'अपनी माटी' पत्रिका
February 3, 2025 at 01:58 AM
बचपन में हम आँधियों में भागते हुए एक गीत गाते थे-
‘आँधी आई, म्हेव आयौ, गगन घटा
भूरी बिल्याई कै छोरौ होयौ घूघरी बँटा।’’
तब इन पंक्तियों को दोहराने का ही आनंद था। झुण्ड में गाने से ‘गगन घटा’ और ‘घूघरी बँटा’ की जो नगाड़े सी ध्वनि गूँजती थी, उसमें हम बच्चों की टोली को बड़ा रस आता था। तब अर्थ की उतनी टोह नहीं थी। दृष्य से ही इतना घिरे होते थे कि भाषायी अर्थ में जाने की जरूरत महसूस नहीं होती थी। लेकिन आज याद करने पर महसूस होता है कि कैसी सुंदर, कैसी अनोखी कविता थी वह कि ‘गगन में घटाएँ गहरा रही हैं। काली-पीली आँधी उठ रही है। दिन में रात सी हो गई है। हवाएँ पेड़ों को झकझोर रही है, बूँदें टपकने ही वाली हैं। ऐसे तूफानी माहौल में भूरी बिल्ली ने आँधी जैसे ही रंग के, काले-भूरे बच्चे दिए हैं। भूरी बिल्ली के घर में नवजात आने की खुषी में घूघरी यानी उबले हुए गेहूँ और बरिया यानी अंकुरित चने बाँटे जाने चाहिए। कैसा संसार था, प्रकृति से कैसा साहचर्य था! पषु-पक्षियों के जीवन में आने वाली खुषी से इंसानों के मन पुलक उठते थे। बच्चों के खेलों में भी कविता की जीवंत उपस्थित रहा करती थी। एक खेल था जिसमें घोड़ी बेचने और खरीदने को लेकर सवाल जवाब होते थे। बच्चों की एक टोली सवाल करती थी, दूसरी टोली जवाब देती थी। उस तुकबंदी का पुनर्लिखित-भावानुवाद कुछ इस तरह से है-
कह रे कुम्हार भाई
बोल रे सौदागर भाई
तेरी घोड़ी क्या चरे
खस-खस के पूड़े
पीए क्या
कुँए का पानी
[" आलेख : लोक में बच्चों के गीत / प्रभात "अपनी माटी के इस आलेख को पूरा पढ़ने के लिए दिए गए लिंक पर जाएं ( बाल साहित्य विशेषांक अंक - 56 ) ]
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