ुरआन ख़्वानी करने घर-घर जाते हैं। न वे वुज़ू का इंतज़ाम करते हैं और न ही तिलावत-ए-कलाम-ए-पाक के आदाब की रुअयत करते हैं। जैसा कि बताया गया है कि माहे शाबान में यह होता है कि जल्दी-जल्दी एक जगह से दूसरी जगह जाकर आधे-अधूरे तरीके से तिलावत करके, ये बच्चे दूसरी जगह, फिर वहां भी उसी तरह करके तीसरी जगह, इस तरह एक-एक दिन में पांच-दस अलग-अलग घरों में जाकर सुबह से शाम तक क़ुरआन ख़्वानी का यह सिलसिला इन बच्चों और तालिबे इल्म के दम पर जारी रहता है। इस तरह क़ुरआन ख़्वानी में जाने वाले बच्चों की तालीम का ख़ासतौर पर इस महीने में नाकाबिले तलाफी नुकसान होता है।
इस संदर्भ में एक-दो बार हमने एक आलिम साहब को टोका, जो सभी क़ुरआन ख़्वानी में दुआ करवाने पहुंचते रहे हैं, तो उन्होंने बहस करते हुए पहले हमें "यह वह होने" का ताना दिया फिर कहा "आपको क्या मालूम, आपसे ज़्यादा हम जानते हैं! वैसे भी हमारे लिए यही तो एक मौका और सीज़न होता है। हदिया नज़राना लेने का, लोग इसी मौके से हमसे मिलते हैं, तो हम क्या करें?"
तो इस संदर्भ में पूछना यह है कि:
**अ)* क़ुरआन करीम क्या है? इसकी हक़ीक़त और अहमियत बताते हुए यह बताने की ज़हमत करें कि क्या अहदे नबवी में माहे शाबान में या सहाबा कराम के ज़माने में इस महीने में इस तरह क़ुरआन ख़्वानी का इंतज़ाम हुआ करता था? साथ ही यह भी बताएं कि हम क़ुरआन पाक की तिलावत के लिए किसे अपना उस्वा बना सकते हैं?
**ब)* क्या शरई तौर पर यह मज़कूरा इंतज़ाम करना दुरुस्त है?
**ज)** क्या क़ुरआन मजीद की इस बेकद्री की सूरत में ऐसा करने वाले उस्ताद और मदारिस व मकातिब के ज़िम्मेदारान ही क़ुसूरवार और गुनहगार होंगे? या आवाम भी और बच्चे के गार्जियन भी? अगर यह दुरुस्त अमल नहीं है, जैसा कि हमने कुछ उलमा-ए-किराम से सुना है, तो यह बताएं कि इस पर रोक कैसे लगाई जा सकती है?
बराए करम तफ़सील से हवाले के साथ हर एक का हुक्म बताएं! नवाज़िश होगी।
दिल नवाज़, दिल्ली / ज़िशान मधुबनी, बिहार
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**व अलैकुम अस्सलाम व रहमतुल्लाह व बरकातुहु**
**कुरआन और कुरआन ख़्वानी के संबंध में आप दोनों के अलग-अलग सवाल सामने थे, लेखक मुफ्ती साहिब ने दोनों को एक करके जवाब लिखने की कोशिश की है। आप दोनों अन्य अहले इल्म से भी इस मामले में संपर्क कर सकते हैं। तौक़ीर बद्र**
अब जवाब मुलाहिज़ा फ़रमाएं:
कुरआन मुकद्दस अल्लाह तआला की आख़िरी आसमानी किताब है, जो आख़िरी नबी और रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम पर नाज़िल हुई। यह इंसानियत की हिदायत, रहनुमाई और फ़लाह का मुकम्मल एक दस्तूर है। कुरआन करीम हमेशा हक़ और बातिल में फ़र्क करने और बताने वाला, ज़िंदगी गुज़ारने के लिए बेहतरीन रास्ता दिखाने वाला और हर दौर और अहद, हर ज़मान और मकान और इस अहद और मकान और सारे जहां के इंसान के लिए जामे रहबर और रहनुमा है।
कुरआन मुकद्दस, अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त का वह बेमिसाल कलाम है, जो सारी कायनात और इंसानियत की रहनुमाई के लिए नाज़िल हुआ। यह वह नूर-ए-हिदायत है, जो दिलों की तारीकी को मिटाकर उन्हें ईमान की रोशनी से मुनव्वर करता है। कुरआन मुकद्दस सिर्फ़ अल्फ़ाज़ का मजमूआ नहीं, बल्कि हयात-ए-इंसानी का मुकम्मल दस्तूर है, जो हर दौर, हर क़ौम और हर फ़र्द के लिए यकसां रहनुमाई फ़राहम करता है। इसकी सदाक़त पर ज़माने की गर्द भी असर नहीं डाल सकी और न डाल सकेगी, क्योंकि यह कलाम ख़ुद रब्बे कायनात की हिफ़ाज़त में है।
कुरआन पाक की अहमियत का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि इसका पहला लफ़्ज़ "इक़रा" यानी "पढ़" है, जो इल्म और फ़हम की तरफ़ दावत देता है। इसमें अक़ाएद, इबादात, मुआमलात और अख़लाक़ियात के वह उसूल बयान किए गए हैं, जो इंसान को बहैसियत फ़र्द और मुआशरा हर दो सतह पर कामयाब ज़िंदगी की ज़मानत फ़राहम करते हैं। कुरआन करीम की आयात की ख़ासियत यह है कि यह दिलों को सुकून बख़्शती और रूह को तमानीयत अता करती हैं। यह किताब इंसान को ज़ुल्मत से निकाल कर नूर की तरफ़ ले जाती है, हक़ और बातिल के दरमियान फ़र्क ज़ाहिर करती है और इंसान को मक़सद-ए-हयात से आशना करती है।
कुरआन की अज़मत का आलम यह है कि इसकी तिलावत से न सिर्फ़ इंसानी दिल नर्म होते हैं, बल्कि फ़रिश्ते भी इसकी मजलिसों में हाज़िर होते हैं। इसके अल्फ़ाज़ में ऐसी मिठास है जो सुनने समझने वाले को मसहूर कर देती है। इसका हर हर्फ़ बाइस-ए-सवाब और हर हुक्म सरापा रहमत है। जो कुरआन को मज़बूती से थाम लेता है, वह कभी गुमराह नहीं होता।
कुरआन पाक सिर्फ़ पढ़ी जाने वाली किताब नहीं, बल्कि सभी अहम मामले में इससे रहनुमाई लेने और कामयाबी से हमकनार होने के वास्ते यह अमलन अपनाई जाने वाली किताब है। यह सिर्फ़ अपनी तिलावत की ही तरगीब देने वाली नहीं, बल्कि अपनी आयात पर अमल करने की दावत देने वाली किताब है। इसकी तालीमात पर अमल करने से फ़र्द और मुआशरा दोनों सनवर जाते हैं। यही वजह है कि जो क़ौमें कुरआन से जुड़ गईं, वह उरूज पा गईं और जो इससे ग़ाफ़िल हुईं, वह ज़वाल का शिकार हो गईं! इंसानी और मज़हबी तारीख़ इसकी बेहतरीन गवाह है।
आपका सवाल बहुत ही अहम और इंतिहाई हसास है, ख़ास तौर पर माहे शाबान में कुरआन ख़्वानी के संदर्भ में जो अमल मदारिस और मकातिब और मुस्लिम मुहल्ले में देखा जा रहा है। इस पर सभी हसास और इंसाफ़ पसंद, ख़ुदा तरस अहले इल्म को तवज्जोह देने की ज़रूरत है।
आपके सवाल का पहला  भाग यह है कि: क्या अहदे नबवी में माहे शाबान के अंदर मज़कूरा अंदाज़ में इज्तिमाई कुरआन ख़्वानी होती थी? या सहाबा कराम अपने अहद में इस तरह जमा होकर कुरआन ख़्वानी का इंतज़ाम करते थे?
तो इस संदर्भ में आप यह अच्छी तरह से जान लें कि ज़माना रिसालत में और सहाबा कराम के दौर में जमा होकर कुरआन ख़्वानी का न तो कोई मख़सूस महीना होता था न कोई मौसम, उस वक़्त न ऐसा कोई सीज़न होता था न इस क़िस्म का कोई सिलसिला! क्योंकि उस अहद में कुरआन मजीद की तिलावत को एक रस्मी, मामूली और वक़्ती अमल नहीं समझा जाता था, बल्कि इसके लिए हर लम्हा, हर घड़ी इंतिहाई एहतराम, बे-पनाह आदाब और मुनज़्ज़म तजवीद और तरतील का इंतज़ाम किया जाता था। पंच वक़्ता नमाज़ों के साथ उनके यहां कस्रत नवाफ़िल और उनमें तिलावत कलाम पाक का इंतज़ाम और उसमें इन्हिमाक़ काबिले रश्क होता था।
सहाबा कराम रज़ियल्लाहु अन्हुम की ज़िंदगी में ख़्वाह वह सफ़र में हों या हज़र में, हालत अमन में हों या जंग में, हर हाल में कुरआन मुकद्दस के साथ उनका ताल्लुक़ एक मुस्तक़िल इबादत के तौर पर रहा करता था, जो उनके रोज़ मर्रा के मामूलात का एक मुहतरम और अहम हिस्सा होता था।
आप हयात-उस-सहाबा पढ़ जाएं, आप देखेंगे कि हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु, हज़रत उस्मान रज़ियल्लाहु अन्हु और दूसरे सहाबा कराम रज़ियल्लाहु अन्हुम ने कुरआन को हर वक़्त की तिलावत और ग़ौर और तदब्बुर के लिए ख़ास कर रखा था। उनकी ज़िंदगियों में कुरआन करीम की तिलावत और उसका एहतराम एक मुस्तक़िल अमल था, जो न तो किसी मख़सूस महीने या मौसम तक महदूद था न किसी मौक़ा और तक़रीब के साथ मख़सूस था।
यह बात भी वाज़ेह रहे कि सहाबा कराम रज़ियल्लाहु अन्हुम ने कभी भी किसी ख़ास महीने में मरूजा कुरआन ख़्वानी के लिए घरों का दौरा करने को अपना मामूल नहीं बनाया। उनकी पूरी तारीख़ इससे ख़ाली और बरी है।
इसलिए शाबान या किसी और महीने में इस तरह की कुरआन ख़्वानी, जिसमें छोटे-बड़े जमा हों, वुज़ू और तजवीद की रुअयत का फ़क़दान हो और जल्दी-जल्दी जैसे-तैसे कुछ तिलावत कुछ बातचीत के साथ पढ़कर दुआ का इल्तज़ाम हो, जैसा कि आजकल यह मख़सूस महीने में रिवाज पा चुका है। उनकी शरीअत इस्लामिया में न तो कोई मुस्तनद दलील या रिवायत मिलती है न इसकी कोई गुंजाइश हो सकती है!
यही वजह है कि आज के इस मरूजा कुरआन ख़्वानी को दारुल उलूम देवबंद के दारुल इफ़्ता ने "ख़िलाफ़े सुन्नत" अमल करार दिया है।
जहां तक तिलावत-ए-कलाम-ए-पाक के लिए किसी को उस्वा व नमूना बनाने की बात है, तो इस सिलसिले में अच्छी तरह से यह ज़हन में दर्ज कर लें कि तिलावत-ए-कलाम-ए-पाक के लिए अस्ल और कामिल उस्वा हमारे नबी-ए-आकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ही हैं। आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम न सिर्फ़ कुरआन के अव्वलीन क़ारी थे, बल्कि इसके अमली पैकर भी थे। आपकी तिलावत में अल्फ़ाज़ की दुरुस्त अदायगी, सवती हुस्न और मआनी की गहराई का हसीन इम्तेज़ाज होता था, जिससे सुनने वालों के दिल पिघल जाते और आंखें अश्कबार हो जाती थीं। हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु फ़रमाते हैं कि जब आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम कुरआन सुनते तो ख़शियत-ए-इलाही से आपकी आंखों से आंसू रवां हो जाते (सहीह बुख़ारी)। आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की तिलावत में ठहराव, तदब्बुर और हलावत होती थी, जो कुरआन की रूह में उतरने का ज़रिया बनती। लिहाज़ा आज भी जो दिल में असर, ज़बान पर सोज़ और अमल में नूर चाहता है, वह आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की तिलावत के उस्वा को अपनाए।
आपके सवाल का दूसरा  भाग यह है कि: क्या शरई तौर पर ऐसा करना दुरुस्त है? तो इस संदर्भ में यह याद रखें कि शरीअत में कुरआन करीम की तिलावत के मख़सूस आदाब और इकराम जैसे वुज़ू और इत्र, इसकी इज़्ज़त और तौक़ीर जैसे बावक़ार मजलिस और तरतील क़िराअत और तदब्बुर मआनी पर बहुत ज़ोर दिया गया है। इनके बरख़िलाफ़ आपके ज़िक्र किए गए कुरआन ख़्वानी में जो ख़राबियां हैं, वह दर्ज-ज़ैल हैं:
1) वुज़ू का इंतज़ाम न करना: हालांकि जमहूर उलमा-ए-किराम और ऐम्मा-ए-अरबा के यहां कुरआन को छूने के लिए तहारत (वुज़ू) ज़रूरी है। जैसा कि अल्लाह तआला ने फ़रमाया:
لَا يَمَسُّهُ إِلَّا الْمُطَهَّرُونَ  
"इसे सिर्फ़ पाक लोग ही छूते हैं।" (अल-वाक़िआ: 79)
हदीस में भी आया है कि बग़ैर वुज़ू के कुरआन को छूना जाइज़ नहीं है:  
لَا يَمَسُّ الْقُرْآنَ إِلَّا طَاهِرٌ  
"कुरआन को सिर्फ़ पाक शख़्स ही छुए।" (अबू दाऊद और नसाई शरीफ़)
2) तिलावत के आदाब की रुअयत न करना: हालांकि कुरआन मजीद की तिलावत करते वक़्त पाकी के साथ-साथ तजवीद, तरतील और तदब्बुर मआनी का इंतज़ाम ज़रूरी है। देखिए (सूरह मुज़म्मिल: आयत 3) जल्दी-जल्दी कुरआन पढ़ना और आदाब की रुअयत न करना, कुरआन की हुरमत और तौक़ीर के सरासर ख़िलाफ़ है। (देखिए सूरह क़ियामा आयत 16)
3) जल्दी-जल्दी मुख़्तलिफ़ घरों में पढ़ने के वास्ते जाने के लिए जैसे-तैसे एक दौर मुकम्मल करना: यह अस्लन कुरआन की तिलावत में जल्दबाज़ी और बे-अदबी को फ़रोज़ देना है, जो एक बड़ी सख़्त गलती और रब की नाराज़गी को दावत देने वाला अमल है। ऊपर मौज़ूआ आयात इस पर शाहिद हैं।
आपके सवाल का तीसरा भाग "माहे शाबान में कुरआन ख़्वानी, हदिया और नज़राना वसूलने का एक मौसम" के पस-मंज़र में है, तो इस बाबत अर्ज़ है कि मुमकिन है कि जिस आलिम से आपकी बातचीत हुई हो, उन्होंने इज़राह-ए-मज़ाक़ ऐसा कहा हो, क्योंकि सजीदगी के आलम में किसी आम इंसान और मुसलमान से भी इस क़िस्म के जवाब का तसव्वुर नहीं किया जा सकता, चाहे ऐसा जवाब कोई आलिम दे! आउज़ु बिल्लाह मिन्ह!
ताहम यह उसूल अपनी जगह मुस्लिम है कि कुरआन करीम और इसकी तिलावत का कोई दुनियावी बदल और मोल है और न हो सकता है! यह ख़ालिस "अनमोल" है।
लिहाज़ा अगर यह अमल महज़ लोगों से पैसा या हदिया लेने के लिए ही किया या करवाया जाता है, तो यह शरीअत इस्लामिया के सरासर ख़िलाफ़ है। नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया:  
"मन तअल्लमल इल्म लियुबाहिया बिहिल उलमा, औ युमारिया बिहिस सुफ़हा, औ यस्रिफ़ वुजूहन नास इलैहि, अदख़लहुल्लाहुन नार।"  
(सुनन इब्ने माजा, हदीस: 253)  
तर्जुमा: "जो शख़्स इल्म इसलिए हासिल करे कि उलमा से मुक़ाबला करे, जाहिलों से बहस करे, या लोगों की तवज्जोह अपनी तरफ़ मबज़ूल करे, पैसे कमाएं,अल्लाह उसे जहन्नम में दाख़िल करेगा।"
लिहाज़ा शरई तौर पर ऐसा इक़दाम करना दुरुस्त नहीं है, क्योंकि इसमें माल वसूलने के चक्कर में एक "अनमोल" का मोल भाव करना और ज़्यादा से ज़्यादा नज़राना वसूल करने के फ़िराक़ में कुरआन मुकद्दस की इज़्ज़त और तकरीम, वुज़ू और तजवीद और तदब्बुर और तरतील जैसे सारे शराइत और आदाब के साथ खिलवाड़ करना पड़ता है, जो इंतिहाई सख़्त गुनाह और शदीदतरीन ख़ुदाई गिरफ़्त और कुरआनी फ़टकार का सबब बन सकता है। ऊपर ज़िक्र किए गए हदीस आंखें खोलने के लिए काफ़ी है।
आपके सवाल का आख़िरी जुज़ यह है कि क्या ऐसा करने वाले उस्ताद और मदारिस और मकातिब के ज़िम्मेदारान ही क़ुसूरवार और गुनहगार होंगे? या आवाम भी और बच्चे के गार्जियन भी?
तो इस तअल्लुक़ से यह ज़हन नशीन कर लें कि कुरआन मुकद्दस के साथ इस खिलवाड़ वाले अमल में ख़्वाह कोई _बराह-ए-रास्त शामिल हो जैसे उस्ताद और होशियार तुलबा, या बिलवासिता जैसे मदारिस और मकातिब के ज़िम्मेदारान और बच्चे के वालिदीन और गार्जियन_ यह सब अल्लाह के यहां क़ुसूरवार और गुनहगार होंगे! ऊपर बयान किए गए आयात और अहादीस दोबारा देख लें!
इससे बचाव के तदबीर मंदरजा-ज़ैल हो सकते हैं:
1) उस्ताद और मदारिस के ज़िम्मेदारान की ज़िम्मेदारी है कि वह पूरी ज़िम्मेदारी और शऊर के साथ बच्चों को कुरआन करीम की अहमियत और अज़मत, तिलावत के आदाब और तजवीद और तरतील की उन्हें अमली और इल्मी तालीम दें और इसका शबाना रोज़ भरपूर नज़्म और नसक़ करें!
उस्ताद को कुरआन पढ़ाने से पहले बच्चों को वुज़ू और तिलावत के आदाब और अहमियत से आगाह करना चाहिए, ताकि वह कुरआन को पूरी अज़मत के साथ सही तरीके से पढ़ सकें!
लिहाज़ा अगर उस्ताद और ज़िम्मेदार अपनी ज़िम्मेदारी से पहलू तही करते हैं, और इस तरह अमलन कुरआन ख़्वानी के मज़कूरा ग़लत तरीके को फ़रोज़ देते हैं या इसकी इजाज़त देते हैं, तो वह शरई तौर पर गुनहगार होंगे। इसका वबाल उनके सिर होगा। इसलिए उस्ताद और ज़िम्मेदारान मदारिस और मकातिब को इस बात का हर हाल में इहतिमाम करना है, कि बच्चों को उन्हें कुरआन पढ़ने, पढ़ाने में आदाब और शराइत का जहां ख़्याल रखना है, वहीं बच्चों को इसके मुवाफ़िक़ माहौल की दुरुस्त तरीके से रहनुमाई भी करना है।
2) बच्चों के साहिब-ए-इस्तिताअत वालिदीन और आम आवाम की भी यह ज़िम्मेदारी है कि वह अपने और क़ौम के बच्चों के लिए उनकी बेहतर ज़िंदगी और बेहतर मुस्तक़बिल के पेश-ए-नज़र उन मकातिब और मदारिस का इंतख़ाब और चुनाव करें, जहां बेहतर और बरतर दीनी तालीम और तरबियत का पूरे साल भरपूर माकूल नज़्म हो, ताकि बच्चे वहां तालीम के वक़्त में घर-घर मरूजा कुरआन ख़्वानी या बेजा सैर-सपाटे में इधर-उधर फिरने के बजाय, तालीम और तरबियत में मसरूफ़ रहें और यह वक़्त उनकी तालीम और तरबियत के लिए बेहतरीन मसरफ़ बन सके! उन्हें यह एहसास हो और कराया जाए कि गुज़र जाने वाला वक़्त और पचपन की यह फ़ुरसत और सुकून  व इत्मीनान फिर कभी वापस नहीं मिलने वाला!
वहां कुरआन की तिलावत के आदाब और शराइत सिखाए जाएं और अमलन इसकी मश्क़ें करवाई जाएं! मुस्लिम मुआशरे में ऐसे मकातिब और मदारिस को ही माहाना फीस पर मबनी फ़रोज़ देने की ज़रूरत है, जहां उन्हें हर हाल में ग़ैर-शरई तरीके से कुरआन पढ़ने या इससे खिलवाड़ करने से रोका जा सके। इसके लिए वालिदीन और गार्जियन को पैसे सरफ़ करना होंगे, और हफ़्ते और महीने में वक़्त भी देना होगा, ताकि वह बेहतर तालीम और तरबियत की जहां एक तरफ़ ऐसे मदारिस और मकातिब से तवक्क़ो रख सकें, वहीं वह उनकी कमी पर मदारिस और मकातिब के ज़िम्मेदारान से बाज़पर्स भी कर सकें!
यह बच्चों का हक़ भी है और वालिदीन का फ़र्ज़ भी कि वह अपने बच्चों को शरीअत के मुताबिक़ तालीम और तरबियत दें! कुरआन मजीद में अल्लाह तआला फ़रमाते हैं:  
"या अय्युहल्लज़ीना आमनू क़ू अन्फुसकुम व अहलीकुम नारा"  
"ऐ ईमान वालो! अपने आप को और अपने अहल और अयाल को आग से बचाओ।"  
(सूरह अत-तहरीम: 6)  
इस आयत की तफ़सीर में हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु फ़रमाते हैं:  
"उन्हें अदब सिखाओ और इल्म की तालीम दो।"  
(देखिए तफ़सीर इब्ने कसीर)  
इसी तरह हदीस मुबारक में नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया:  
"कुल्लुकुम राइन व कुल्लुकुम मसऊलुन अन रईयतिहि..."  
"तुम में से 
हिंदी अनुवाद:
"हर एक निगहबान है और हर एक से उसकी प्रजा के बारे में पूछा जाएगा... और पुरुष अपने परिवार का रक्षक है और उससे उनके बारे में सवाल होगा।"
(सही बुखारी, हदीस: 893; सही मुस्लिम, हदीस: 1829)
आम जनता को भी क़ुरआन की तिलावत (पाठ) के महत्व और इसके आदाब (शिष्टाचार) का ज्ञान होना चाहिए। क़ुरआन की सेवा में लगे हुए शिक्षकों और अध्यापकों से मिलकर क़ुरआनख़्वानी के बदले में कुछ लेने के बजाय, केवल क़ुरआन के शिक्षक और दीन के सेवक होने के नाते उनकी समय-समय पर आर्थिक सहायता और सेवा करनी चाहिए। इसे स्वयं एक बड़ा पुण्य का कार्य समझना चाहिए, ताकि वे शिक्षक अपनी सांसारिक आवश्यकताओं की पूर्ति समय पर कर सकें। केवल शाबान और रमज़ान के महीनों पर निर्भर न रहें।
साथ ही, घर पर बुलाकर बच्चों से क़ुरआनख़्वानी करवाने के बजाय, पहले अपने-अपने घरों में प्रतिदिन क़ुरआन की तिलावत का नियमित अभ्यास करें। मदरसों में कक्षा के दौरान होने वाली तिलावत और शिक्षकों द्वारा सुनाई जाने वाली क़िराअत पर दुआ करवाने का विशेष ध्यान रखें, ताकि बच्चों का शैक्षणिक समय इधर-उधर बर्बाद न हो।
यदि लोग ऐसा नहीं करते और केवल शाबान और रमज़ान के महीनों में ही छात्रों और शिक्षकों को प्रचलित क़ुरआनख़्वानी के लिए घर बुलाते हैं और इस बहाने से उन्हें उपहार या नज़राना (दक्षिणा) लेने पर मजबूर करते हैं, तो याद रखें कि ऐसी हरकत करने वाले आम लोग भी गुनहगार होंगे।
रसूल अल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया:
"क़ुरआन पढ़ो, लेकिन इसे खाने (रोज़ी कमाने) का साधन न बनाओ, इसके ज़रिए माल इकट्ठा मत करो, इससे मुँह मत मोड़ो और इसमें हद से ज़्यादा न बढ़ो।"
(सुनन दारिमी, हदीस: 3383)
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सारांश:
हम में से हर एक को अपने आचरण और चरित्र के माध्यम से क़ुरआन की इज़्ज़त, उसके सम्मान और उसकी महानता का ध्यान रखना होगा।
क़ुरआन की तिलावत और अर्थ पर चिंतन को प्रतिदिन अपनाना होगा।
बच्चों की शिक्षा व संस्कार और शिक्षकों की सेवा व देखभाल का उचित प्रबंध करना होगा।
जब हम यह सब खुशी और सम्मान के साथ करेंगे, तभी क़ियामत के दिन क़ुरआन के सामने बेहतरी से पेश आ सकेंगे।
वरना क़ुरआन हमारे खिलाफ शिकायत करेगा! (देखें: सूरह फ़ुरक़ान, आयत 30)
اللهم احفظنا منہ!
(ए अल्लाह! हमें इससे बचा!)
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निष्कर्ष:
1.माहे शाबान में प्रचलित क़ुरआनख़्वानी की कोई शरीअत में प्रमाणित स्थिति नहीं है, बल्कि यह अपने आप में एक "सुन्नत के खिलाफ" अमल है।
2.क़ुरआन की तिलावत के लिए शारीरिक पवित्रता (वुज़ू), दिल की नीयत में आदर और ज़ुबान से सही उच्चारण (तर्तील और तजवीद) का ध्यान ज़रूरी है।
3.शिक्षकों, मदरसों, बच्चों के माता-पिता और आम लोगों की ज़िम्मेदारी है कि वे क़ुरआन की इज़्ज़त को अपने व्यवहार से कायम रखें और किसी खास महीने या हफ्ते की बजाय पूरे साल और हर दिन इसकी तिलावत करें।
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दुआ:
अल्लाह तआला हमें अपनी इस महान किताब की सही तिलावत करने, इसके आदाब का पालन करने और इसके आदेशों पर चलने की तौफ़ीक़ दे। आमीन!
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लेखक:
तौक़ीर बद्र अल-क़ासमी अल-अज़हरी
डायरेक्टर: अल-मर्कज़ुल इल्मी लिल इफ्ता वल तह़क़ीक़, सुपौल, बिहार
पूर्व व्याख्याता: अल-महदुल आली लिलतदरीब फिल क़ज़ा वल इफ्ता, अमारत-ए-शरीया, पटना बिहार
तारीख़: 20/02/2025
संपर्क: +91 87895 53895  [email protected]
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