Dr. Dilip Kumar Pareek
Dr. Dilip Kumar Pareek
February 5, 2025 at 01:03 AM
और घूमती हुई घड़ी की सूईयाँ खाती जा रही हैं एक एक पल इस लम्बे लगते जीवन का जहाँ मैनें हर बार सोचा है कि मैं फलां काम कल कर लूंगा हर एक काम को मैनें पास रखा सहेज कर भविष्य में सम्पादित करने को जबकि घड़ी ठीक मेरे सामने वाली दीवार पर कील के सहारे अनथक चल रही है मैं उसे देखकर नहीं देखता मैं उसे चलते देख नहीं चलता यह नजरअंदाजी आज मेरी तरफ से है कल घड़ी की तरफ से होगी मुझे पता है और गलत ये है कि यह मुझे उस वक्त भी पता होता है जब घड़ी मुझे सुनाती रहती है अपनी टिक टिक टिक टिक डॉ. दिलीप कुमार पारीक
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