
अखण्ड सनातन समिति🚩🇮🇳
February 25, 2025 at 02:03 AM
*"अखिल विश्व अखण्ड सनातन सेवा फाउंडेशन"*(पंजीकृत) *द्वारा संचालित*
*अखण्ड सनातन समिति🚩🇮🇳*
*क्रमांक~ ०२*
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*`!! श्रीमद्भागवत महापुराण !!`*
`{चतुर्थ स्कन्ध:}`
*【अष्टाविंशति अध्याय】*
*(श्लोक~ 01से 32 तक)*
*_पुरञ्जन को स्त्रीयोनि की प्राप्ति..._*
*श्रीनारदजी कहते हैं—* राजन् ! फिर भय नामक यवनराज के *आज्ञाकारी सैनिक प्रज्वार और कालकन्या के साथ इस पृथ्वी तल पर सर्वत्र विचरने लगे।* एक बार उन्होंने बड़े वेग से बूढ़े साँप से सुरक्षित और संसार की सब प्रकार की सुख सामग्री से सम्पन्न *पुरञ्जनपुरी को घेर लिया।* तब, जिसके चंगुल में फँसकर पुरुष शीघ्र ही निःसार हो जाता है, वह *कालकन्या बलात् उस पुरी की प्रजा को भोगने लगी।* उस समय वे यवन भी कालकन्या के द्वारा भोगी जाती हुई उस पुरी में चारों ओर से *भिन्न भिन्न द्वारों से घुसकर उसका विध्वंस करते लगे* पुरी को इस प्रकार पीड़ित किये जाने पर *उसके स्वामित्व का अभिमान रखनेवाले* तथा ममताग्रस्त, बहुकुटुम्बी राजा पुरञ्जन को भी नाना प्रकार के क्लेश सताने लगे।
कालकन्या को आलिङ्गन करने से *उसकी सारी श्री नष्ट हो गयी तथा अत्यन्त विषयासक्त होनेके कारण वह बहुत दीन हो गया,* उसकी विवेक शक्ति नष्ट हो गयी। गन्धर्व और *यवनों ने बलात् उसका सारा ऐश्वर्य लूट लिया।* उसने देखा कि सारा नगर नष्ट-भ्रष्ट हो गया है; पुत्र, पौत्र, भृत्य और अमात्यवर्ग प्रतिकूल होकर अनादर करने लगे हैं; *स्त्री स्नेहशून्य हो गयी है,* मेरे देश को काल ने बस में कर रखा है और पाञ्चाल देश शत्रुओं के हाथ में पड़कर भ्रष्ट हो गया है। *यह सब देखकर राजा पुरञ्जन अपार चिन्ता में डूब गया और उसे उस विपत्ति से छुटकारा पाने का कोई उपाय न दिखायी दिया।* कालकन्या ने जिन्हें निःसार कर दिया था, उन्हीं भोगों की लालसा से वह दीन था। अपनी *पारलौकिकी गति और बन्धुजनों के स्नेह से वंचित रहकर उसका चित्त केवल स्त्री और पुत्र के लालन-पालन में ही लगा हुआ था।* ऐसी अवस्था में उनसे बिछुड़ने की इच्छा न होने पर भी उसे उस *पुरी को छोड़ने के लिये बाध्य होना पड़ा क्योंकि उसे गन्धर्व और यवनों ने घेर रखा था* तथा काल कन्या ने कुचल दिया था। इतने में ही यवनराज भय के बड़े भाई प्रज्यार ने अपने भाई का प्रिय करने के लिये *उस सारी पुरी में आग लगा दी। जब वह नगरी जलने लगी, तब पुरवासी सेवकवृन्द, सन्तानवर्ग और कुटुम्ब की स्वामिनी के सहित कुटुम्बवत्सल पुरञ्जन को बड़ा दुःख हुआ।* नगर को कालकन्या के हाथ में पड़ा देख उसकी रक्षा करनेवाले *सर्प को भी बड़ी पीड़ा हुई,* क्योंकि उसके निवास स्थान पर भी यवनों ने अधिकार कर लिया था और प्रज्वार उस पर भी आक्रमण कर रहा था। जब उस नगर की रक्षा करने में वह *सर्वथा असमर्थ हो गया, तब जिस प्रकार जलते हुए वृक्ष के कोटर में रहनेवाला सर्प उससे निकल जाना चाहता है, उसी प्रकार उसने भी महान् कष्ट से काँपते हुए वहां से भागने की इच्छा की।* उसके अङ्ग-प्रत्यङ्ग ढीले पड़ गये थे तथा गन्धर्वो ने उसकी सारी शक्ति नष्ट कर दी थी; *अतः जब यवन शत्रुओं ने उसे जाते देखकर रोक दिया, तब वह दुःखी होकर रोने लगा।*
पुरञ्जन देह -गेहादि में मैं मेरेपन का भाव रखने से *अत्यन्त बुद्धिहीन हो गया था।* स्त्री के प्रेमपाश में फँसकर वह बहुत दीन हो गया था। अब जब इनसे बिछुड़ने का समय उपस्थित हुआ, *तब वह अपने पुत्री, पुत्र, पौत्र, पुत्रवधू, दामाद, नौकर और घर खजाना तथा अन्यान्य जिन पदार्थों में उसको ममताभर शेष थी. (उनका भोग तो कभीका छूट गया था), उन सबके लिये इस प्रकार चिन्ता करने लगा।* हाय ! मेरी भार्या तो बहुत घर-गृहस्थीवाली है; जब मैं परलोक को चला जाऊँगा, *तब यह असहाय होकर किस प्रकार अपना निर्वाह करेगी ? इसे इन बाल-बच्चों की चिन्ता ही खा जायगी।* यह मेरे भोजन किये बिना भोजन नहीं करती थी और स्नान किये बिना स्नान नहीं करती थी, *सदा मेरी ही सेवा में तत्पर रहती थी। मैं कभी रूठ जाता था तो यह बड़ी भयभीत हो जाती थी और झिड़कने लगता तो डर के मारे चुप रह जाती थी।* मुझसे कोई भूल हो जाती तो यह मुझे सचेत कर देती थी। मुझमें इसका इतना अधिक स्नेह है कि *यदि मैं कभी परदेश चला जाता था तो यह विरहव्यथा से सूखकर काँटा हो जाती थी।* यों तो यह वीरमाता है, तो भी मेरे पीछे क्या यह गृहस्थाश्रम का व्यवहार चला सकेगी ? *मेरे चले जाने पर एकमात्र मेरे ही सहारे रहनेवाले ये पुत्र और पुत्री भी कैसे जीवन धारण करेंगे?* ये तो बीच समुद्र मे नाव टूट जाने से व्याकुल हुए यात्रियों के समान बिलबिलाने लगेंगे।
यद्यपि ज्ञानदृष्टि से उसे शोक करना उचित न था, *फिर भी अज्ञानवश राजा पुरञ्जन इस प्रकार दीनबुद्धि से अपने स्त्री-पुत्रादिके लिये शोकाकुल हो रहा था।* इसी समय उसे पकड़ने के लिये वहाँ भय नामक यवनराज आ धमका। जब *यवनलोग उसे पशु के समान बाँधकर अपने स्थान को ले चले, तब उसके अनुचरगण अत्यन्त आतुर और शोकाकुल होकर उसके साथ हो लिये।* यवनों द्वारा रोका हुआ सर्प भी उस पुरी को छोड़कर इन सबके साथ ही चल दिया। *उसके जाते ही सारा नगर छिन्न-भिन्न होकर अपने कारण में लीन हो गया।* इस प्रकार महाबली यवनराज के बलपूर्वक खींचने पर भी राजा पुरञ्जन ने अज्ञानवश *अपने हितैषी एवं पुराने मित्र अविज्ञात का स्मरण नहीं किया।*
उस निर्दय राजा ने जिन यज्ञ पशुओं की बलि दी थी, *वे उसकी दी हुई पीड़ा को याद करके उसे क्रोधपूर्वक कुठारों से काटने लगे।* वह वर्षोंतक विवेकहीन अवस्था में अपार अन्धकार में पड़ा निरन्तर कष्ट भोगता रहा। *स्त्री की आसक्ति से उसकी यह दुर्गति हुई थी।* अन्त समय में भी पुरञ्जन को उसी का चिन्तन बना हुआ था। *इसलिए दूसरे जन्म में वह नृपश्रेष्ठ विदर्भराज के यहाँ सुन्दरी कन्या होकर उत्पन्न हुआ।* जब यह विदर्भनन्दिनी विवाहयोग्य हुई, तब विदर्भराज ने घोषित कर दिया कि *इसे सर्वश्रेष्ठ पराक्रमी वीर ही व्याह सकेगा।* तब शत्रुओं के नगरों को जीतनेवाले *पाण्ड्यनरेश महाराज मलयध्वज ने समरभूमि में समस्त राजाओं को जीतकर उसके साथ विवाह किया।* उससे महाराज मलयध्वज ने एक *श्यामलोचना कन्या और उससे छोटे सात पुत्र उत्पन्न किये,* जो आगे चलकर द्रविडदेश के सात राजा हुए। राजन् ! फिर उनमें से *प्रत्येक पुत्र के बहुत-बहुत पुत्र उत्पन्न हुए, जिनके वंशधर इस पृथ्वी को मन्वन्तर के अन्ततक तथा उसके बाद भी भोगेंगे।* राजा मलयध्वज की पहली पुत्री बड़ी *व्रतशीला थी। उसके साथ अगस्त्य ऋषिका विवाह हुआ।* उससे उनके दृढ़च्युत नामका पुत्र हुआ और दृढ़च्युत के इध्मवाह हुआ।।
*ॐ नमो भगवते वासुदेवाय🙏🏻🙏🏻*
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