MUFTI ABDUSSUBHAN MISBAHI
MUFTI ABDUSSUBHAN MISBAHI
February 18, 2025 at 04:55 AM
*बीवी का हक़ महर: एक किताब की तसनीफ* *वे पति-पत्नी जिनकी कब्रों के बीच दुआ क़बूल होती है* *मालिक अल्ज़ाइर के एक अज़ीम मुफक्किर, मुहक़्क़िक़, अरब दुनिया के मशहूर अदीब और मुस्लिह थे।* उनकी शादी का सबब बड़ा मुनफ़रिद और क़ाबिले-तक़लीद है। जब भी वे किसी किताबख़ाने में जाते और किसी किताब की फ़रमाइश करते, तो अक्सर यही जवाब मिलता कि "यह किताब तो फ़लां खातून ले गई हैं।" जब बार-बार मालिक ने इस खातून का नाम सुना और उसके इल्मी शौक़ और मुताला के ज़ौक़ के बारे में मालूम हुआ, तो उससे मुलाक़ात का इरादा किया। फिर मुलाक़ात के बाद, दोनों ने आपसी रज़ामंदी से निकाह कर लिया। क्या ही बेहतरीन जोड़ी होती है जब पति-पत्नी दोनों मुहक़्क़िक़ हों, दोनों सहिबे-मुताला हों, दोनों इल्म से मुहब्बत करने वाले हों! *इसी तरह एक और मिसाल* फ़िक़्ह-ए-ह़नफ़ी के जलीलुल-क़द्र फ़क़ीह इमाम कासानी की भी है। मशहूर फ़क़ीह अल्लामा मुहम्मद बिन अहमद समरक़ंदी (वफ़ात 540 हिजरी) की साहबज़ादी फ़ातिमा एक बुलंद पाया फ़क़ीहा और आलिमा थीं, जो अपने वालिद के फ़तावों की तसहीह करती थीं। बड़े-बड़े उमरा, यहाँ तक कि बादशाहों ने भी उनके निकाह के लिए पैग़ाम भेजा, मगर अल्लामा समरक़ंदी ने कोई जवाब न दिया। अल्लामा समरक़ंदी ने फ़िक़्ह-ए-हनफ़ी पर एक किताब "तोह़फतुल फ़ुक़हा" लिखी थी, उनके शागिर्द इमाम अलाउद्दीन कासानी (वफ़ात 587 हिजरी) ने अपने उस्ताद की इसी किताब की एक शानदार शरह "बदाइअस सनाइअ" लिखी। जब इमाम समरक़ंदी ने यह शरह देखी तो बेइंतेहा ख़ुश हुए और अपनी आलिमा व फ़क़ीहा बेटी फ़ातिमा का निकाह इमाम कासानी से कर दिया। *इस पर उलेमा ने तसरीह की:* "शरह तौह़फतहु व ज़व्वजहु इब्नतहु" यानी "शागिर्द ने उस्ताद की किताब की शरह लिखी और उस्ताद ने अपनी बेटी का निकाह उससे कर दिया।" यूँ यही किताब उनका हक़ महर बनी। अल्लाह अल्लाह! कैसा इल्मी मक़ाम कि बाप भी इमाम, शोहर भी इमाम और बीवी भी फ़क़ीहा व आलिमा! यहाँ तक कि कई बार इमाम कासानी की ज़ौजा मोह़तरमा इल्मी मसाइल में उनकी तसहीह फरमातीं, और इमाम कासानी अपने फ़तवे से रजू कर उनके क़ौल को इख़्तियार कर लेते थे। इसी इल्मी व दीऩी अज़मत की वजह से इमाम अहले सुन्नत ने "जद्दुल मुतार" में लिखा है: "इन दोनों यानी इमाम कासानी और उनकी ज़ौजा मोह़तरमा की क़ब्रों के दरमियान खड़े होकर दुआ मांगी जाए तो वह क़बूल होती है।" और क्यों न हो, कि दोनों उम्मत के जलीलुल-क़द्र उलेमा में से थे। अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त की बारगाह में यह पाकीज़ा पति-पत्नी इतने मक़बूल हैं कि उनकी क़ब्रों के दरमियान मांगी जाने वाली दुआ रद नहीं होती। जब ख़वातीन आला व अरफा हों तो क़ौमें इन्तेहाई बुलंदी पर पहुँच जाती हैं! *इल्म व इस्तिक़ामत की मिसाल* इमाम कासानी पाँव के एक तकलीफ़देह मरज़ में मुब्तला हो गए, जिससे उनका पाँव सूज गया। मगर आपने कभी दर्स व तदरीस में नाग़ा न किया। जब आप दर्स देने के क़ाबिल न होते तो लोग आपको उठा कर दरसगाह तक ले जाते, और आप सबक पढ़ाते। इसी बीमारी में सुल्तान-ए-वक़्त, नूरुद्दीन ज़ंगी, जो इमाम कासानी से बेइंतेहा मुहब्बत और उनकी इज़्ज़त करते थे, उनकी अयादत के लिए हाज़िर हुए। क्या आला सोच थी! इल्म की क़दर ऐसी कि इमाम कासानी सख़्त बीमारी में भी ख़ुद तलबा के पास जाते रहे। इस्तिग़ना ऐसा कि बादशाह को ख़ुद चल कर आलिम के पास आना पड़ा! और बादशाह ऐसा जिसे उलमा-ए-किराम के पास जाने में कोई आर महसूस न हुई। जो दीनदारों के लिए झुकता है, दुनिया के बादशाह उसके आगे बिछ जाते हैं। *आज की ख़वातीन के लिए सबक़* आज की ख़वातीन अगर अपने शौहर में ऐब निकालने, शिकवे शिकायत करने, ससुराली रिश्तेदारों की ग़ीबत करने से कुछ फ़ुर्सत पाएँ, तो फ़क़ीहा, मुफ़्तिया और आलिमा बनने की तरफ़ क़दम बढ़ाएँ। अगर आप खातून हैं तो अपना हदफ़ तय करें कि मैं इमाम कासानी की ज़ौजा की तरह एक फ़क़ीहा और मुफ़्तिया बनूँगी!

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