
'अपनी माटी' पत्रिका
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About 'अपनी माटी' पत्रिका
'अपनी माटी' पत्रिका के पाठकों हेतु समूह। नमस्कार। अन्य जरूरी प्रश्न हो तो 9116888201(Deepak) 9460711896(Manik)पर केवल वाट्स एप चैट सम्भव है। 'अपनी माटी' त्रैमासिक पत्रिका है इसके प्रत्येक वर्ष में चार सामान्य अंक 31 मार्च, 30 जून, 30 सितम्बर और 31 दिसम्बर को छपते हैं।।
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समाज और सिनेमा दोनों ही एक-दूसरे को विभिन्न पहलुओं में प्रभावित करते हैं। समाज का ही एक व्यक्ति फिल्मों में किरदार के रूप में नज़र आता है तो दूसरी ओर वही किरदार समाज के कई हिस्सों में पैदा होने लगते हैं क्योंकि सिनेमा समाज के युवा वर्ग के लिए एक रोल मॉडल प्रस्तुत करता है। प्रत्येक किरदार के कई पक्षों को सिनेमा में देखा जाता है परंतु जब नायक ही खलनायक के तौर पर नज़र आता है तो उसके हेयरस्टाइल और पहनावे से लेकर उसके विचार और डाइलोग्स, जनता को अधिक उत्तेजित करने लगते हैं। सिनेमा में समाज को एक नवीन दृष्टिकोण प्रदान करने की क्षमता है और फिल्मों का अभिनेता उस नवीन दृष्टिकोण को प्रदर्शित करने का एक सशक्त माध्यम हो सकता है। 21वीं सदी के सिनेमा के नायक जब एंटी हीरो या एक विलेन के रूप में प्रदर्शित किए जाते हैं तो यह भविष्य के लिए घातक सिद्ध होने की संभावना को बढ़ा देता है। प्रस्तुत लेख में हिन्दी सिनेमा में नायकों और खलनायकों के बदलते स्वरूप और जनता में उसके प्रभाव एवं आम जनमानस के मूल्यों में आए परिवर्तन को दर्शाने का प्रयास किया गया है। *शोध आलेख : हिन्दी सिनेमा में एंटी-हीरो और ट्रैजिक-हीरो की बढ़ती प्रवृत्ति / प्रिया कुमारी* [ लिंक 👉 https://www.apnimaati.com/2024/12/blog-post_235.html ]


भारतीय सामाजिक व्यवस्था में स्त्रियों का स्थान महत्वपूर्ण रहा है, स्त्रियों की दशा युग के अनुरूप परिवर्तित होती रही है। प्रारंभिक वैदिक साहित्य में परिलक्षित होता है कि प्राचीन भारतीय समाज में स्त्रियों को उच्च स्थान, सम्मान एवं अधिकार प्राप्त थे। ऋग्वेद में उषा, अदिति एवं आर्यानी जैसी देवियों तथा लोपामुद्रा, घोषा, विश्वावरा, शची, सप्रागी1 जैसी ऋग्वैदिक मंत्रों की रचयित्री विदुषी स्त्रियों का भी उल्लेख मिलता है। स्त्रियों का पुरुषों की तरह यज्ञोपवीत संस्कार होता था एवं वह गुरुकुल में पुरुषों के समान शिक्षा भी प्राप्त करती थीं। नवविवाहिता स्त्री पतिगृह की साम्राज्ञी होती थी। साम्राज्ञी श्वशुरे भव साम्राज्ञी श्वश्वाम भव। ननांदरि साम्राज्ञी भव साम्राज्ञी अधिदेवेषु।।2 मनुस्मृति में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि- यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता। यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः।3 किंतु जैसे-जैसे प्राचीन भारतीय समाज स्थायित्व की ओर अग्रसर हो रहा था, उसमें सामाजिक जटिलताएं प्रबल होती जा रही थीं। उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों को उपनयन संस्कार से वंचित कर दिया गया, जिससे उनकी शिक्षा अवरूद्ध हो गई। ऐतरेय ब्राह्मण में कन्या-जन्म की निंदा करते हुए उसे चिंता का कारण बताया गया है । ["शोध आलेख : बौद्ध वाङ्गमय में प्रतिबिंबित स्त्री विमर्श : थेरीगाथा के विशेष संदर्भ में / मनोज कुमार दुबे एवं अमित कुमार सिंह "अपनी माटी के इस आलेख को पूरा पढ़ने के लिए दिए गए लिंक पर जाएं ( अंक 57 ) ] लिंक 👉 https://www.apnimaati.com/2024/12/blog-post_516.html

शोध कार्य का मूल उद्देश्य मुस्लिम समुदायों की लड़कियों की शिक्षा तक पहुँच की समकालीन वास्तविकता की जाँच करना है। ताकि उनकी शैक्षिक स्थिति में सुधार करने के लिए, विशेष रूप से उनकी समस्याओं तथा नीति एवं कार्यक्रमों को अमल में लाने के लिये सुझाव दिए जा सकें। इनमें मुस्लिम समुदायों की लड़कियों के तीखे पूर्वकालीन भेदों को, सामाजिक, आर्थिक परिवर्तन के जरिये काफी हद तक हल कर दिया गया है और इन्हें एक बेहतर सामान्य आधार प्रदान किया है। हालाँकि अभी भी बहुत हद तक भौतिक तथा सांस्कृतिक विभिन्नताएं बनी हुई हैं, फिर भी प्रासंगिक संवेदनशीलता बनाए रखने के लिए इनकी शैक्षिक स्थिति को ध्यान में रखना बहुत जरूरी है। किसी आम भारतीय नागरिक की तरह हम जानते हैं कि ‘धर्म’ एक महत्वपूर्ण संस्था है। मुस्लिम धर्म कई वर्षों से भारतीय इतिहास एवं संस्कृति का एक हिस्सा है परंतु इक्कीसवीं सदी में रहने वाले किसी भी भारतवासी की तरह हम यह भी जानते हैं कि ‘धर्म’ केवल हमारी मान्यता का नहीं बल्कि हमारे समाजीकरण का भी प्रभावी घटक है। यह ‘धर्म’, एक जो भारत के अतीत का हिस्सा माने जाते हैं और दूसरी जो कि भारत के वतर्मान का भी हिस्सा है, कहाँ तक समान हैं? इन विचारों को भी, इस अध्ययन में समझने का प्रयास किया है। [" शोध आलेख : मुस्लिम लड़कियों की शिक्षा : एक पुनरुत्पादित लोकाचार / वीरेंद्र कुमार चंदोरिया एवं पूजा सिंह "अपनी माटी के इस आलेख को पूरा पढ़ने के लिए दिए गए लिंक पर जाएं ( अंक 57 ) ] लिंक 👉 https://www.apnimaati.com/2024/12/blog-post_646.html

पिछली शताब्दी के पहले दशक में कार्टून बनाने और छपने की रियाजात के बारे में हम बहुत थोड़ा ही जानते हैं। मसलन, हमें सरस्वती संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी के बारे में यह जानते हैं कि वे कार्टून की संकल्पना विस्तृत ब्योरों के साथ लिखकर अपने प्रेस के अनुबंधित कलाकारों को देते थे। संपादक माँग के अनुसार कलाकार कार्टून बनाता था (सिंह 1951)। यह परंपरा बाद के दशकों में भी जारी रही, किन्तु साथ ही साथ तीसरे दशक से कार्टूनकार ख़ुद ही कार्टून बनाकर अपनी इच्छानुसार पत्रिका या संपादक को अपनी कला का नमूना भेजने लगे। मोहनलाल के उपलब्ध पत्रों से पता चलता है कि वह एक स्वतंत्र कार्टूनकार थे जो बाद में हिंदी पत्रिकाओं में कहानी, कविता, आलोचना, आदि भी लिखने लगे थे। उनके लिए, कार्टून बनाना हिंदी के खाली भंडार भरने के व्यापक राष्ट्रवादी परियोजना का हिस्सा था। वह ऐसे कलाकार नहीं थे जो किसी विशेष पत्रिका की संपादकीय टीम में कलाकारी करने, चित्र या कार्टून बनाने के लिए नियुक्त किये गए थे। उन्होंने संपादक की माँग पर कभी कार्टून नहीं बनाए। अलबत्ता, उन्होंने अपना कार्टून स्केच बनाकर इच्छुक संपादकों को प्रकाशित करने के लिए कहा। सकारात्मक उत्तर मिलने पर वे उन्हें अपनी टिप्पणी के साथ प्रकाशित करने के लिए भेजते। कम से कम उनके शुरुआती करियर को देखते हुए ऐसा ही लगता है। हालाँकि, उन्हें अपने कार्टून के लिए मिलने वाले पारिश्रमिक के बारे में हमें ठीक-ठीक नहीं पता। अपने वरिष्ठ मित्र और संपादक शिवपूजन सहाय को लिखे उनके पत्रों से जो पता चलता है वह है कि उन्हें अपने कार्टूनों के लिए पैसे मिलते थे जो उन्हें वैल्यू पेएबल पोस्ट (वीपीपी) से भेजे जाते थे। गंगा के संपादक शिवपूजन सहाय को लिखे एक लंबे पत्र से एक अंश ग़ौरतलब है। [" शोध आलेख : एक विस्मृत कार्टूनकार : मोहनलाल महतो ‘वियोगी’ (1901-1990) / प्रभात कुमार "अपनी माटी के इस आलेख को पूरा पढ़ने के लिए दिए गए लिंक पर जाएं ( अंक - 59 ) ] लिंक 👉 https://www.apnimaati.com/2025/03/1901-1990_31.html

अनारको के आठ दिन’ महज 104 पृष्ठों की बालमन से जुड़ी एक ऐसी किताब जो आपको उन तमाम सवालों से सामना कराती है जिनसे शायद आप कभी मिले न हो या जिनसे किनारा कर लिया हो। इस पुस्तक की केंद्रीय पात्र 9-10 वर्षीय लड़की अनारको है। और इसी अनारको के आठ दिन की कहानी इस किताब में वर्णित है। अनारको के साथ इस किताब में बतौर पात्र के रूप में अनारको का मित्र किंकु, अनारको के माता-पिता भी है। यह किताब लिखी है सत्यु ने और इसे छापा है राजकमल प्रकाशन ने। किताब का पहला संस्करण 1994 मे आता है और छठा संस्करण 2022 में। किताब का पलटता हर पन्ना आपके अंदर एक सवाल छोड़ जायेगा, वह सवाल जिन्हें अनारको अपने माता पिता के माध्यम से हर हाड़ मांस के बने पुतले से पूछ रही है जिन्होंने अपने बच्चे के बचपन को अपने अनुसार ढाला है। अनारको पूछ रही है सवाल हर उस शख्स से जिन्होंने सभ्यता और अनुशासन का चोला ओढ़ा अपने बच्चे के बचपन को कैद कर दिया है। वह सवाल पूछ रही है हर उस इंसान से जिन्होंने बचपन को भय की परिधि तक सीमित कर दिया है। सीधे,सरल और तीखें सवालों के साथ अनारको इस किताब में समाज पर कुछ प्रश्नचिन्ह लगती हुई हमको दिखाई देती है। [" शोध आलेख : ‘अनारको के आठ दिन’ : यथार्थ से स्वप्न की यात्रा / पारस सैनी "अपनी माटी के इस आलेख को पूरा पढ़ने के लिए दिए गए लिंक पर जाएं ( बाल साहित्य विशेषांक अंक - 56 ) ] लिंक 👉 https://www.apnimaati.com/2024/12/blog-post_653.html

अपने आरंभिक समय से ही सिनेमा विशेषकर हिंदी सिनेमा फ़ॉर्मूलाबद्ध रहा है यानी फिल्मों में जब कोई एक स्टोरी, हीरो-हीरोइन,चरित्र नायक-नायिका हिट हो जाया करते, निर्माता निर्देशक बार-बार उन्हें दोहराते रहते। ये स्टीरियोटाइप छवियाँ दर्शकों को भी लुभाती थी, वे मानाने को तैयार नहीं कि नायक ढिशुम-ढिशुम न करे या जिस कलाकार ने एक बार बहन की भूमिका निभा ली, दर्शक उसे नायिका यानी हीरोइन के रूप में कभी स्वीकार नहीं करेंगे, फिल्म का सुखांत, विवाह की शहनाई के साथ अंत यही मुख्य था। निर्माता जोखिम नहीं उठाना चाहते थे क्योंकि फ़िल्मों के फ्लॉप होने का ठप्पा यानी करियर खत्म ! लेकिन समय के साथ-साथ नए निर्देशकों ने जोखिम उठाना शुरू किया दर्शकों के मनोरंजन की भूख भी नए स्वाद की माँग करने लगी। आज लगभग एक शतक से अधिक समय पूरे कर चुका हिन्दी सिनेमा आज तकनीक और दर्शक केन्द्रित बन रहा है, सिनेमा के विकल्पों ने, तौर तरीकों ने बड़े-बड़े बैनरों को विवश किया कि वे अब दर्शकों को मूर्ख न समझे, जैसे कि कहा जाता था कि फ़िल्म देखने के लिए दिमाग घर पर रख कर जाओ! इस शोध आलेख में सिनेमा में हो रहे नवाचारों के विविध पक्षों को दिखाया गया है। *शोध आलेख : हिन्दी सिनेमा में नवाचार के विविध पक्ष / रक्षा गीता* [ लिंक 👉 https://www.apnimaati.com/2024/12/blog-post_248.html ]


सरल शब्दों में भूमंडलीकरण का अर्थ एक ऐसी प्रक्रिया से है जिसमें समस्त विश्व को एक इकाई माना जाता है या यह कहा जा सकता है कि जिसमें सम्पूर्ण विश्व का एकीकरण हो जाए। यह एकीकरण आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक हर पक्ष का एकीकरण है। कुछ विद्वान समूचे विश्व को एक वैश्विक ग्राम या ग्लोबल विलेज की संज्ञा भी देते हैं, इसे ही वैश्वीकरण भी कहा जाता है। वर्तमान में यही वैश्विक ग्राम या यूँ कहें पूरा विश्व एक परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है और यह परिवर्तन सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक धरातलों पर अत्यंत तेजी से घटित होता दिखाई दे रहा है और निरंतर जारी है। कुछ प्रगतिशील विचारक वैश्वीकरण को एक षड्यंत्र मानते हैं उनके अनुसार अति विकसित और सुपर पावर देश द्वारा भूमंडलीकरण के बहाने या भूमंडलीकरण के नाम पर एक विचित्र-सी एक ध्रुवीय वैचारिकता का प्रसार किया जा रहा है और इस प्रकार सम्पूर्ण संसार को एक ध्रुवीय बनाकर विश्व राजनीति और आर्थिक व्यवस्था को निगल लेने का हित साधा जा रहा है। वैश्वीकरण के नाम पर अति विकसित और बड़े शक्तिशाली देश की यह भूमंडलीकरण की आर्थिक नीति द्वारा संसार के विकासशील, गरीब और निर्बल देशों की स्वायत्ता और सार्वभौमिकता को नष्ट करने की चेष्टा की जा रही है। किसी गरीब, विकासशील देश विशेष की सभ्यता और संस्कृति जो कि उस देश के समाज की जीवन शैली और परम्परा को निर्धारित करती है; पोषित करती है, उस समाज की बुनावट और ताने-बाने को भूमंडलीकरण के आर्थिक विधान द्वारा पूरी तरह तहस नहस करके विकसित राष्ट्र के वर्चस्व को हर राष्ट्र और समाज पर बलपूर्वक थोपने का प्रयास किया जा रहा है। यदि सीधे सरल और स्पष्ट वाक्य में कहा जाए तो भूमंडलीकरण की प्रक्रिया आर्थिक एकीकरण की प्रक्रिया है जोकि बाजारवादी नीति का परिणाम है। बाजारवादी नीति अर्थात एक ऐसी नीति जिसमें हर वस्तु, पदार्थ, व्यक्ति, समाज और यहाँ तक कि राष्ट्र को भी एकमात्र वस्तु में रूपांतरित कर उसकी कीमत बाजार के अनुसार तय कर दी जाती है। *शोध आलेख : भूमंडलीकरण के दौर के सिनेमा में लोक भाषा का प्रश्न / प्रभात यादव* [ लिंक 👉 https://www.apnimaati.com/2024/12/blog-post_671.html ]


साहित्य के इतिहास में बहुत कम ऐसे प्रतिभाशाली रचनाकार हुए, जो उन्नत सामाजिक चेतना के साथ-साथ सूक्ष्म इतिहास दृष्टि से भी संपन्न हों। ज्ञान विज्ञान से उर्वर मिथिला भूमि में जन्मे मायानंद मिश्र ऐसे ही प्रतिभा संपन्न रचनाकार थे, जिन्होंने मिथिलांचल की तमाम सामाजिक विसंगतियों के साथ-साथ इतिहासाख्यान को अपनी रचनाओं का आधार बनाया तथा हिन्दी एवं मैथिली दोनों भाषाओं को अपनी श्रेष्ठ रचनाओं से समृद्ध किया। कालजयी रचनाकार मायानंद मिश्र का जन्म 17 अगस्त 1934 ई. को भागलपुर ज़िला के बनैनियाँ गाँव में हुआ था। जो इन दिनों सुपौल ज़िला में है। उनके पिता का नाम बबुनंदन मिश्र एवं माता का नाम दुर्गा देवी था। बाल्यावस्था में ही माँ का निधन होने और कोसी के प्रलयंकारी बाढ़ के प्रकोप के कारण उनका पालन- पोषण ननिहाल (सुपौल) में हुआ। जहाँ उनकी प्रारंभिक शिक्षा प्रसिद्ध संगीतज्ञ, नाना नागेश्वर झा एवं मैथिली के प्रसिद्ध रचनाकार मामा रामकृष्ण झा ‘किसुन’ के सानिध्य में हुआ। सन् 1950 में मैट्रिक की परीक्षा सुपौल से पास करने के पश्चात वो उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए दरभंगा आए। जहाँ उन्होंने चन्दधारी मिथिला कॉलेज से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। इसी दौरान सन् 1952 में उनका विवाह चंदशेखर मिश्र की बेटी और मैथिली के प्रसिद्ध कथाकार ललित की छोटी बहन कुमारी मनी मिश्रा से हुआ। सन् 1956 में वो आकाशवाणी पटना में नौकरी करने पटना आ गए। जहाँ नौकरी करते हुए उन्होंने 1960 में हिन्दी एवं 1961 में मैथिली विषय में बिहार विश्वविद्यालय से एम. ए. किया। [" शोध आलेख : मायानंद मिश्र : एक विस्मृत ऐतिहासिक उपन्यासकार / निर्मल कुमार "अपनी माटी के इस आलेख को पूरा पढ़ने के लिए दिए गए लिंक पर जाएं ( अंक - 59 ) ] लिंक 👉 https://www.apnimaati.com/2025/03/blog-post_10.html

आत्महत्या मानव सभ्यता के इतिहास की प्राचीन और गंभीर समस्या है, जो वर्तमान समय में तीव्रता से बढ़ती जा रही है। आधुनिकता और वैज्ञानिक प्रगति के साथ-साथ आत्महत्या की प्रवृत्ति भी समाज में विकरालता के साथ विकसित हो रही है। परंपरागत टीवी धारावाहिक, महाभारत-रामायण से लेकर हॉलीवुड, नेट्फ़्लिक्स, ओटीटी के हर दूसरे-तीसरे प्रोग्राम्स जैसे वेब-सीरीज, फिल्म, डॉक्युमेंट्री में आत्महत्या के प्रसंग मिल जाते हैं। आत्महत्या की यह प्रवृत्ति हिन्दी फिल्मों से भी अछूती नहीं है। 21वीं सदी में जितनी तेज़ी से भारतीय समाज में आत्महत्याएँ बढ़ी हैं, हिन्दी सिनेमा में भी उसका चित्रण उतनी ही तेज़ी से बढ़ा है। अनेकों ऐसी हिंदी फिल्में बनी हैं, जो आत्महत्या के ऐतिहासिक, मानसिक और सामाजिक सरोकारों पर बात करती हैं, जैसे 'थ्री इडियट्स', 'पीपली लाइव', 'छिछोरे', 'कार्तिक कॉलिंग कार्तिक', 'द डर्टी पिक्चर', 'हैदर', 'ए डेथ इन द गंज', 'पद्मावत', 'मसान', 'डंकी' आदि। प्रस्तुत शोध पत्र एक प्रयास है उन हिन्दी फिल्मों को जानने और समझने का जिनमें आत्महत्या के प्रस्तुतीकरण को विषय बनाया गया है। आत्मघात जैसे संवेदनशील विषय पर फिल्म बनाते समय कई बार इस बात का खतरा होता है कि वह फिल्म आत्महत्या को रूमानी तौर पर प्रदर्शित न करे। निर्देशक फिल्म में आत्महंता को प्रदर्शित करते समय कौन-सी सावधानियाँ लेते हैं तथा दर्शक इसे कैसे अनुभूत करते हैं, इस बात की चर्चा करना बहुत आवश्यक है। इस शोध पत्र के माध्यम से आत्महत्या के सिनेमाई संदर्भ को समझने में मदद मिलेगी। साथ ही आत्महत्या निवारण हेतु हिन्दी सिनेमा की भूमिका को भी इसमें रेखांकित किया गया है। *शोध आलेख : हिन्दी फिल्मों में आत्महत्या : समस्या निवारण या ट्रेजेडी का नया आख्यान? / तरुण कुमार* [ लिंक 👉 https://www.apnimaati.com/2024/12/blog-post_120.html ]


यह लेख वेब सीरीज ‘मर्डर इन माहिम’का आलोचनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत करता है, जो समाज में समलैंगिकता के प्रति विद्यमान गहरे पूर्वाग्रह और अस्वीकृति को उजागर करता है। सीरीज ने पात्रों के जटिल मानसिक संघर्षों और उनके व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन के विविध आयामों को प्रभावी ढंग से चित्रित किया है। हालाँकि यह एक मर्डर मिस्ट्री है, परंतु इसका असल उद्देश्य समाज में व्याप्त भेदभाव और संस्थागत दमन—खासकर पुलिस व्यवस्था के स्तर पर—की कठोर आलोचना करता है। सीरीज के दृश्य समलैंगिक उप-संस्कृति की छिपी हुई दुनिया को सबके सम्मुख प्रस्तुत करते हैं, जो यह बताता है कि समाज अभी भी समलैंगिक पहचान को क्यों मुख्यधारा में स्थान देने में विफल रहा है। ‘मर्डर इन माहिम’केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि एक गंभीर सामाजिक आलोचना है, जो समलैंगिकता के प्रति समाज की मानसिकता को चुनौती देती है और उसे बदलने का आह्वान करती है। *शोध आलेख : ‘मर्डर इन माहिम’ : समलैंगिक संबंधों के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण / अनुपम भारती* [ लिंक 👉 https://www.apnimaati.com/2024/12/blog-post_104.html ]
