शवेता दर्पण न्यूज चैनल सब पर पैनी नजर
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February 17, 2025 at 08:33 AM
१.मानसिक तो मानसिक है ही,बाहरी भी मानसिक ही है। २.बाहरी तो बाहरी है ही,मानसिक भी बाहरी ही है। ********** इन दो में एक का अभ्यास करना पडे। चेतना, देह पर आधारित होकर आंतरिक तथा बाहरी दो भागों में विभाजित हो गयी है। यह असुख, अशांति का बडा कारण है। स्थायी सुख व शांति संभव है एक को अपना लेने से। १.मानसिक तो मानसिक है ही, बाहरी भी मानसिक ही है। मन ही है जगत।मन ही है द्रष्टा,मन ही है दृश्य। हम सोचते हैं भीतर मन का संसार अलग है,बाहर का संसार अलग है। इससे झूठ प्रपंच,छल कपट की संभावना उत्पन्न होती है।भीतर कुछ, बाहर कुछ।जो साधक बाहरी को अलग नहीं रखता, बाहरी भी मानसिक ही है इसे समझता है,इसे स्वीकारता है उसका बाहरी भीतरी में बंटा मानसिक विभाजन समाप्त होने लगता है।छल कपट,झूठ प्रपंच की संभावना समाप्त होने लगती है।जैसा भीतर वैसा बाहर क्यों कि किससे करे प्रपंच, बाहरी है ही नहीं, सब मानसिक ही है। और मानसिक द्रष्टा-दृश्य,हृदय से जुडा हुआ है या जुड़ने लगता है।और कोई रास्ता नहीं है। मूल स्रोत हृदय के रूप में सदैव उपस्थित है हर एक में। अत: एक तो यह मानसिक अभ्यास हो सकता है,दूसरा है- २.बाहरी तो बाहरी है ही,मानसिक भी बाहरी ही है। दोनों बाहरी हैं और बाहरी को बाहर छोड देना है,उसे भूल जाना है,उसे अनसीखा कर देना है,जो सीखा है उससे मुक्त हो जाना है।भूलने का अभ्यास ऐसा अभ्यास है इसमें अहंकार को जड जमाने के लिए जगह ही नहीं मिलती। सारा उपद्रव याद रखने में है।ञबाहरी का पीछा छोड़ने से भीतर गहराई में स्थिति स्वत:बनने लगती है।इसके लिए अलग से कुछ भी नहीं करना पड़ता। जैसे स्व होने के लिए क्या करना पडता है,केवल 'पर' को छोड़ना काफी है। अभी 'पर' को पकड कर रखा है। महर्षि कहते हैं - स्वयं को पकडे रखो।'hold onto yourself.''पर' को छोड़ने पर स्व को थामे रखना संभव है या स्व को थामे रहकर 'पर' से ध्यान हटाया जा सकता है। जब अर्जुन ने आंतरिक बाहरी में बंटे संघर्ष रत मन की समस्या बताई तो कृष्ण ने अभ्यास और वैराग्य दोनों उपाय बताये। 'अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते। मन अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है।' द्रष्टा और दृश्य का मानसिक भेद सतत बना रहता है। भीतर ध्यान है तो एक देखने वाला और दूसरा दिखने वाला दिखाई देगा।बाहर ध्यान है तब तो मैं और दूसरा का भेद है ही। उसमें फिर राग-द्वेष, पसंद-नापसंद, क्रोधक्षोभ, भयचिंता आदि का खेल है ही। पता ही नहीं चलता कि अपना ही मन बंटा हुआ है। चित्त इससे जुडकर खंडित है।जब तक चित्त अखंड न हो न सामर्थ्य है,न सुख-शांति की शक्ति। मन कमजोर होकर सुख-शांति चाहता है, प्रार्थना आदि भी करता है। अपने को भविष्य के अधीन मानता है। उसे यह देखकर ईर्ष्या होती है कि कुछ लोग अपना भविष्य अपने हाथ में रखते हैं। लेकिन ईर्ष्या करना व्यर्थ है। अपनी भूल समझ लेने की आवश्यकता है। समझ लेना भी अपर्याप्त है अगर यह बुद्धि तक सीमित हो। अभ्यास करना पड़ता है। बिना किये न होगा। या तो वह इस पर चले कि सब कुछ मानसिक है, बाहरी भी वस्तुत: मानसिक ही है, बाहरी है ही नहीं, होता नहीं, कभी होगा भी नहीं। इससे अपने आपमें रहना आसान हो जाता है।अपनी बागडोर,अपना समय अपने हाथ में आ जाता है। ऐसा आदमी जहां भी रहेगा पूर्णता से रहेगा तना व बिखरा न रहेगा अभी यहां और तब वहां में। मानसिक विभाजन ही तो तनाव का,तनने खिंचने का कारण है,और क्या कारण है! या फिर सब बाहरी है। ध्यान रखने की बात यह है कि सभी शरीर बाहरी हैं मगर अपना लगने वाला शरीर भी बाहरी ही है। इसे भी बाहर ही छोड देना होगा। मन में जो भी विचार चलते हैं सब बाहरी हैं। उन्हें आंतरिक बाहरी में विभाजन करने की जरूरत नहीं। यह विभाजन ही तो है सारी समस्याओं का मूल। कोई कहे हमारे तो संसार की जिम्मेदारियां हैं। तो यह अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए कि अविभाजित,अखंड पुरुष जितनी सामर्थ्य से जिम्मेदारी निभा सकता है उतना एक खंडित, अपने में विभाजित आदमी नहीं। सही पूछा जाय तो सफलता चाहने वाले हर व्यक्ति को पहले अपने भीतर अखंड, अविभाजित होने की कोशिश करनी चाहिए। इसकी ओर ध्यान नहीं देने से भीतर आत्मविभाजन सक्रिय रहता है,स्वयं से दूरी बनी रहती है,बाहर किसी पर निर्भर होना होता है उसे पाने या हटाने के लिए। इसलिए पहले स्वयं में अखंडता अनुभव कर लेनी चाहिए। इस तरह कि बाहरी भी मानसिक ही है अथवा मानसिक भी बाहरी है। और बाहरी को बाहर छोड देना है ताकि भीतर गहराई में उतरकर स्वयं गहराई हुआ जा सके। स्वयं दो खंडों में न बंटा रहे। जिस भी व्यक्ति को देखें वहां यही पायेंगे सतत खंडों में विभाजित मन ही काम पर लगा हुआ है।सुखाभास पाने के लिए आतुर, सच्चे -स्थायी सुख से अनजान। अखंडता समाधि जैसी लगती है मगर कृष्ण ने स्थित प्रज्ञता को समाधि से जोड दिया है। जिसमें अंदर बाहर का भेद नहीं है वह ध्यानस्थ, समाधिस्थ जैसा ही लगेगा।वह ऐसा होता भी है। ऐसे लोग सांसारिक दृष्टि से भी काफी सफल होते हैं चाहे वे वैज्ञानिक हों,चाहे उद्योगपति क्यों कि तब आध्यात्मिक शक्ति भौतिक क्षेत्र में कार्य कर रही होती है।अपने में अखंडता वह पारस है जो हर लोहे के टुकड़े को स्वर्ण मे परिवर्तित करते हुए चलता है। ऐसा नहीं है तो जीवन संघर्ष युक्त है ही जैसा सब जगह देखा जा सकता है।अहंकार ,आत्मविभाजन में ही जोर पकड़ता है। अखंड पुरुष निरहंकार भी होता है तथा परम ऊर्जा से संपन्न भी अत:दोनों उपाय हैं। कोई पक्षपात नहीं है।आप अपनायेंगे तो आप लाभान्वित होंगे, मैं अपनाऊंगा तो मुझे लाभ है।

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