'अपनी माटी' पत्रिका
'अपनी माटी' पत्रिका
February 17, 2025 at 01:34 AM
यह ब्रह्माण्ड, जितना दिखता है और जो नहीं दिखता- किसी के द्वारा बनाया नहीं गया बल्कि ‘हुआ’ है। बनाने और होने में फ़र्क है। बनाने में, बनाने वाला, साधन और पदार्थ(कर्ता, निमित्त व उपादान) की आवश्यकता, जबकि ‘होने’ में कुछ भी नहीं चाहिए। ‘होना’ तो स्वतःस्फूर्त है, ऑटोमेटिक है। माँ के उदर में शिशु होता है, बनाया नहीं जाता। सभी कुछ ‘हुआ’ है, बनाया नहीं गया। सो, जगत् से भिन्न ईश्वर, ब्रह्म आदि की सत्ता मानव मस्तिष्क का फितूर है। हम ईश्वर नामक काल्पनिक सत्ता से भयभीत हुए बिना ढंग से जी भी नहीं पाते। इतना ज़रूर है कि यह सारी सृष्टि और हम एक ही परमतत्त्व- परमाणु की निर्मिति हैं, इसमें कोई दो राय नहीं। परमाणु और परिवर्तन दोनों सत्य हैं और एक-दूजे से जुड़े हुए, बल्कि अभिन्न हैं- जल और तरंग की भांति। परमाणु के बदलते ही प्राणि-पदार्थ के रूपाकार बदल जाते हैं- भीतरी सत्ता अक्षुण्ण रहती है। हमें ईश्वर और मौत का डर ज़ोरदार सताए रहता है। जबकि न तो ईश्वर है न हमारी मौत। ‘ईश्वर’ नामक सत्ता है ही नहीं और मौत सिर्फ़ एक परिवर्तन है। अतः भय का कोई कारण नहीं। हमारा सारा डर मनगढ़ंत है। अगर सृष्टि बनाने वाला होता तो कहाँ वह बैठा होगा, कहाँ से यह अपार सामग्री लाया होगा और औजार-पानी कहाँ से जुटाए होंगे। हज़ारों बरस की दार्शनिकता में इनसान का पागलपन भी शामिल है। किसी एक के दिमाग़ से निकली बात, जो शुद्ध कल्पना मात्र है- को सारे दिमाग़ और दिल क्यों मान लें? क्यों? प्रश्न-चिह्न राहुल सांकृत्यायन कह गए हैं की भारतीय दर्शन धर्म का लग्गू-भग्गू रहा है, बात में दम है। धर्म आस्था का विषय। दर्शन, तर्क और बुद्धि का। सो, जैन-बौद्ध को छोड़कर बाक़ी भारतीय चिंतन धर्म और ईश्वर के प्रत्यय से दूषित हैं। शुद्धता, निस्संगता नहीं रही। ईश्वर को मानकर चलें, वेद को परम सत्य मानकर चलें, तो दर्शन तो वहीं अंधा और विकलांग हो गया। [" डायरी : अक्टूबर 2024 / सत्यनारायण व्यास "अपनी माटी के इस आलेख को पूरा पढ़ने के लिए दिए गए लिंक पर जाएं ( अंक 57 ) ] लिंक 👉 https://www.apnimaati.com/2024/12/2024.html
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