'अपनी माटी' पत्रिका
'अपनी माटी' पत्रिका
February 5, 2025 at 03:32 PM
सामरी की डायरी, 4 फरवरी, 2025 दिल्ली में फिलहाल चल रहे पुस्तक मेले की तस्वीरों से कई विचार मन में गमक रहे हैं। नए टाइटल पढ़-देख दिल्ली की तरफ मुंह करके सोने की इच्छा होती है। परिचित चेहरों को दिल्ली में देख मिलने को आतुरता जनमती है। कई पर यहीं से लाड़ आता है। कई बार अपनी ही अलमारी में रखी अब तक पढ़ी जाने से बची हुई किताबें देख कुछ ठहराव आ अटका देता है। पुस्तकें ऑनलाइन घर आ जाने वाली सहूलियत और दिल्ली के दूर होने के आधारभूत बहाने से हम ठहर जाते हैं। निर्णय पर पहूँच जाने जैसा आभास। बहुत दूर से ही अपने प्रिय लेखकों को बधाई देते हुए यहीं से पुलकित हो जाने का अभ्यास कर लिया है अब। तस्वीरों का मूल गुण लुभाना है। आदमी का मूल गुण विवेक से निर्णय लेना है। विवेक रोकता है। प्रेम अधीर करता है। पुस्तकों को हाथ फेरकर देखने की इच्छाएं यहीं दम तोड़ रही हैं। दिल करता है खुद से ज्यादा किसी के लिए उपहार देने लायक़ खरीद ही कर लें। स्मृतियों में भी वह पुस्तक मेला आज भी हिलोरता है जब पहली बार हम वहाँ जा सके। वह विशालता अब तक वैसी की वैसी है। हम उन्हें आभार जताते हैं जो हमें ज़ोर-ज़बर से लेकर गए थे। दिल्ली बड़ा भारी भरकम शहर लगा। महंगा और सस्ता एक साथ। इधर मैं देखता हूँ कि हम कई बार पुस्तकें नहीं खरीदने वाले या नहीं पढ़ने वालों को गरियाते रहते हैं। गहरे में सोचा तो पाया कि यह बहुत अच्छी बात तो नहीं ही है। अनुभव-सम्पन्न जीवन भी किताब का-सा ही है। ढेरों कहानियां और किस्से हैं जो नित-नया सिखाते रहते हैं। यह सब कहकर मैं किताबों के संसार की ज़रूरत को नकार नहीं रहा। अब घर में स्त्रियां किताबें पढ़ने लाइब्रेरी जाएगी तो खाना कौन पकाएगा, तब पुरुषों की किताब छूट जाएगी। स्त्रियां मायरे, धोवरे और काज-कार्यवर के कपड़े खरीदती, सजाती और उसकी भले से आद-अवेर करती हैं। वे दिल्ली जाएंगी तो गिरस्ती में पुरुष भूमिका निभा पाएगा? जैसा कि उसकी आदत नहीं है। कोई एक दशक से बच्चे बड़े कर रही हैं। कोई लकवे में पड़े सास-ससुर को संभाल रही है। अब बताओ पुस्तक खरीदे कि पढ़े। गेहूँ साफ़ करके धूप देने से लेकर हल्दी-मिर्ची पीसना सब वे निभा रही हैं। वे इस धरती को संवारने में इतनी व्यस्त हैं कि आपकी किसी किताब से सुनाई जा रही कविता में ठीक से कान नहीं लगा पाती। एक साथ चारेक काम करती मिलेंगी। कामकाजी महिलाएं तो इतनी भागमभाग में हैं कि उनकी बिंदी गलत जगह लग जाती तो कभी चश्मा गुम जाता। कभी क्लेचर भूल जातीं कभी अलग रंग का रिब्बन लगा आतीं। असल में उनकी दौड़ पर किताबें लिखी जाए तो उनका भला हो। उनकी आप बीती कोई उन्हें विश्वासकर पास बिठा पूछताछ कर लिख लें भले। ख़बरदार जो किसी ने कहा कि फलां किताबें न खरीदते न पढ़ते हैं। हम पुरुष इसलिए थोड़ा पढ़ पा रहे हैं क्योंकि वे साग-भाजी कतर कर छौँक रही है। यों कहो तो रोटी बेलना भी पुस्तक पढ़ना ही है। कपड़े धोना सिनोप्सिस तैयार करना और अचार डालना थिसिस लिखना है। ब्याव के बुलावे करना किताबों की समीक्षा के बराबर है। ननद-भोजाई और देवरानी-जेठानी का निबाह करना किसी विमोचन से कम आसान है क्या? बताओ। सभी अपने हिस्से का पढ़ लिख रहे हैं। मुझे लगा कि हम पुरुषजात को स्त्री-समाज का आभारी होना चाहिए कि हम किताबें पढ़कर उन पर गोष्ठी के लिए फुरसत में हैं। -माणिक
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