
'अपनी माटी' पत्रिका
February 14, 2025 at 01:38 AM
भूमंडलीकरण मुख्य रूप से दो क्षेत्रों पर सर्वाधिक बल देता है; ‘उदारीकरण’ और ‘निजीकरण’। उदारीकरण का अर्थ है, औद्योगिक और सेवा क्षेत्र की विभिन्न गतिविधियों से संबंधित नियमों में ढील देना और विदेशी कम्पनियों को घरेलू क्षेत्र में व्यापारिक और उत्पादन इकाइयाँ लगाने हेतु प्रोत्साहित करना। निजीकरण के माध्यम से सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों की सम्पत्ति को निजी क्षेत्र के हाथों बेचना भी सम्मिलित है। अब चूंकि भूमंडलीकरण एक प्रकार से सरकारों को संसाधनों का निजीकरण करने के लिए प्रोत्साहित कर सकता है जिसके कारण विकास के साथ-साथ लाभ कमाने की दृष्टि से संसाधनों का दोहन करने की संभावना भी बढ़ जाती है। इसी के साथ बाजारवाद और उपभोक्तावाद भूमंडलीकरण के सहचर के रूप में कार्य करते हैं। भूमंडलीकरण के इस दौर में आज हमारे समक्ष विकास के जो मॉडल रखे जा रहें हैं, काफ़ी हद तक उनका रूप एकाकी है, और वह बड़े ही सीमित अर्थ में समाज को आधुनिक और विकसित करना चाहता है। भारत में शहरों की ओर बढ़ते प्रवास को संभालने की क्षमता सीमित है और न सिर्फ़ भारत के शहरों में बल्कि वैश्विक पटल पर भी देखें तो स्थिति कुछ खास संतोष जनक नहीं है इसका सबसे बड़ा उदाहरण अमेरिका है हाल हीं में शिक्षा के क्षेत्र में अमेरिका ने अन्य देशों के छात्रों को उनके ही देश में बैठे-बैठे डिग्री देने का चलन शुरू किया है कहने का अर्थ है कि अब आपको शिक्षा ग्रहण करने के लिए अमेरिका जाने की जरूरत नहीं है बल्कि आप ऑनलाइन माध्यम से कई क्षेत्रों में घर बैठे डिग्री ले सकते हैं कहीं न कहीं अमेरिका प्रवास के दूरगामी परिणामों को समझ रहा है। वहीं दूसरी ओर भारत में बढ़ते शहरीकरण ने परम्परागत सामाजिक ढांचे को पलट कर रख दिया है। विकास का यह स्वरूप सामान्य जन को पलायन और विस्थापन की ओर धकेल रहा है। ये समस्याएँ विकास के पर्याय के रूप में हमारे सामने परोसी जा रही हैं। यदि हम वैश्विक स्तर पर विस्थापन की समस्याओं की गणना करें, तो भारत वह देश ठहरता है, जहाँ भूमंडलीकरण के आगमन से विकास के पर्याय के रूप में विस्थापन की समस्या का दायरा बढ़ा है। भूमंडलीकरण के दौर में सरकार के द्वारा जिन आर्थिक नीतियों को बड़े स्तर पर लागू किया गया उसमें वितरण की असमानता ने मजदूरों को व्यापक स्तर पर पलायन करने के लिए मजबूर किया। मैनेजर पाण्डेय अपनी पुस्तक ‘भारतीय समाज में प्रतिरोध की परम्परा’ में ग्राम्शी के विचार को उद्धृत करते हुए कहते हैं कि “मुक्त व्यापार भी एक प्रकार का नियंत्रण है जो कानून और ताकत से लागू किया जाता है। वह जानबूझकर बनाई गयी ऐसी नीति है जो अपने लक्ष्यों के बारे में सचेत है यह आर्थिक स्थिति का स्वाभाविक और स्वतंत्र विकास नहीं।
[" भूमंडलीकरण : पलायन और विस्थापन / दिलीप शाक्य, एस. लिंगामूर्ति एवं हरीश कुमार / सूत्रधार : भावना " अपनी माटी के इस आलेख को पूरा पढ़ने के लिए दिए गए लिंक पर जाएं ( अंक 57 ) ]
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